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Wednesday, February 7, 2024

कार्तिक माहात्म्य--17


अध्याय - 17

          

          उस समय शिवजी के गण प्रबल थे और उन्होंने जलन्धर के शुम्भ-निशुम्भ और महासुर कालनेमि आदि को पराजित कर दिया। यह देख कर सागर पुत्र जलंधर एक विशाल रथ पर चढ़कर – जिस पर लम्बी पताका लगी हुई थी – युद्धभूमि में आया। इधर जय और शील नामक शंकर जी के गण भी युद्ध में तत्पर होकर गर्जने लगे। इस प्रकार दोनो सेनाओं के हाथी, घोड़े, शंख, भेरी और दोनों ओर के सिंहनाद से धरती त्रस्त हो गयी।

          जलंधर ने कुहरे के समान असंख्य बाणों को फेंक कर पृथ्वी से आकाश तक व्याप्त कर दिया और नंदी को पांच, गणेश को पांच, वीरभद्र को एक साथ ही बीस बाण मारकर उनके शरीर को छेद दिया और मेघ के समान गर्जना करने लगा। यह देख कार्तिकेय ने भी दैत्य जलन्धर को अपनी शक्ति उठाकर मारी और घोर गर्जन किया, जिसके आघात से वह मूर्छित हो पृथ्वी पर गिर पड़ा। परन्तु वह शीघ्र ही उठा पडा़ और क्रोधा विष्ट हो कार्तिकेय पर अपनी गदा से प्रहार करने लगा।

          ब्रह्मा जी के वरदान की सफलता के लिए शंकर पुत्र कार्तिकेय पृथ्वी पर सो गये। गणेश जी भी गदा के प्रहार से व्याकुल होकर धरती पर गिर पड़े। नंदी व्याकुल हो गदा प्रहार से पृथ्वी पर गिर गये। फिर दैत्य ने हाथ में परिध ले शीघ्र ही वीरभद्र को पृथ्वी पर गिरा देख शंकर जी गण चिल्लाते हुए संग्राम भूमि छोड़ बड़े वेग से भाग चले। वे भागे हुए गण शीघ्र ही शिवजी के पास आ गये और व्याकुलता से युद्ध का सब समाचार कह सुनाया। लीलाधारी भगवान ने उन्हें अभय दे सबका सन्तोषवर्द्धन किया।


🚩जय श्रीराधे कृष्णा🚩

Wednesday, January 31, 2024

कार्तिक माहात्म्य --11


अध्याय - 11

          

          एक बार सागर पुत्र जलन्धर अपनी पत्नी वृन्दा सहित असुरों से सम्मानित हुआ सभा में बैठा था तभी गुरु शुक्राचार्य का वहाँ आगमन हुआ। उनके तेज से सभी दिशाएँ प्रकाशित हो गई। गुरु शुक्राचार्य को आता देखकर सागर पुत्र जलन्धर ने असुरों सहित उठकर बड़े आदर से उन्हें प्रणाम किया। गुरु शुक्राचार्य ने उन सबको आशीर्वाद दिया। फिर जलन्धर ने उन्हें एक दिव्य आसन पर बैठाकर स्वयं भी आसन ग्रहण किया फिर सागर पुत्र जलन्धर ने उनसे विनम्रतापूर्वक पूछा – हे गुरुजी! आप हमें यह बताने की कृपा करें कि राहु का सिर किसने काटा था?

          इस पर दैत्य गुरु शुक्राचार्य ने विरोचन पुत्र हिरण्यकश्यपु और उसके धर्मात्मा पौत्र का परिचय देकर देवताओं और असुरों द्वारा समुद्र मंथन की कथा संक्षेप में सुनाते हुए बताया कि जब समुद्र से अमृत निकला तो उस समय देवरूप बनाकर राहु भी पीने बैठ गया। इस पर इन्द्र के पक्षपाती भगवान विष्णु ने राहु का सिर काट डाला।

          अपने गुरु के मुख से इस प्रकार के वचन सुनकर जलन्धर के क्रोध की सीमा न रही, उसके नेत्र लाल हो गये फिर उसने अपने धस्मर नामक दूत को बुलाया और उसे शुक्राचार्य द्वारा सुनाया गया वृत्तान्त सुनाया। तत्पशचत उसने धस्मर को आज्ञा दी कि तुम शीघ्र ही इन्द्रपुरी में जाकर इन्द्र को मेरी शरण में लाओ।

          धस्मर जलन्धर का बहुत आज्ञाकारी एवं निपुण दूत था। वह जल्द ही इन्द्र की सुधर्मा नामक सभा में जा पहुंचा और जलन्धर के शब्दों में इन्द्र से बोला – हे देवताधाम! तुमने समुद्र का मन्थन क्यों किया और मेरे पिता के समस्त रत्नों को क्यों ले लिया? ऎसा कर के तुमने अच्छा नहीं किया। यदि तू अपना भला चाहता है तो उन सब रत्नों एवं देवताओं सहित मेरी शरण में आ जा अन्यथा मैं तेरे राज्य का ध्वंस कर दूंगा, इसमें कुछ भी मिथ्या नहीं है।

          इन्द्र बहुत विस्मित हुआ और कहने लगा – पहले मेरे भय से सागर ने सब पर्वतों को अपनी कुक्षि में क्यों स्थान दिया और उसने मेरे शत्रु दैत्यों की क्यों रक्षा की? इसी कारण मैंने उनके सब रत्न हरण किये हैं। मेरा द्रोही सुखी नहीं रह सकता, इसमें सन्देह नहीं।

          इन्द्र की ऎसी बात सुनकर वह दूत शीघ्र ही जलन्धर के पास आया और सब बातें कह सुनाई। उसे सुनते ही वह दैत्य मारे क्रोध के अपने ओष्ठ फड़फड़ाने लगा और देवताओं पर विजय प्राप्त करने के लिए उसने उद्योग आरम्भ किया फिर तो सब दिशाओं, पाताल से करोड़ो-2 दैत्य उसके पास आने लगे। शुम्भ-निशुम्भ आदि करोड़ो सेनापतियों के साथ जलन्धर इन्द्र से युद्ध करने लगा। शीघ्र ही इन्द्र के नन्दन वन में उसने अपनी सेना उतार दी। वीरों की शंखध्वनि और गर्जना से इन्द्रपुरी गूंज उठी। अमरावती छोड़ देवता उससे युद्ध करने चले। भयानक मारकाट हुई। असुरों के गुरु आचार्य शुक्र अपनी मृत संजीवनी विद्या से और देवगुरु बृहस्पति द्रोणागिरि से औषधि लाकर जिलाते रहे।

          इस पर जलन्धर ने क्रुद्ध होकर कहा कि मेरे हाथ से मरे हुए देवता जी कैसे जाते हैं? जिलाने वाली विद्या तो आपके पास है।

          इस पर शुक्राचार्य ने देवगुरु द्वारा द्रोणाचार्य से औषधि लाकर देवताओं को जिलाने की बात कह दी। यह सुनकर जलन्धर और भी कुपित हो गया फिर शुक्राचार्य जी ने कहा – यदि शक्ति हो तो द्रोणागिरि को उखाड़कर समुद्र में फेंक दो तब मेरे कथन की सत्यता प्रमाणित हो जाएगी। इस पर जलन्धर कुपित होकर जल्द ही द्रोनागिरि पर्वत के पास पहुंचा और अपनी भुजाओं से पकड़कर द्रोणागिरि पर्वत को उखाड़कर समुद्र में फेंक दिया। यह तो भगवान शंकर का तेज था इसमें जलन्धर की कोई विचित्रता नहीं थी।

          तत्पश्चात यह सागर पुत्र युद्धभूमि में आकर बड़े तीव्र गति से देवताओं का संहार करने लगा। जब द्रोनाचार्य जी औषधि लेने गये तो द्रोणाचल को उखड़ा हुआ शून्य पाया। वह भयभीत हो देवताओं के पास आये और कहा कि युद्ध बन्द कर दो। जलन्धर को अब नहीं जीत सकोगे।

          पहले इन्द्र ने शिवजी का अपमान किया था, यह सुन सेवता युद्ध में जय की आशा त्याग कर इधर-उधर भाग गये। सिन्धु-सुत निर्भय हो अमरावती में घुस गया, इन्द्र आदि सब देवताओं ने गुफाओं में शरण ली।

🚩जय श्रीराधे कृष्णा🚩

Tuesday, January 30, 2024

कार्तिक माहात्म्य --10


अध्याय - 10

          

          राजा पृथु बोले – हे ऋषिश्रेष्ठ नारद जी! आपको प्रणाम है। कृपया अब यह बताने की कृपा कीजिए कि जब भगवान शंकर ने अपने मस्तक के तेज को क्षीर सागर में डाला तो उस समय क्या हुआ?

          नारद जी बोले – हे राजन्! जब भगवान शंकर ने अपना वह तेज क्षीर सागर में डाल दिया तो उस समय वह शीघ्र ही बालक होकर सागर के संगम पर बैठकर संसार को भय देने वाला रूदन करने लगा। उसके रूदन से सम्पूर्ण जगत व्याकुल हो उठा। लोकपाल भी व्याकुल हो गये। चराचर चलायमान हो गया। शंकर सुवन के रुदन से सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड व्याकुल हो गया। यह देखकर सभी देवता और ऋषि-मुनि व्याकुल होकर ब्रह्माजी की शरण में गये और उन्हें प्रणाम कर उनकी स्तुति करने लगे। उन सभी ने ब्रह्मा जी से कहा – हे पितामह! यह तोन बहुत ही विकट परिस्थिति उत्पन्न हो गई है। हे महायोगिन! इसको नष्ट कीजिए।

          देवताओं के मुख से इस प्रकार सुनकर ब्रह्माजी सत्यलोक से उतरकर उस बालक को देखने के लिए सागर तट पर आये। सागर ने ब्रह्मा जी को आता देखकर उन्हें प्रणाम किया और बालक को उठाकर उनकी गोद में दे दिया। आश्चर्य चकित होते हुए ब्रह्मा जी ने पूछा – हे सागर! यह बालक किसका है, शीघ्रतापूर्वक कहो।

          सागर विनम्रतापूर्वक बोला – प्रभो! यह तो मुझे ज्ञात नहीं है परन्तु मैं इतना अवश्य जानता हूँ कि यह गंगा सागर के संगम पर प्रगट हुआ है इसलिए हे जगतगुरु! आप इस बालक का जात कर्म आदि संस्कार कर के इसका जातक फल बताइए।

          नारद जी राजा पृथु से बोले – सागर ब्रह्माजी के गले में हाथ डालकर बार-बार उनका आकर्षण कर रहा था। फिर तो उसने ब्रह्माजी का गला इतनी जोर से पकड़ा कि उससे पीड़ित होकर ब्रह्मा जी की आँखों से अश्रु टपकने लगे। ब्रह्माजी ने अपने दोनों हाथों का जोर लगाकर किसी प्रकार सागर से अपना गला छुड़वाया और सागर से कहा – हे सागर! सुनो, मैं तुम्हारे इस पुत्र का जातक फल कहता हूँ। मेरे नेत्रों से जो यह जल निकला है इस कारण इसका नाम जलन्धर होगा। उत्पन्न होते ही यह तरुणावस्था को प्राप्त हो गया है इसलिए यह सब शास्त्रों का पारगामी, महापराक्रमी, महावीर, बलशाली, महायोद्धा और रण में विजय प्राप्त करने वाला होगा।

          यह बालक सभी दैत्यों का अधिपति होगा। यह किसी से भी पराजित न होने वाला तथा भगवान विष्णु को भी जीतने वाला होगा। भगवान शंकर को छोड़कर यह सबसे अवध्य होगा। जहां से इसकी उत्पत्ति हुई है यह वहीं जायेगा। इसकी पत्नी बड़ी पतिव्रता, सौभाग्यशालिनी, सर्वांगसुन्दरी, परम मनोहर, मधुर वाणी बोलने वाली तथा शीलवान होगी।

          सागर से इस प्रकार कहकर ब्रह्माजी ने शुक्राचार्य को बुलवाया और उनके हाथों से बलक का राज्याभिषेक कराकर स्वयं अन्तर्ध्यान हो गये। बालक को देखकर सागर की प्रसन्नता की सीमा न रही, वह हर्षित मन से घर आ गया। फिर सागर में उस बालक का लालन-पालन कर उसे पुष्ट किया, फिर कालनेमि नामक असुर को बुलाकर वृन्दा नामक कन्या से विधिपूर्वक उसका विवाह करा दिया। उस विवाह में बहुत बड़अ उत्सव हुआ। श्री शुक्राचार्य के प्रभाव से पत्नी सहित जलन्धर दैत्यों का राजा हो गया।

क्रमश:


🚩जय श्रीराधे कृष्णा🚩

Monday, January 29, 2024

कार्तिक माहात्म्य--09


अध्याय - 09

          

          राजा पृथु ने कहा – हे मुनिश्रेष्ठ नारद जी! आपने कार्तिक माह के व्रत में जो तुलसी की जड़ में भगवान विष्णु का निवास बताकर उस स्थान की मिट्टी की पूजा करना बतलाया है, अत: मैं श्री तुलसी जी के माहात्म्य को सुनना चाहता हूँ। तुलसी जी कहां और किस प्रकार उत्पन्न हुई, यह बताने की कृपा करें।

          नारद जी बोले – राजन! अब आप तुलसी जी की महत्ता तथा उनके जन्म का प्राचीन इतिहास ध्यानपूर्वक सुनिए –

          एक बार देवगुरु बृहस्पति और देवराज इन्द्र भगवान शंकर का दर्शन करने कैलाश पर्वत की ओर चले तब भगवान शंकर ने अपने भक्तों की परीक्षा लेने के लिए जटाधारी दिगम्बर का रुप धारण कर उन दोनों के मार्ग में अवरोध उत्पन्न किया यद्यपि वह तेजस्वी, शान्त, लम्बी भुजा और चौड़ी छाती वाले, गौर वर्ण, अपने विशाल नेत्रों से युक्त तथा सिर पर जटा धारण किये वैसे ही बैठे थे तथापि उन भगवान शंकर को न पहचान कर इन्द्र ने उनसे उनका नाम व धाम आदि पूछते हुए कहा कि क्या भगवान शंकर अपने स्थान पर हैं या कहीं गये हुए हैं?

         इस पर तपस्वी रूप भगवान शिव कुछ नहीं बोले। इन्द्र को अपने त्रिलोकीनाथ होने का गर्व था, उसी अहंकार के प्रभाव से वह चुप किस प्रकार रह सकता था, उसने क्रोधित होते हुए उस तपस्वी को धुड़ककर कहा – अरे! मैंने तुझसे कुछ पूछा है और तू उसका उत्तर भी नहीं देता, मैं अभी तुझ पर वज्र का प्रहार करता हूँ फिर देखता हूँ कि कौन तुझ दुर्मति की रक्षा करता है। इस प्रकार कहकर जैसे ही इन्द्र ने उस जटाधारी दिगम्बर को मारने के लिए हाथ में वज्र लिया वैसे ही भगवान शिव ने वज्र सहित इन्द्र का हाथ स्तम्भित कर दिया और विकराल नेत्र कर उसे देखा।

          उस समय ऎसा प्रतीत हो रहा था कि वह दिगम्बर प्रज्वलित हो उठा है और वह अपने तेज से जला देगा। भुजाएँ स्तम्भित होने के कारण इन्द्र दुखित होने के साथ-साथ अत्यन्त कुपित भी हो गया परन्तु उस जटाधारी दिगम्बर को प्रज्वलित देखकर बृहस्पति जी ने उन्हें भगवान शंकर जानकर प्रणाम किया और दण्डवत होकर उनकी स्तुति करने लगे। बृहस्पति भगवान शंकर से कहने लगे – हे दीनानाथ! हे महादेव! आप अपने क्रोध को शान्त कर लीजिए और इन्द्र के इस अपराध को क्षमा कीजिए।

          बृहस्पति के यह वचन सुनकर भगवान  शंकर ने गम्भीर वाणी में कहा – मैं अपने नेत्रों से निकाले हुए क्रोध को किस प्रकार रोकूँ?

          तब बृहस्पति ने कहा – भगवन्! आप अपना भक्तवत्सल नाम सार्थक करते हुए अपने भक्तों पर दया कीजिए। आप अपने इस तेज को अन्यत्र स्थापित कीजिए और इन्द्र का उद्धार कीजिए।

          तब भगवान शंकर गुरु बृहस्पति से बोले – मैं तुम्हारी स्तुति से अत्यन्त प्रसन्न हूँ। तुमने इन्द्र को जीवनदान दिलवाया है। मुझे विश्वास है कि मेरे नेत्रों की अग्नि अब इन्द्र को पीड़ित नहीं करेगी।

          बृहस्पति से इस प्रकार कहकर भगवान शिव ने अपने मस्तक से निकाले हुए अग्निमय तेज को अपने हाथों में ले लिया और फिर उसे क्षीर सागर में डाल दिया तत्पश्चात भगवान शंकर अन्तर्ध्यान हो गये। इस प्रकार जिसको जो जानने की कामना थी उसे जानकर इन्द्र तथा बृहस्पति अपने-अपने स्थान को चले गये।


क्रमशः
  
🚩जय श्रीराधे कृष्णा🚩

Sunday, January 28, 2024

कार्तिक माहात्म्य --08


अध्याय - 08

          

          नारदजी बोले – अब मैं कार्तिक व्रत के उद्यापन का वर्णन करता हूँ जो सब पापों का नाश करने वाला है। व्रत का पालन करने वाला मनुष्य कार्तिक शुक्ला चतुर्दशी को व्रतव की पूर्ति और भगवान विष्णु की प्रीति के लिए उद्यापन करे। तुलसी के ऊपर एक सुन्दर मण्डप बनवावे, उसे केले के खम्भों से संयुक्त कर के नाना प्रकार की धातुओं से उसकी विचित्र शोभा बढ़ावे। मण्डप के चारों ओर दीपकों की श्रेणी सुन्दर ढंग से सजाकर रखे। उस मण्डप में सुन्दर बन्दनवारों से सुशोभित चार दरवाजे बनावे और उन्हें फूलों से तथा चंवर से सुसज्जित करे। द्वारो पर पृथक-पृथक मिट्टी के द्वारपाल बनाकर उनकी पूजा करे। उनके नाम इस प्रकार हैं – जय, विजय, चण्ड, प्रचण्ड, नन्द, सुनन्द, कुमुद और कुमुदाक्ष। उन्हें चारों दरवाजों पर दो-दो के क्रम से स्थापित कर भक्तिपूर्वक पूजन करे।

          तुलसी की जड़ के समीप चार रंगों से सुशोभित सर्वतोभद्रमण्डल बनावे और उसके ऊपर पूर्णपत्र तथा पंचरत्न से संयुक्त कलश की स्थापना करें। कलश के ऊपर शंख, चक्र, गदाधारी भगवान विष्णु का पूजन करें। भक्तिपूर्वक उस तिथि में उपवास करें तथा रात्रि में गीत, वाद्य, कीर्तन आदि मंगलमय आयोजनों के साथ जागरण करें। जो भगवान विष्णु के लिए जागरण करते समय भक्तिपूर्वक भगवत्सम्बन्धी पदों का गान करते हैं वे सैकड़ो जन्मों की पापराशि से मुक्त हो जाते हैं।

          जो मनुष्य भगवान के निमित्त जागरण कर के रात्रि भर भगवान का कीर्तन करते हैं, उनको असंख्य गोदान का फल मिलता है। जो मनुष्य भगवान की मूर्ति के सामने नृत्य-गान करते हैं उनके अनेक जन्मों के एकत्रित पाप नष्ट हो जाते हैं। जो भगवान के सम्मुख बैठकर कीर्तन करते हैं और बंसी आदि बजाकर भगवद भक्तों को प्रसन्न करते हैं तथा भक्ति से रात्रि भर जागरण करते हैं, उन्हें करोड़ो तीर्थ करने का फल मिलता है।

          उसके बाद पूर्णमासी में एक सपत्नीक ब्राह्मण को निमंत्रित करें। प्रात:काल स्नान और देव पूजन कर के वेदी पर अग्नि की स्थापना करे और भगवान की प्रीति के लिए तिल और खीर की आहुति दे। होम की शेष विधि पूरी कर के भक्ति पूर्वक ब्राह्मणों का पूजन करें और उन्हें यथाशक्ति दक्षिणा दें फिर उनसे इस प्रकार क्षमा प्रार्थना करें – ‘आप सब लोगों की अनुकम्पा से मुझ पर भगवान सदैव प्रसन्न रहें। इस व्रत को करने से मेरे सात जन्मों के किये हुए पाप नष्ट हो जायें और मेरी सन्तान चिरंजीवी हो। इस पूजा के द्वारा मेरी सभी मनोकामनाएँ पूर्ण हों, मेरी मृत्यु के पश्चात मुझे अतिशय दुर्लभ विष्णुलोक की प्राप्ति हो।’

          पूजा की समस्त वस्तुओं के साथ गाय भी गुरु को दान में दे, उसके पश्चात घरवालों और मित्रों के साथ स्वयं भोजन करें।

          भगवान द्वाद्शी तिथि को शयन से उठे, त्रयोदशी को देवताओं से मिले और चतुर्दशी को सबने उनका दर्शन एवं पूजन किया इसलिए उस तिथि में भगवान की पूजा करनी चाहिए। गुरु की आज्ञा से भगवान विष्णु की सुवर्णमयी प्रतिमा का पूजन करें। इस पूर्णिमा को पुष्कर तीर्थ की यात्रा श्रेष्ठ मानी गयी है। कार्तिक माह में इस विधि का पालन करना चाहिए। जो इस प्रकार कार्तिक के व्रत का पालन करते हैं वे धन्य और पूजनीय हैं उन्हें उत्तम फल की प्राप्ति होती है। जो भगवान विष्णु की भक्ति में तत्पर हो कार्तिक में व्रत का पालन करते हैं उनके शरीर में स्थित सभी पाप तत्काल नष्ट हो जाते हैं। जो श्रद्धापूर्वक कार्तिक के उद्यापन का माहात्म्य सुनता या सुनाता है वह भगवान विष्णु का सायुज्य प्राप्त करता है।

क्रमशः

  

🚩जय श्रीराधे कृष्णा🚩


Saturday, January 27, 2024

कार्तिक माहात्म्य -- 07


अध्याय - 07

          

          नारद जी ने कहा – हे राजन! कार्तिक मास में व्रत करने वालों के नियमों को मैं संक्षेप में बतलाता हूँ, उसे आप सुनिए। व्रती को सब प्रकार के आमिष मांस, उरद, राई, खटाई तथा नशीली वस्तुओं का त्याग कर देना चाहिए। व्रती को दूसरे का अन्न ग्रहण नहीं करना चाहिए, किसी से द्वेष नहीं करना चाहिए और तीर्थ के अतिरिक्त अन्य कोई यात्रा नहीं करनी चाहिए। देवता, वेद, ब्राह्मण, गाय, व्रती, नारी, राजा तथा गुरुजनों की निन्दा भी नहीं करनी चाहिए।

          व्रती को दाल, तिल, पकवान व दान किया हुआ भोजन ग्रहण नहीं करना चाहिए। किसी की चुगली या निन्दा भी नहीं करनी चाहिए। किसी भी जीव का मांस नहीं छूना चाहिए। पान, कत्था, चूना, नींबू, मसूर, बासी तथा झूठे अन्न का भी प्रयोग नहीं करना चाहिए। गाय, बकरी तथा भैंस के अतिरिक्त अन्य किसी पशु का दूध नहीं पीना चाहिए। कांस्य के पात्र में रखा हुआ पंचगव्य, बहुत छोटे घड़े का पानी तथा केवल अपने लिए ही पका हुआ अन्न प्रयोग करना चाहिए।

          कार्तिक माह का व्रत करने वाले मनुष्य को सदैव ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए। उसे धरती पर सोना चाहिए और दिन के चौथे पहर में केवल एक बार पत्तल में भोजन करना चाहिए। व्रती कार्तिक माह में केवल नरक चतुर्दशी जिसे छोटी दीवाली भी कहा जाता है के दिन ही शरीर में तेल लगा सकता है। कार्तिक माह में व्रत करने वाले मनुष्य को सिंघाड़ा, प्याज, मठ्ठा, गाजर, मूली, काशीफल, लौकी, तरबूज इन वस्तुओं का प्रयोग बिलकुल नहीं करना चाहिए। रजस्वला, चाण्डाल, पापी, म्लेच्छ, पतित, व्रतहीन, ब्राह्मणद्रोही और नास्तिकों से बातचीत नहीं करनी चाहिए। भगवान विष्णु को प्रसन्न करने के लिए अपनी शक्ति के अनुसार चान्द्रायण आदि का व्रत करना चाहिए और उपर्युक्त नियमों का पालन करना चाहिए।

          व्रती को प्रतिपदा को कुम्हड़ा, द्वितीया को कटहल, तृतीया को तरूणी स्त्री, चतुर्थी को मूली, पंचमी को बेल, षष्ठी को तरबूज, सप्तमी को आंवला, अष्टमी को नारियल, नवमी को मूली, दशमी को लौकी, एकादशी को परवल, द्वादशी को बेर, त्रयोदशी को मठ्ठा, चतुर्दशी को गाजर तथा पूर्णिमा को शाक का प्रयोग नहीं करना चाहिए। रविवार को आंवला का प्रयोग नहीं करना चाहिए। कार्तिक माह में व्रत करने वाला मनुष्य यदि इन शाकों में से किसी शाक का सेवन करना चाहे तो पहले ब्राह्मण को देखकर ग्रहण करे।

          यही विधान माघ माह के व्रत के लिए भी है। देवोत्थानी एकादशी में पहले कही गयी विधि के अनुसार नृत्य, जागरण, गायन-वादन आदि करना चाहिए। इसको विधिपूर्वक करने वाले मनुष्य को देखकर यमदूत ऎसे भाग जाते हैं जैसे सिंह की गर्जना से हाथी भाग जाते हैं। कार्तिक माह का व्रत सभी व्रतों में श्रेष्ठ है। इसके अतिरिक्त जितने भी व्रत-यज्ञ हैं वह हजार की संख्या में किये जाने पर भी इसकी तुलना नहीं कर सकते क्योंकि यज्ञ करने वाले मनुष्य को सीधा वैकुण्ठ की प्राप्ति होती है। जिस प्रकार राजा की रक्षा उसके अंगरक्षक करते हैं उसी प्रकार कार्तिक माह का व्रत करने वाले की रक्षा भगवान विष्णु की आज्ञा से इन्द्रादि देवता करते हैं।

          व्रती मनुष्य जहाँ कहीं भी रहता है वहीं पर उसकी पूजा होती है, उसका यश फैलता है। उसके निवास स्थान पर भूत, पिशाच आदि कोई भी नहीं रह पाते। विधि पूर्वक कार्तिक माह का व्रत करने वाले मनुष्यों के पुण्यों का वर्णन करने में ब्रह्माजी भी असमर्थ हैं। यह व्रत सभी पापों को नष्ट करने वाला, पुत्र-पौत्र प्रदान करने वाला और धन-धान्य की वृद्धि करने वाला है।

क्रमश


🚩जय श्रीराधे कृष्णा🚩


Friday, January 26, 2024

कार्तिक माहात्म्य - 06

 

अध्याय - 06

          

          नारद जी बोले – जब दो घड़ी रात बाकी रहे तब तुलसी की मृत्तिका, वस्त्र और कलश लेकर जलाशय पर जाये। कार्तिक में जहां कहीं भी प्रत्येक जलाशय के जल में स्नान करना चाहिए। गरम जल की अपेक्षा ठण्डे जल में स्नान करने से दस गुना पुण्य होता है। उससे सौ गुना पुण्य बाहरी कुएं के जल में स्नान करने से होता है। उससे अधिक पुण्य बावड़ी में और उससे भी अधिक पुण्य पोखर में स्नान करने से होता है। उससे दस गुना झरनों में और उससे भी अधिक पुण्य कार्तिक में नदी स्नान करने से होता है। उससे भी दस गुना पुण्य वहां होता हैं जहां दो नदियों का संगम हो और यदि कहीं तीन नदियों का संगम हो तब तो पुण्य की कोई सीमा ही नहीं।

          स्नान से पहले भगवान का ध्यान कर के स्नानार्थ संकल्प करना चाहिए फिर तीर्थ में उपस्थित देवताओं को क्रमश: अर्ध्य, आचमनीय आदि देना चाहिए। अर्ध्य मन्त्र इस प्रकार है :-

          “हे कमलनाथ्! आपको नमस्कार है, हे जलशायी भगवान! आपको प्रणाम है, हे ऋषिकेश! आपको नमस्कार है। मेरे दिए अर्ध्य को आप ग्रहण करें। वैकुण्ठ, प्रयाग तथा बद्रिकाश्रम में जहां कहीं भगवान विष्णु गये, वहां उन्होंने तीन प्रकार से अपना पांव रखा था। वहां पर ऋषि वेद यज्ञों सहित सभी देवता मेरी रक्षा करते रहें। हे जनार्दन, हे दामोदर, हे देवेश! आपको प्रसन्न करने हेतु मैं कार्तिक मास में विधि-विधान से ब्रह्ममुहूर्त में स्नान कर रहा हूँ। आपकी कृपा से मेरे सभी पापों का नाश हो। हे प्रभो! कार्तिक मास में व्रत तथा विधिपूर्वक स्नान करने वाला मैं अर्ध्य देता हूँ, आप राधिका सहित ग्रहण करें। हे कृष्ण! हे बलशाली राक्षसों का संहार करने वाले भगवन्! हे पापों का नाश करने वाले! कार्तिक मास में प्रतिदिन दिये हुए मेरे इस अर्ध्य द्वारा कार्तिक स्नान का व्रत करने वाला फल मुझे प्राप्त हो”।

          तत्पश्चात विष्णु, शिव तथा सूर्य का ध्यान कर के जल में प्रवेश कर नाभि के बराबर जल में खड़े होकर विधिपूर्वक स्नान करना चाहिए। गृहस्थी को तिल और आँवले का चूर्ण लगाकर तथा विधवा स्त्री व यती को तुलसी की जड़ की मिट्टी लगाकर स्नान करना चाहिए। सप्तमी, अमावस्या, नवमी, त्रयोदशी, द्वितीया, दशमी आदि तिथियों को आंवला तथा तिल से स्नान करना वर्जित है। स्नान करते हुए निम्न शब्दों का उच्चारण करना चाहिए –

          “जिस भक्तिभाव से भगवान ने देवताओं के कार्य के लिए तीन प्रकार का रूप धारण किया था, वही पापों का नाश करने वाले भगवान विष्णु अपनी कृपा से मुझे पवित्र बनाएं। जो अम्नुष्य भगवान विष्णु की आज्ञा से कार्तिक व्रत करता है, उसकी इन्द्रादि सभी देवता रक्षा करते हैं इसलिए वह मुझको पवित्र करें। बीजों, रहस्यों तथा यज्ञों सहित वेदों के मन्त्र कश्यप आदि ऋषि, इन्द्रादि देवता मुझे पवित्र करें। अदिति आदि सभी नारियां, यज्ञ, सिद्ध, सर्प और समस्त औषधियाँ व तीनो लोकों के पहाड़ मुझे पवित्र करें”।

          इस प्रकार कहकर स्नान करने के बाद मनुष्य को हाथ में पवित्री धारण कर के देवता, ऋषि, मनुष्यों तथा पितरों का विधिपूर्वक तर्पण करना चाहिए। तर्पण करते समय तर्पण में जितने तिल रहते हैं, उतने वर्ष पर्यन्त व्रती के पितृगण स्वर्ग में वास करते हैं। उसके बाद व्रती को जल से निकलकर शुद्ध वस्त्र धारण करने चाहिए। सभी तीर्थों के सारे कार्यों से निवृत्त होकर पुन: भगवान विष्णु का पूजन करना चाहिए। सभी तीर्थो के सारे देवताओं का स्मरण करके भक्तिपूर्वक सावधान होकर चन्दन, फूल और फलों के साथ भगवान विष्णु को फिर से अर्ध्य देना चाहिए। अर्ध्य के मंत्र का अर्थ इस प्रकार है :-

          ‘मैंने पवित्र कार्तिक मास में स्नान किया है। हे विष्णु! राधा के साथ आप मेरे दिये अर्ध्य को ग्रहण करें’

          तत्पश्चात चन्दन, फूल और ताम्बूल आदि से वेदपाठी ब्राह्मणों का श्रद्धापूर्वक पूजन करें और बारम्बार नमस्कार करें। ब्राह्मणों के दाएं पांव में तीर्थों का वास होता है, मुँह में वेद और समस्त अंगों में देवताओं का वास होता है। अपने कल्याण की इच्छा रखने वाले मनुष्य को इनका न तो अपमान करना चाहिए और न ही इनका विरोध करना चाहिए। फिर एकाग्रचित्त होकर भगवान विष्णु की प्रिय तुलसी जी की पूजा करनी चाहिए, उनकी परिक्रमा कर के उनको प्रणाम करना चाहिए –

          “हे देवि! हे तुलसी! देवताओं ने ही प्राचीनकाल से तुम्हारा निर्माण किया है और ऋषियों ने तुम्हारी पूजा की है। हे विष्णुप्रिया तुलसी! आपको नमस्कार है। आप मेरे समस्त पापों को नष्ट करो।”

          इस प्रकार जो मनुष्य भक्तिपूर्वक कार्तिक व्रत का अनुष्ठान करते हैं, वे संसार के सुखों का भोग करते हुए अन्त में मोक्ष को प्राप्त करते हैं।


🚩जय श्रीराधे कृष्णा🚩

Thursday, January 25, 2024

कार्तिक माहात्म्य -05


अध्याय - 05

          

           राजा पृथु बोले – हे नारद जी! आपने कार्तिक मास में स्नान का फल कहा, अब अन्य मासों में विधिपूर्वक स्नान करने की विधि, नियम और उद्यापन की विधि भी बतलाइये।

          देवर्षि नारद ने कहा – हे राजन्! आप भगवान विष्णु के अंश से उत्पन्न हुए हैं, अत: यह बात आपको ज्ञात ही है फिर भी आपको यथाचित विधान बतलाता हूँ।

          आश्विन माह में शुक्लपक्ष की एकादशी से कार्तिक के व्रत करने चाहिए। ब्रह्ममुहूर्त में उठकर जल का पात्र लेकर गाँव से बाहर पूर्व अथवा उत्तर दिशा में जाना चाहिए। दिन में या सांयकाल में कान में जनेऊ चढ़ाकर पृथ्वी पर घास बिछाकर सिर को वस्त्र से ढककर मुंह को भली-भाँति बन्द कर के थूक व सांस को रोककर मल व मूत्र का त्याग करना चाहिए। तत्पश्चात मिट्टी व जल से भली-भाँति अपने गुप्ताँगों को धोना चाहिए। उसके बाद जो मनुष्य मुख शुद्धि नहीं करता, उसे किसी भी मन्त्र का फल प्राप्त नहीं होता है। अत: दाँत और जीभ को पूर्ण रूप से शुद्ध करना चाहिए और निम्नलिखित मन्त्र का उच्चारण करते हुए दातुन तोड़नी चाहिए।

          ‘हे वनस्पतये! आप मुझे आयु, कीर्ति, तेज, प्रज्ञा, पशु, सम्पत्ति, महाज्ञान, बुद्धि और विद्या प्रदान करो’। इस प्रकार उच्चारण करके वृक्ष से बारह अंगुल की दांतुन ले, दूध वाले वृक्षों से दांतुन नहीं लेनी चाहिए। इसी प्रकार कपास, कांटेदार वृक्ष तथा जले हुए वृक्ष से भी दांतुन लेना मना है। जिससे उत्तम गन्ध आती हो और जिसकी टहनी कोमल हो, ऎसे ही वृक्ष से दन्तधावन ग्रहण करना चाहिए।

          प्रतिपदा, अमावस्या, नवमी, छठी, रविवार को, चन्द्र तथा सूर्यग्रहण में दांतुन नहीं करनी चाहिए। तत्पश्चात भली-भाँति स्नान कर के फूलमाला, चन्दन और पान आदि पूजा की सामग्री लेकर प्रसन्नचित्त व भक्तिपूर्वक शिवालय में जाकर सभी देवी-देवताओं की अर्ध्य, आचमनीय आदि वस्तुओं से पृथक-पृथक पूजा करके प्रार्थना एवं प्रणाम करना चाहिए फिर भक्तों के स्वर में स्वर मिलाकर श्रीहरि का कीर्तन करना चाहिए।

          मन्दिर में जो गायक भगवान श्रीहरि का कीर्तन करने आये हों उनका माला, चन्दन, ताम्बूल आदि से पूजन करना चाहिए क्योंकि देवालयों में भगवान विष्णु को अपनी तपस्या, योग और दान द्वारा प्रसन्न करते थे परन्तु कलयुग में भगवद गुणगान को ही भगवान श्रीहरि को प्रसन्न करने का एकमात्र साधन माना गया है।

          नारद जी राजा पृथु से बोले – हे राजन! एक बार मैंने भगवान से पूछा कि हे प्रभु! आप सबसे अधिक कहां निवास करते हैं? इसका उत्तर देते हुए भगवान ने कहा – हे नारद! मैं वैकुण्ठ या योगियों के हृदय में ही निवास नहीं करता अपितु जहां मेरे भक्त मेरा कीर्तन करते हैं, मैं वहां अवश्य निवास करता हूँ। जो मनुष्य चन्दन, माला आदि से मेरे भक्तों का पूजन करते हैं उनसे मेरी ऎसी प्रीति होती है जैसी कि मेरे पूजन से भी नहीं हो सकती।

          नारद जी ने फिर कहा – शिरीष, धतूरा, गिरजा, चमेली, केसर, कन्दार और कटहल के फूलों व चावलों से भगवान विष्णु की पूजा नहीं करनी चाहिए। अढ़हल,कन्द, गिरीष, जूही, मालती और केवड़ा के पुष्पों से भगवान शंकर की पूजा नहीं करनी चाहिए। जिन देवताओं की पूजा में जो फूल निर्दिष्ट हैं उन्हीं से उनका पूजन करना चाहिए। पूजन समाप्ति के बाद भगवान से क्षमा प्रार्थना करनी चाहिए। यथा – ‘हे सुरेश्वर, हे देव! न मैं मन्त्र जानता हूँ, न क्रिया, मैं भक्ति से भी हीन हूँ, मैंने जो कुछ भी आपकी पूजा की है उसे पूरा करें’।

          ऎसी प्रार्थना करने के पश्चात साष्टांग प्रणाम कर के भगवद कीर्तन करना चाहिए। श्रीहरि की कथा सुननी चाहिए और प्रसाद ग्रहण करना चाहिए।

          जो मनुष्य उपरोक्त विधि के अनुसार कार्तिक व्रत का अनुष्ठान करते हैं वह जगत के सभी सुखों को भोगते हुए अन्त में मुक्ति को प्राप्त करते हैं।



🚩जय श्रीराधे कृष्णा🚩

Wednesday, January 24, 2024

कार्तिक माहात्म्य -04


अध्याय - 04


          नारदजी ने कहा – ऎसा कहकर भगवान विष्णु मछली का रूप धारण कर के आकाश से जल में गिरे। उस समय विन्ध्याचल पर्वत पर तप कर रहे महर्षि कश्यप अपनी अंजलि में जल लेकर खड़े थे। भगवान उनकी अंजलि में जा गिरे। महर्षि कश्यप ने दया कर के उसे अपने कमण्डल में रख लिया। मछली के थोड़ा बड़ा होने पर महर्षि कश्यप ने उसे कुएं में डाल दिया। जब वह मछली कुएं में भी न समा सकी तो उन्होंने उसे तालाब में डाल दिया, जब वह तालाब में भी न आ सकी तो उन्होंने उसे समुद्र में डाल दिया।


          वह मछली वहां भी बढ़ने लगी फिर मत्स्यरूपी भगवान विष्णु ने इस शंखासुर का वध किया और शंखासुर को हाथ में लेकर बद्रीवन में आ गये, वहां उन्होंने संपूर्ण ऋषियों को बुलाकर इस प्रकार आदेश दिया – मुनीश्वरों! तुम जल के भीतर बिखरे हुए वेदमंत्रों की खोज करो और जितनी जल्दी हो सके, उन्हें सागर के जल से बाहर निकाल आओ तब तक मैं देवताओं के साथ प्रयाग में ठहरता हूँ।तब उन तपोबल सम्पन्न महर्षियों ने यज्ञ और बीजों सहित सम्पूर्ण वेद मन्त्रों का उद्धार किया। उनमें से जितने मंत्र जिस ऋषि ने उपलब्ध किए वही उन बीज मन्त्रों का उस दिन से ऋषि माना जाना लगा। तदनन्तर सब ऋषि एकत्र होकर प्रयाग में गये, वहां उन्होंने ब्रह्मा जी सहित भगवान विष्णु को उपलब्ध हुए सभी वेद मन्त्र समर्पित कर दिए।


          सब वेदों को पाकर ब्रह्माजी बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने देवताओं और ऋषियों के साथ प्रयाग में अश्वमेघ यज्ञ किया। यज्ञ समाप्त होने पर सब देवताओं ने भगवान से निवेदन किया – देवाधिदेव जगन्नाथ! इस स्थान पर ब्रह्माजी ने खोये हुए वेदों को पुन: प्राप्त किया है और हमने भी यहाँ आपके प्रसाद से यज्ञभाग पाये हैं। अत: यह स्थान पृथ्वी पर सबसे श्रेष्ठ, पुण्य की वृद्धि करने वाला एवं भोग तथा मोक्ष प्रदान करने वाला हो। साथ ही यह समय भी महापुण्यमय और ब्रह्मघाती आदि महापापियों की भी शुद्धि करने वाला हो तथा तह स्थान यहां दिये हुए दान को अक्षय बना देने वाला भी हो, यह वर दीजिए।


          भगवान विष्णु बोले – देवताओं! तुमने जो कुछ कहा है, वह मुझे स्वीकार है, तुम्हारी इच्छा पूर्ण हो। आज से यह स्थान ब्रह्मक्षेत्र के नाम से प्रसिद्ध होगा, सूर्यवंश में उत्पन्न राजा भगीरथ यहाँ गंगा को ले आएंगे और वह यहां सूर्यकन्या यमुना से मिलेगी। ब्रह्माजी और तुम सब देवता मेरे साथ यहां निवास करो। आज से यह तीर्थ तीर्थराज के नाम से विख्यात होगा। तीर्थराज के दर्शन से तत्काल सब पाप नष्ट हो जाएंगे। जब सूर्य मकर राशि में स्थित होगें उस समय यहां स्नान करने वाले मनुष्यों के सब पापों का यह तीर्थ नाश करेगा। यह काल भी मनुष्यों के लिए सदा महान पुण्य फल देने वाला होगा।


          माघ में सूर्य के मकर राशि में स्थित होने पर यहां स्नान करने से सालोक्य आदि फल प्राप्त होंगे। देवाधिदेव भगवान विष्णु देवताओं से ऎसा कहकर ब्रह्माजी के साथ वहीं अन्तर्धान हो गये। तत्पश्चात इन्द्रादि देवता भी अपने अंश से प्रयाग में रहते हुए वहां से अन्तर्धान हो गये। जो मनुष्य कार्तिक में तुलसी जी की जड़ के समीप श्रीहरि का पूजन करता है वह इस लोक में सम्पूर्ण भोगों का उपभोग कर के अन्त में वैकुण्ठ धाम को जाता है।



🚩जय श्रीराधे कृष्णा🚩

Tuesday, January 23, 2024

कार्तिक माहात्म्य -03


अध्याय - 03


                    सत्यभामा ने कहा – हे प्रभो! आप तो सभी काल में व्यापक हैं और सभी काल आपके आगे एक समान हैं फिर यह कार्तिक मास ही सभी मासों में श्रेष्ठ क्यों है? आप सब तिथियों में एकादशी और सभी मासों में कार्तिक मास को ही अपना प्रिय क्यों कहते हैं? इसका कारण बताइए।

          भगवान श्रीकृष्ण ने कहा – हे भामिनी! तुमने बहुत अच्छा प्रश्न किया है। मैं तुम्हें इसका उत्तर देता हूँ, ध्यानपूर्वक सुनो।

          इसी प्रकार एक बार महाराज बेन के पुत्र राजा पृथु ने प्रश्न के उत्तर में देवर्षि नारद से प्रश्न किया था और जिसका उत्तर देते हुए नारद जी ने उसे कार्तिक मास की महिमा बताते हुए कहा – हे राजन! एक समय शंख नाम का एक राक्षस बहुत बलवान एवं अत्याचारी हो गया था। उसके अत्याचारों से तीनों लोकों में त्राहि-त्राहि मच गई। उस शंखासुर ने स्वर्ग में निवास करने वाले देवताओं पर विजय प्राप्त कर इन्द्रादि देवताओं एवं लोकपालों के अधिकारों को छीन लिया। उससे भयभीत होकर समस्त देवता अपने परिवार के सदस्यों के साथ सुमेरु पर्वत की गुफाओं में बहुत दिनो तक छिपे रहे। तत्पश्चात वे निश्चिंत होकर सुमेरु पर्वत की गुफाओं में ही रहने लगे।

          उधर जब शंखासुर को इस बात का पता चला कि देवता आनन्दपूर्वक सुमेरु पर्वत की गुफाओं में निवास कर रहे हैं तो उसने सोचा कि ऎसी कोई दिव्य शक्ति अवश्य है जिसके प्रभाव से अधिकारहीन यह देवता अभी भी बलवान हैं। सोचते-सोचते वह इस निर्णय पर पहुंचा कि वेदमन्त्रों के बल के कारण ही देवता बलवान हो रहे हैं। यदि इनसे वेद छीन लिये जाएँ तो वे बलहीन हो जाएंगे। ऎसा विचारकर शंखासुर ब्रह्माजी के सत्यलोक से शीघ्र ही वेदों को हर लाया। उसके द्वारा ले जाये जाते हुए भय से उसके चंगुल से निकल भागे और जल में समा गये। शंखासुर ने वेदमंत्रों तथा बीज मंत्रों को ढूंढते हुए सागर में प्रवेश किया परन्तु न तो उसको वेद मंत्र मिले और ना ही बीज मंत्र।

          जब शंखासुर सागर से निराश होकर वापिस लौटा तो उस समय ब्रह्माजी पूजा की सामग्री लेकर सभी देवताओं के साथ भगवान विष्णु की शरण में पहुंचे और भगवान को गहरी निद्रा से जगाने के लिए गाने-बजाने लगे और धूप-गन्ध आदि से बारम्बार उनका पूजन करने लगे। धूप, दीप, नैवेद्य आदि अर्पित किये जाने पर भगवान की निद्रा टूटी और वह देवताओं सहित ब्रह्माजी को अपना पूजन करते हुए देखकर बहुत प्रसन्न हुए तथा कहने लगे – मैं आप लोगों के इस कीर्तन एवं मंगलाचरण से बहुत प्रसन्न हूँ। आप अपना अभीष्ट वरदान मांगिए, मैं अवश्य प्रदान करुंगा। जो मनुष्य आश्विन शुक्ल की एकादशी से देवोत्थान एकादशी तक ब्रह्ममुहूर्त में उठकर मेरी पूजा करेंगे उन्हें तुम्हारी ही भाँति मेरे प्रसन्न होने के कारण सुख की प्राप्ति होगी। आप लोग जो पाद्य, अर्ध्य, आचमन और जल आदि सामग्री मेरे लिए लाए हैं वे अनन्त गुणों वाली होकर आपका कल्याण करेगी। शंखासुर द्वारा हरे गये सम्पूर्ण वेद जल में स्थित हैं। मैं सागर पुत्र शंखासुर का वध कर के उन वेदों को अभी लाए देता हूँ। आज से मंत्र-बीज और वेदों सहित मैं प्रतिवर्ष कार्तिक मास में जल में विश्राम किया करुंगा।

          अब मैं मत्स्य का रुप धारण करके जल में जाता हूँ। तुम सब देवता भी मुनीश्वरों सहित मेरे साथ जल में आओ। इस कार्तिक मास में जो श्रेष्ठ मनुष्य प्रात:काल स्नान करते हैं वे सब यज्ञ के अवभृथ-स्नान द्वारा भली-भाँति नहा लेते हैं। हे देवेन्द्र! कार्तिक मास में व्रत करने वालों को सब प्रकार से धन, पुत्र-पुत्री आदि देते रहना और उनकी सभी आपत्तियों से रक्षा करना। हे धनपति कुबेर! मेरी आज्ञा के अनुसार तुम उनके धन-धान्य की वृद्धि करना क्योंकि इस प्रकार का आचरण करने वाला मनुष्य मेरा रूप धारण कर के जीवनमुक्त हो जाता है। जो मनुष्य जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त विधिपूर्वक इस उत्तम व्रत को करता है, वह आप लोगों का भी पूजनीय है।

          कार्तिक शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि को तुम लोगों ने मुझे जगाया है इसलिए यह तिथि मेरे लिए अत्यन्त प्रीतिदायिनी और माननीय है। हे देवताओ! यह दोनों व्रत नियमपूर्वक करने से मनुष्य मेरा सान्निध्य प्राप्त कर लेते हैं। इन व्रतों को करने से जो फल मिलता है वह अन्य किसी व्रत से नहीं मिलता। अत: प्रत्येक मनुष्य को सुखी और निरोग रहने के लिए कार्तिक माहात्म्य और एकादशी की कथा सुनते हुए उपर्युक्त नियमों का पालन करना चाहिए।


🚩जय श्रीराधे कृष्णा🚩

Monday, January 22, 2024

कार्तिक माहात्म्य -02

 अध्याय - 02


          भगवान श्रीकृष्ण आगे बोले – हे प्रिये! जब गुणवती को राक्षस द्वारा अपने पति एवं पिता के मारे जाने का समाचार मिला तो वह विलाप करने लगी – हा नाथ! हा पिता! मुझको त्यागकर तुम कहां चले गये? मैं अकेली स्त्री, तुम्हारे बिना अब क्या करूँ? अब मेरे भोजन, वस्त्र आदि की व्यवस्था कौन करेगा। घर में प्रेमपूर्वक मेरा पालन-पोषण कौन करेगा? मैं कुछ भी नहीं कर सकती, मुझ विधवा की कौन रक्षा करेगा, मैं कहां जाऊँ? मेरे पास तो अब कोई ठिकाना भी नहीं रहा। इस प्रकार विलाप करते हुए गुणवती चक्कर खाकर धरती पर गिर पड़ी और बेहोश हो गई।

          बहुत देर बाद जब उसे होश आया तो वह पहले की ही भाँति करुण विलाप करते हुए शोक सागर में डूब गई। कुछ समय के पश्चात जब वह संभली तो उसे ध्यान आया कि पिता और पति की मृत्यु के बाद मुझे उनकी क्रिया करनी चाहिए जिससे उनकी गति हो सके इसलिए उसने अपने घर का सारा सामान बेच दिया और उससे प्राप्त धन से उसने अपने पिता एवं पति का श्राद्ध आदि कर्म किया। तत्पश्चात वह उसी नगर में रहते हुए आठों पहर भगवान विष्णु की भक्ति करने लगी। उसने मृत्युपर्यन्त तक नियमपूर्वक सभी एकादशियों का व्रत और कार्तिक महीने में उपवास एवं व्रत किये।

          हे प्रिये! एकादशी और कार्तिक व्रत मुझे बहुत ही प्रिय हैं। इनसे मुक्ति,भुक्ति, पुत्र तथा सम्पत्ति प्राप्त होती है। कार्तिक मास में जब तुला राशि पर सूर्य आता है तब ब्रह्ममुहूर्त में उठकर स्नान करने व व्रत व उपवास करने वाले मनुष्य मुझे बहुत प्रिय हैं क्योंकि यदि उन्होंने पाप भी किये हों तो भी स्नान व व्रत के प्रभाव से उन्हें मोक्ष प्राप्त हो जाता है। कार्तिक में स्नान, जागरण, दीपदान तथा तुलसी के पौधे की रक्षा करने वाले मनुष्य साक्षात भगवान विष्णु के समान है। कार्तिक मास में मन्दिर में झाड़ू लगाने वाले, स्वस्तिक बनाने वाले तथा भगवान विष्णु की पूजा करने वाले मनुष्य जन्म-मरण के चक्कर से छुटकारा पा जाते हैं।

          यह सुनकर गुणवती भी प्रतिवर्ष श्रद्धापूर्वक कार्तिक का व्रत और भगवान विष्णू की पूजा करने लगी। हे प्रिये! एक बार उसे ज्वर हो गया और वह बहुत कमजोर भी हो गई फिर भी वह किसी प्रकार गंगा स्नान के लिए चली गई। गंगा तक तो वह पहुंच गई परन्तु शीत के कारण वह बुरी तरह से कांप रही थी, इस कारण वह शिथिल हो गई तब मेरे(भगवान विष्णु) दूत उसे मेरे धाम में ले आये।

    तत्पश्चात ब्रह्मा आदि देवताओं की प्रार्थना पर जब मैंने कृष्ण का अवतार लिया तो मेरे गण भी मेरे साथ इस पृथ्वी पर आये जो इस समय यादव हैं। तुम्हारे पिता पूर्वजन्म में देवशर्मा थे तो इस समय सत्राजित हैं। पूर्वजन्म में चन्द्र शर्मा जो तुम्हारा पति था, वह डाकू है और हे देवि! तू ही वह गुणवती है। कार्तिक व्रत के प्रभाव के कारण ही तू मेरी अर्द्धांगिनी हुई है।

          पूर्व जन्म में तुमने मेरे मन्दिर के द्वार पर तुलसी का पौधा लगाया था। इस समय वह तेरे महलों के आंगन में कल्पवृक्ष के रुप में विद्यमान है। उस जन्म में जो तुमने दीपदान किया था उसी कारण तुम्हारी देह इतनी सुन्दर है और तुम्हारे घर में साक्षात लक्ष्मी का वास है। चूंकि तुमने पूर्वजन्म में अपने सभी व्रतों का फल पतिस्वरुप विष्णु को अर्पित किया था उसी के प्रभाव से इस जन्म में तुम मेरी प्रिय पत्नी हुई हो। पूर्वजन्म में तुमने नियमपूर्वक जो कार्तिक मास का व्रत किया था उसी के कारण मेरा और तुम्हारा कभी वियोग नहीं होगा। इस प्रकार कार्तिक मास में व्रत आदि करने वाले मनुष्य मुझे तुम्हारे समान प्रिय हैं। दूसरे जप तप, यज्ञ, दान आदि करने से प्राप्त फल कार्तिक मास में किये गये व्रत के फल से बहुत थोड़ा होता है अर्थात कार्तिक मास के व्रतों का सोलहवां भाग भी नहीं होता है।


          इस प्रकार सत्यभामा भगवान श्रीकृष्ण के मुख से अपने पूर्वजन्म के पुण्य का प्रभाव सुनकर बहुत प्रसन्न हुई।


🚩जय श्रीराधे कृष्णा🚩

Sunday, January 21, 2024

कार्तिक माहात्म्य -01

 

अध्याय - 01


                    नैमिषारण्य तीर्थ में श्रीसूतजी ने अठ्ठासी हजार शौनकादि ऋषियों से कहा – अब मैं आपको कार्तिक मास की कथा विस्तार पूर्वक सुनाता हूँ, जिसका श्रवण करने से मनुष्य के सभी पाप नष्ट हो जाते हैं और अन्त समय में वैकुण्ठ धाम की प्राप्ति होती है।

          सूतजी ने कहा – श्रीकृष्ण जी से अनुमति लेकर देवर्षि नारद के चले जाने के पश्चात सत्यभामा प्रसन्न होकर भगवान कृष्ण से बोली – हे प्रभु! मैं धन्य हुई, मेरा जन्म सफल हुआ, मुझ जैसी त्रैलोक्य सुन्दरी के जन्मदाता भी धन्य हैं, जो आपकी सोलह हजार स्त्रियों के बीच में आपकी परम प्यारी पत्नी बनी।

        मैंने आपके साथ नारद जी को वह कल्पवृक्ष आदिपुरुष विधिपूर्वक दान में दिया, परन्तु वही कल्पवृक्ष मेरे घर लहराया करता है। यह बात मृत्युलोक में किसी स्त्री को ज्ञात नहीं है। हे त्रिलोकीनाथ! मैं आपसे कुछ पूछने की इच्छुक हूँ। आप मुझे कृपया कार्तिक माहात्म्य की कथा विस्तारपूर्वक सुनाइये जिसको सुनकर मेरा हित हो और जिसके करने से कल्पपर्यन्त भी आप मुझसे विमुख न हों।

          सूतजी आगे बोले – सत्यभामा के ऎसे वचन सुनकर श्रीकृष्ण ने हँसते हुए सत्यभामा का हाथ पकड़ा और अपने सेवकों को वहीं रूकने के लिए कहकर विलासयुक्त अपनी पत्नी को कल्पवृक्ष के नीचे ले गये फिर हंसकर बोले – हे प्रिये! सोलह हजार रानियों में से तुम मुझे प्राणों के समान प्यारी हो। तुम्हारे लिए मैंने इन्द्र एवं देवताओं से विरोध किया था। हे कान्ते! जो बात तुमने मुझसे पूछी है, उसे सुनो।

          एक दिन मैंने (श्रीकृष्ण) तुम्हारी (सत्यभामा) इच्छापूर्ति के लिए गरुड़ पर सवार होकर इन्द्रलोक जाकर कल्पवृक्ष मांगा। इन्द्र द्वारा मना किये जाने पर इन्द्र एवं गरुड़ में घोर संग्राम हुआ और गौ लोक में भी गरुड़ जी  ने गौओं से युद्ध किया।

        गरुड़ की चोंच की चोट से उनके कान एवं पूंछ कटकर गिरने लगे जिससे तीन वस्तुएँ उत्पन्न हुई। कान से तम्बाकू, पूँछ से गोभी और रक्त से मेहंदी बनी। इन तीनों का प्रयोग करने वाले को मोक्ष नहीं मिलता तब गौओं ने भी क्रोधित होकर गरुड़ पर वार किया जिससे उनके तीन पंख टूटकर गिर गये। इनके पहले पंख से नीलकण्ठ, दूसरे से मोर और तीसरे से चकवा-चकवी उत्पन्न हुए। हे प्रिये! इन तीनों का दर्शन करने मात्र से ही शुभ फल प्राप्त हो जाता है।

        यह सुनकर सत्यभामा ने कहा – हे प्रभो! कृपया मुझे मेरे पूर्व जन्मों के विषय में बताइए कि मैंने पूर्व जन्म में कौन-कौन से दान, व्रत व जप नहीं किए हैं। मेरा स्वभाव कैसा था, मेरे जन्मदाता कौन थे और मुझे मृत्युलोक में जन्म क्यों लेना पड़ा। मैंने ऎसा कौन सा पुण्य कर्म किया था जिससे मैं आपकी अर्द्धांगिनी हुई?

          श्रीकृष्ण ने कहा – हे प्रिये! अब मै तुम्हारे द्वारा पूर्व जन्म में किये गये पुण्य कर्मों को विस्तारपूर्वक कहता हूँ, उसे सुनो।

पूर्व समय में सतयुग के अन्त में मायापुरी में अत्रिगोत्र में वेद-वेदान्त का ज्ञाता देवशर्मा नामक एक ब्राह्मण निवास करता था। वह प्रतिदिन अतिथियों की सेवा, हवन और सूर्य भगवान का पूजन किया करता था। वह सूर्य के समान तेजस्वी था। वृद्धावस्था में उसे गुणवती नामक कन्या की प्राप्ति हुई। उस पुत्रहीन ब्राह्मण ने अपनी कन्या का विवाह अपने ही चन्द्र नामक शिष्य के साथ कर दिया। वह चन्द्र को अपने पुत्र के समान मानता था और चन्द्र भी उसे अपने पिता की भाँति सम्मान देता था।

          एक दिन वे दोनों कुश व समिधा लेने के लिए जंगल में गये। जब वे हिमालय की तलहटी में भ्रमण कर रहे थे तब उन्हें एक राक्षस आता हुआ दिखाई दिया। उस राक्षस को देखकर भय के कारण उनके अंग शिथिल हो गये और वे वहाँ से भागने में भी असमर्थ हो गये तब उस काल के समान राक्षस ने उन दोनों को मार डाला। चूंकि वे धर्मात्मा थे इसलिए मेरे पार्षद उन्हें मेरे वैकुण्ठ धाम में मेरे पास ले आये। उन दोनों द्वारा आजीवन सूर्य भगवान की पूजा किये जाने के कारण मैं दोनों पर अति प्रसन्न हुआ।

          गणेश जी, शिवजी, सूर्य व देवी – इन सबकी पूजा करने वाले मनुष्य को स्वर्ग की प्राप्ति होती है। मैं एक होता हुआ भी काल और कर्मों के भेद से पांच प्रकार का होता हूँ। जैसे – एक देवदत्त, पिता, भ्राता, आदि नामों से पुकारा जाता है। जब वे दोनों विमान पर आरुढ़ होकर सूर्य के समान तेजस्वी, रूपवान, चन्दन की माला धारण किये हुए मेरे भवन में आये तो वे दिव्य भोगों को भोगने लगे।

                                                              🚩जय श्रीराधे कृष्णा🚩