ॐ गण गणपते नमः
गणेश भक्तों के लिए सन्तानादि प्रदायक कथा
ऋषिगण पूछते हैं कि हे स्कन्द कुमार! दरिद्बता, शोक, कुष्ठ आदि से विकलांग,शत्रुओं से संतप्त , राज्य से निष्कासित राजा, सदैव दुःखी रहने वाले, धनहीन, समस्त उपद्रवों से पीड़ित, विद्याहीन, संतानहीन , घर से उपरोक्त कष्टों का निवारण हो । यदि आप कोई उपाय जानते हों. तो उसे बतलाइए | स्वामी कीर्तिकिय जी ने कहा-हे ऋषियों! आपने जो प्रश्न किया है,उसके निवारार्थ मैं एक व्रत बतलाता हूँ , सुनिए। इस व्रत के करने से पृथ्वी के समस्त प्राणी सभी संकटों से मुक्त हो जाते हैं। यह व्रत राज महापुण्यकारी एवं मानवों को सभी कार्यों में सफलता प्रदान करने वाला है। विशेषतया यदि इस व्रत को महिलायें करें तो उन्हें सन्तान एवं सौभाग्य की वृद्धि होती है। इस व्रत को धर्मराज युथिष्ठिर ने किया था। पूर्वकाल में राज्यच्युत होकर अपने भाइयों के साथ जब धर्मराज वन में चले गये थे, तो उस वनवास काल में भगवान श्रीकृष्ण ने उनसे कहा था। युथिष्ठिर ने भगवान कृष्ण से अपने कष्टों के शमनार्थ जो प्रश्न किया था, उस कथा को आप श्रवण कीजिए ।।
युधिष्ठिर पूछते हैं कि, हे पुरुषोत्तम! ऐसा कौन सा उपाय है जिससे हम वर्तमान संकटों से मुक्त हो सकें। हे गदाधर! आप सर्वज्ञ हैं। हम लोगोंको आगे अब किसी प्रकार का कष्ट न भुगनता पड़े, ऐसा उपाय बतलाइये ।स्कन्दकुमार जी कहते हैं कि जब धैर्यवान युधिष्ठिर विनम्र भाव से हाथ जोड़कर, बारम्बार अपने कष्टों के निवारण का उपाय पूछने लगे तो भगवान ह्रषिकेश ने कहा |
श्रीकृष्ण जी ने कहा कि हे राजन! सम्पूर्ण कामनाओं को पूर्ण करन वाला एक बहुत बड़ा गुप्त व्रत है। हे पुरुषोत्तम! इस व्रत के सम्बन्ध में मैंने आज तक किसी को नहीं बतलाया है। हे राजन! प्राचीनकाल में सत्ययुग की बात है कि पर्वतराज हिमाचल की सुन्दर कन्या पार्वती ने शंकर जी को पति रूप में प्राप्त करने के लिए गहन वन में जाकर कठोर तपस्या कौ। परन्तु भगवान शिव प्रसन्न होकर प्रकट नहीं हुए तब शेलतनया पार्वतीजी ने अनादि काल से विद्यमान गणेश जी का स्मरण किया। गणेश जी को उसी क्षण प्रकट देखकर पार्वती जी ने पूछा कि मैंने कुठीर, दुर्लभ एवं लोमहर्षक तपस्या की, किन्तु अपने प्रिय भगवान शिव को प्राप्त न कर सकी। वह कष्टविनाशक दिव्य व्रत जिसे नारद जी ने कहा है और जो आपका ही व्रत है, उस प्राचीन व्रत के तत्व को आप मुझसे कहिये। पार्वती जी की बात सुनकर तत्कालीन सिद्धि दाता गणेश जी उस कष्टनाशक, शुभदायक व्रत का प्रेम से वर्णन करने लगे ।
फिर हे देवी! तुम सब तिथियों में सर्वोत्तम हो, गणेश जी की परम प्रियतमा हो। हे चतुर्थी हमारे द्वारा प्रदत्त अर्घ्य को ग्रहण करो, तुम्हें प्रणाम है।निम्न प्रकार से चन्द्रमा को अर्घ्य प्रदान करें--क्षीरसागर से उत्पन्न हे लक्ष्मी के भाई) हे निशाकर! रोहिणी सहित हे शशि! मेरे दिये हुये अर्घ्य को ग्रहण कीजिये । गणेश जी को इस प्रकार प्रणाम करें--हे लम्बोदर! आप सम्पूर्ण इच्छाओं को पूर्ण करने वाले हैं आपको प्रणाम है। हे समस्त विघ्नों के नाशक! आप मेरी अभिलाषाओं को पूर्ण करें। तत्पश्चात ब्राह्मण की अआर्थना करें--हे ट्विजराज ! आपको नमस्कार है, आप साक्षात देवस्वरूप हैं । गणेश जी की प्रसन्नता के लिए हम आपको लड्डू समर्पित कर रहे हैं। आप हम दोनों का उद्धार करने के लिए दक्षिणा सहित इन पाँच लड्डुओं को स्वीकार करें। हम आपको नमस्कार करते हैं। इसके बाद ब्राह्मण भोजन कराकर गणेश जी से प्रार्थना करें। यदि इन सब कार्यों के करने की शक्ति न हो तो अपने भाई-बन्धुओं के साथ दही एवं पूजन में निवेदित पदार्थ का भोजन करें। प्रार्थना करके प्रतिमा का विसर्जन करें और अपने गुरु को अन्न-वस्त्रादि एवं दक्षिणा के साथ मूर्ति दे देवें। इस प्रकार से विसर्जन करें--हे देवों में श्रेष्ठ! गणेश जी! आप अपने स्थानको प्रस्थान कीजिए एवं इस व्रत पूजा के फल को दीजिए।
हे सुमुखि ! इस प्रकार जीवन भर गणेश चतुर्थी का व्रत करना चाहिए। यदि जन्म भर न कर सकें तो इक्कीस वर्ष तक करें। यदि इतना करना भी सम्भव न हो तो एक वर्ष तक बारहों महीने के व्रत को करें। यदि |! इतना भी न कर सकें तो वर्ष के एक मास को अवश्य ही व्रत करें और श्रावण चतुर्थी को व्रत का उद्यापन करें।
|| जय गणपति गणेश जी महाराज ||