सर्वप्रथम जीवन की समस्यओं को समझने की आवश्यकता है. समझने के बाद उनका सम्यक विवेकपूर्ण विश्लेषण करना होगा. पुनः उनके निदान हेतु उपस्थित परिस्थितियों का आकलन भी आवश्यक है.
उपर्युक्त समीक्षात्मक कार्य होने के उपरान्त जो भी हल उपस्थित होगा वह सभी के हितार्थ होगा. आखिरी पायदान पर खड़ा साधक भी लाभान्वित होगा.ऐसे समाज की विचारधारा की पुष्टता
जीवन को सुस्थिर और व्यवस्थित बनाकर धैर्यपूर्वक गतिमान करना हम सभी का पुनीत कर्तव्य है.
अस्तु ऐसी व्यवस्था को संचरित करने हेतु अनुभूतियाँ अपेक्षित परिवर्तन स्वतः करने लगती हैं. ऐसा परिवर्तन व्यष्टि से समष्टि की ओर ले जाता है. कितना सटीक है यह निम्न विवेचन. मनन करें और जीवन में प्रयोग करें
"ऐ पथगामी!
पग धीरे -धीरे धरना!
विषम भूमि, अपरिचित मग में,
सोच समझकर चलना!
पुनः -
"धीरज धर, धीरे चलना!
इस प्रकार की यात्रा जीवन को गतिमान बनाने में समर्थ है. परिवर्तन शाश्वत नियम है पर वह हो सभी के हितार्थ!
हरि
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