Thursday, January 25, 2024

कार्तिक माहात्म्य -05


अध्याय - 05

          

           राजा पृथु बोले – हे नारद जी! आपने कार्तिक मास में स्नान का फल कहा, अब अन्य मासों में विधिपूर्वक स्नान करने की विधि, नियम और उद्यापन की विधि भी बतलाइये।

          देवर्षि नारद ने कहा – हे राजन्! आप भगवान विष्णु के अंश से उत्पन्न हुए हैं, अत: यह बात आपको ज्ञात ही है फिर भी आपको यथाचित विधान बतलाता हूँ।

          आश्विन माह में शुक्लपक्ष की एकादशी से कार्तिक के व्रत करने चाहिए। ब्रह्ममुहूर्त में उठकर जल का पात्र लेकर गाँव से बाहर पूर्व अथवा उत्तर दिशा में जाना चाहिए। दिन में या सांयकाल में कान में जनेऊ चढ़ाकर पृथ्वी पर घास बिछाकर सिर को वस्त्र से ढककर मुंह को भली-भाँति बन्द कर के थूक व सांस को रोककर मल व मूत्र का त्याग करना चाहिए। तत्पश्चात मिट्टी व जल से भली-भाँति अपने गुप्ताँगों को धोना चाहिए। उसके बाद जो मनुष्य मुख शुद्धि नहीं करता, उसे किसी भी मन्त्र का फल प्राप्त नहीं होता है। अत: दाँत और जीभ को पूर्ण रूप से शुद्ध करना चाहिए और निम्नलिखित मन्त्र का उच्चारण करते हुए दातुन तोड़नी चाहिए।

          ‘हे वनस्पतये! आप मुझे आयु, कीर्ति, तेज, प्रज्ञा, पशु, सम्पत्ति, महाज्ञान, बुद्धि और विद्या प्रदान करो’। इस प्रकार उच्चारण करके वृक्ष से बारह अंगुल की दांतुन ले, दूध वाले वृक्षों से दांतुन नहीं लेनी चाहिए। इसी प्रकार कपास, कांटेदार वृक्ष तथा जले हुए वृक्ष से भी दांतुन लेना मना है। जिससे उत्तम गन्ध आती हो और जिसकी टहनी कोमल हो, ऎसे ही वृक्ष से दन्तधावन ग्रहण करना चाहिए।

          प्रतिपदा, अमावस्या, नवमी, छठी, रविवार को, चन्द्र तथा सूर्यग्रहण में दांतुन नहीं करनी चाहिए। तत्पश्चात भली-भाँति स्नान कर के फूलमाला, चन्दन और पान आदि पूजा की सामग्री लेकर प्रसन्नचित्त व भक्तिपूर्वक शिवालय में जाकर सभी देवी-देवताओं की अर्ध्य, आचमनीय आदि वस्तुओं से पृथक-पृथक पूजा करके प्रार्थना एवं प्रणाम करना चाहिए फिर भक्तों के स्वर में स्वर मिलाकर श्रीहरि का कीर्तन करना चाहिए।

          मन्दिर में जो गायक भगवान श्रीहरि का कीर्तन करने आये हों उनका माला, चन्दन, ताम्बूल आदि से पूजन करना चाहिए क्योंकि देवालयों में भगवान विष्णु को अपनी तपस्या, योग और दान द्वारा प्रसन्न करते थे परन्तु कलयुग में भगवद गुणगान को ही भगवान श्रीहरि को प्रसन्न करने का एकमात्र साधन माना गया है।

          नारद जी राजा पृथु से बोले – हे राजन! एक बार मैंने भगवान से पूछा कि हे प्रभु! आप सबसे अधिक कहां निवास करते हैं? इसका उत्तर देते हुए भगवान ने कहा – हे नारद! मैं वैकुण्ठ या योगियों के हृदय में ही निवास नहीं करता अपितु जहां मेरे भक्त मेरा कीर्तन करते हैं, मैं वहां अवश्य निवास करता हूँ। जो मनुष्य चन्दन, माला आदि से मेरे भक्तों का पूजन करते हैं उनसे मेरी ऎसी प्रीति होती है जैसी कि मेरे पूजन से भी नहीं हो सकती।

          नारद जी ने फिर कहा – शिरीष, धतूरा, गिरजा, चमेली, केसर, कन्दार और कटहल के फूलों व चावलों से भगवान विष्णु की पूजा नहीं करनी चाहिए। अढ़हल,कन्द, गिरीष, जूही, मालती और केवड़ा के पुष्पों से भगवान शंकर की पूजा नहीं करनी चाहिए। जिन देवताओं की पूजा में जो फूल निर्दिष्ट हैं उन्हीं से उनका पूजन करना चाहिए। पूजन समाप्ति के बाद भगवान से क्षमा प्रार्थना करनी चाहिए। यथा – ‘हे सुरेश्वर, हे देव! न मैं मन्त्र जानता हूँ, न क्रिया, मैं भक्ति से भी हीन हूँ, मैंने जो कुछ भी आपकी पूजा की है उसे पूरा करें’।

          ऎसी प्रार्थना करने के पश्चात साष्टांग प्रणाम कर के भगवद कीर्तन करना चाहिए। श्रीहरि की कथा सुननी चाहिए और प्रसाद ग्रहण करना चाहिए।

          जो मनुष्य उपरोक्त विधि के अनुसार कार्तिक व्रत का अनुष्ठान करते हैं वह जगत के सभी सुखों को भोगते हुए अन्त में मुक्ति को प्राप्त करते हैं।



🚩जय श्रीराधे कृष्णा🚩

Wednesday, January 24, 2024

कार्तिक माहात्म्य -04


अध्याय - 04


          नारदजी ने कहा – ऎसा कहकर भगवान विष्णु मछली का रूप धारण कर के आकाश से जल में गिरे। उस समय विन्ध्याचल पर्वत पर तप कर रहे महर्षि कश्यप अपनी अंजलि में जल लेकर खड़े थे। भगवान उनकी अंजलि में जा गिरे। महर्षि कश्यप ने दया कर के उसे अपने कमण्डल में रख लिया। मछली के थोड़ा बड़ा होने पर महर्षि कश्यप ने उसे कुएं में डाल दिया। जब वह मछली कुएं में भी न समा सकी तो उन्होंने उसे तालाब में डाल दिया, जब वह तालाब में भी न आ सकी तो उन्होंने उसे समुद्र में डाल दिया।


          वह मछली वहां भी बढ़ने लगी फिर मत्स्यरूपी भगवान विष्णु ने इस शंखासुर का वध किया और शंखासुर को हाथ में लेकर बद्रीवन में आ गये, वहां उन्होंने संपूर्ण ऋषियों को बुलाकर इस प्रकार आदेश दिया – मुनीश्वरों! तुम जल के भीतर बिखरे हुए वेदमंत्रों की खोज करो और जितनी जल्दी हो सके, उन्हें सागर के जल से बाहर निकाल आओ तब तक मैं देवताओं के साथ प्रयाग में ठहरता हूँ।तब उन तपोबल सम्पन्न महर्षियों ने यज्ञ और बीजों सहित सम्पूर्ण वेद मन्त्रों का उद्धार किया। उनमें से जितने मंत्र जिस ऋषि ने उपलब्ध किए वही उन बीज मन्त्रों का उस दिन से ऋषि माना जाना लगा। तदनन्तर सब ऋषि एकत्र होकर प्रयाग में गये, वहां उन्होंने ब्रह्मा जी सहित भगवान विष्णु को उपलब्ध हुए सभी वेद मन्त्र समर्पित कर दिए।


          सब वेदों को पाकर ब्रह्माजी बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने देवताओं और ऋषियों के साथ प्रयाग में अश्वमेघ यज्ञ किया। यज्ञ समाप्त होने पर सब देवताओं ने भगवान से निवेदन किया – देवाधिदेव जगन्नाथ! इस स्थान पर ब्रह्माजी ने खोये हुए वेदों को पुन: प्राप्त किया है और हमने भी यहाँ आपके प्रसाद से यज्ञभाग पाये हैं। अत: यह स्थान पृथ्वी पर सबसे श्रेष्ठ, पुण्य की वृद्धि करने वाला एवं भोग तथा मोक्ष प्रदान करने वाला हो। साथ ही यह समय भी महापुण्यमय और ब्रह्मघाती आदि महापापियों की भी शुद्धि करने वाला हो तथा तह स्थान यहां दिये हुए दान को अक्षय बना देने वाला भी हो, यह वर दीजिए।


          भगवान विष्णु बोले – देवताओं! तुमने जो कुछ कहा है, वह मुझे स्वीकार है, तुम्हारी इच्छा पूर्ण हो। आज से यह स्थान ब्रह्मक्षेत्र के नाम से प्रसिद्ध होगा, सूर्यवंश में उत्पन्न राजा भगीरथ यहाँ गंगा को ले आएंगे और वह यहां सूर्यकन्या यमुना से मिलेगी। ब्रह्माजी और तुम सब देवता मेरे साथ यहां निवास करो। आज से यह तीर्थ तीर्थराज के नाम से विख्यात होगा। तीर्थराज के दर्शन से तत्काल सब पाप नष्ट हो जाएंगे। जब सूर्य मकर राशि में स्थित होगें उस समय यहां स्नान करने वाले मनुष्यों के सब पापों का यह तीर्थ नाश करेगा। यह काल भी मनुष्यों के लिए सदा महान पुण्य फल देने वाला होगा।


          माघ में सूर्य के मकर राशि में स्थित होने पर यहां स्नान करने से सालोक्य आदि फल प्राप्त होंगे। देवाधिदेव भगवान विष्णु देवताओं से ऎसा कहकर ब्रह्माजी के साथ वहीं अन्तर्धान हो गये। तत्पश्चात इन्द्रादि देवता भी अपने अंश से प्रयाग में रहते हुए वहां से अन्तर्धान हो गये। जो मनुष्य कार्तिक में तुलसी जी की जड़ के समीप श्रीहरि का पूजन करता है वह इस लोक में सम्पूर्ण भोगों का उपभोग कर के अन्त में वैकुण्ठ धाम को जाता है।



🚩जय श्रीराधे कृष्णा🚩