Tuesday, February 6, 2024

कार्तिक माहात्म्य--15


अध्याय - 15

          

          राजा पृथु ने नारद जी से पूछा – हे मुनिश्रेष्ठ! तब दैत्यराज ने क्या किया? वह सब मुझे विस्तार से सुनाइए।

          नारद जी बोले – मेरे (नारद जी के) के चले जाने के बाद जलन्धर ने अपने राहु नामक दूत को बुलाकर आज्ञा दी कि कैलाश पर एक जटाधारी शम्भु योगी रहता है उससे उसकी सर्वांग सुन्दरी भार्या को मेरे लिए माँग लाओ।

          तब दूत शिव के स्थान में पहुंचा परन्तु नन्दी ने उसे भीतर सभा में जाने से रोक दिया। किन्तु वह अपनी उग्रता से शिव की सभा में चला ही गया और शिव के आगे बैठकर दैत्यराज का सन्देश कह सुनाया। उस राहु नामक दूत के ऎसा कहते ही भगवान शूलपानि के आगे पृथ्वी फोड़कर एक भयंकर शब्दवाला पुरुष प्रकट हो गया जिसका सिंह के समान मुख था। वह नृसिंह ही राहु को खाने चला। राहु बड़े जोर से भागा परन्तु उस पुरुष ने उसे पकड़ लिया। उसने शिवजी की शरण ले अपनी रक्षा माँगी। शिवजी ने उस पुरुष से राहु को छोड़ देने को कहा परन्तु उसने कहा मुझे बड़ी जोर की भूख लगी है, मैं क्या खाऊँ?

          महेश्वर ने कहा – यदि तुझे भूख लगी है तो शीघ्र ही अपने हाथ और पैरों का माँस भक्षण कर ले और उसने वैसा ही किया। अब केवल उसका सिर शेष मात्र रह गया तब उसका ऎसा कृत्य देख शिवजी ने प्रसन्न हो उसे अपना आज्ञापालक जान अपना परम प्रिय गण बना लिया। उस दिन से वह शिव जी के द्वार पर ‘स्वकीर्तिमुख’ नामक गण होकर रहने लगा।


🚩जय श्रीराधे कृष्णा🚩

Saturday, February 3, 2024

कार्तिक माहात्म्य -14


अध्याय - 14

          

          तब उसको इस प्रकार धर्मपूर्वक राज्य करते हुए देख देवता क्षुब्ध हो गये। उन्होंणे देवाधिदेव शंकर का मन में स्मरण करना आरंभ किया तब भक्तों की कामना पूर्ण करने वाले शंकर ने नारद जी को बुलाकर देव कार्य की इच्छा से उनको वहाँ भेजा। शम्भु भक्त नारद शिव की आज्ञा से देवपुरी में गये। इन्द्रादिक सभी देवता व्याकुल हो शीघ्रता से उठ नारद जी को उत्कंठा भरी दृष्टि से देखने लगे। अपने सब दुखों को कहकर उन्हें नष्ट करने की प्रार्थना की तब नारद जी ने कहा – मैं सब कुछ जानता हूँ इसलिए अब मैं दैत्यराज जलन्धर के पास जा रहा हूँ। ऎसा कह नारद जी देवताओं को आश्वासित कर जलन्धर की सभा में आये। जलन्धर ने नारद जी के चरणों की पूजा कर हँसते हुए कहा – हे ब्रह्मन! कहिए, आप कहाँ से आ रहे हैं? यहाँ कैसे आये हैं? मेरे योग्य जो सेवा हो उसकी आज्ञा दीजिए।

          नारद जी प्रसन्न होकर बोले – हे महाबुद्धिमान जलन्धर! तुम धन्य हो, मैं स्वेच्छा से कैलाश पर्वत पर गया था, जहाँ दश हजार योजनों में कल्पवृक्ष का वन है। वहाँ मैंने सैकड़ो कामधेनुओं को विचरते हुए देखा तथा यह भी देखा कि वह चिन्तामणि से प्रकाशित परम दिव्य अद्भुत और सब कुछ सुवर्णमय है। मैंने वहाँ पार्वती के साथ स्थित शंकर जी को भी देखा जो सर्वांग सुन्दर, गौर वर्ण, त्रिनेत्र और मस्तक पर चन्द्रमा धारण किये हुए है। उन्हें देखकर मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ कि इनके समान समृद्धिशाली त्रिलोकी में कोई है या नहीं? हे दैत्येन्द्र! उसी समय मुझे तुम्हारी समृद्धि का स्मरण हो आया और उसे देखने की इच्छा से ही मैं तुम्हारे पास चला आया हूँ।

          यह सुन जलन्धर को बड़ा हर्ष हुआ। उसने नारद जी को अपनी सब समृद्धि दिखला दी। उसे देख नारद ने जलन्धर की बड़ी प्रशंसा की और कहा कि निश्चय ही तुम त्रिलोकपति होने के योग्य थे। ब्रह्माजी का हंसयुक्त विमान तुम ले आये हो और द्युलोक, पाताल और पृथ्वी पर जितने भी रत्नादि हैं सब तुम्हारे ही तो हैं। ऎरावत, उच्चै:श्रवा घोड़ा, कल्पवृक्ष और कुबेर की निधि भी तुम्हारे पास है। मणियों और रत्नों के ढेर भी तुम्हारे पास लगे हुए हैं। इससे मैं बड़ा प्रसन्न हूँ परन्तु तुम्हारे पास कोई स्त्री-रत्न नहीं है। उसके बिना तुम्हारा यह सब फीका है। तुम किसी स्त्री-रत्न को ग्रहण करो।

          नारद जी के ऎसे वचन सुनकर दैत्यराज काम से व्याकुल हो गया। उसने नारद जी को प्रणाम कर पूछा कि ऎसी स्त्री कहाँ मिलेगी जो सब रत्नों में श्रेष्ठ हो।

          नारद जी ने कहा – ऎसा रत्न तो कैलाश पर्वत में योगी शंकर के ही पास है। उनकी सर्वांग सुन्दरी पत्नी देवी पार्वती बहुत ही मनोहर हैं। उनके समान सुन्दरी मैं किसी को नहीं देखता। उनके उस रत्न की उपमा तीनों लोकों में कहीं नहीं है। देवर्षि उस दैत्य से ऐसा कहकर देव कार्य करने की इच्छा से आकाश मार्ग से चले गये।


🚩जय श्रीराधे कृष्णा🚩