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Tuesday, January 30, 2024

कार्तिक माहात्म्य --10


अध्याय - 10

          

          राजा पृथु बोले – हे ऋषिश्रेष्ठ नारद जी! आपको प्रणाम है। कृपया अब यह बताने की कृपा कीजिए कि जब भगवान शंकर ने अपने मस्तक के तेज को क्षीर सागर में डाला तो उस समय क्या हुआ?

          नारद जी बोले – हे राजन्! जब भगवान शंकर ने अपना वह तेज क्षीर सागर में डाल दिया तो उस समय वह शीघ्र ही बालक होकर सागर के संगम पर बैठकर संसार को भय देने वाला रूदन करने लगा। उसके रूदन से सम्पूर्ण जगत व्याकुल हो उठा। लोकपाल भी व्याकुल हो गये। चराचर चलायमान हो गया। शंकर सुवन के रुदन से सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड व्याकुल हो गया। यह देखकर सभी देवता और ऋषि-मुनि व्याकुल होकर ब्रह्माजी की शरण में गये और उन्हें प्रणाम कर उनकी स्तुति करने लगे। उन सभी ने ब्रह्मा जी से कहा – हे पितामह! यह तोन बहुत ही विकट परिस्थिति उत्पन्न हो गई है। हे महायोगिन! इसको नष्ट कीजिए।

          देवताओं के मुख से इस प्रकार सुनकर ब्रह्माजी सत्यलोक से उतरकर उस बालक को देखने के लिए सागर तट पर आये। सागर ने ब्रह्मा जी को आता देखकर उन्हें प्रणाम किया और बालक को उठाकर उनकी गोद में दे दिया। आश्चर्य चकित होते हुए ब्रह्मा जी ने पूछा – हे सागर! यह बालक किसका है, शीघ्रतापूर्वक कहो।

          सागर विनम्रतापूर्वक बोला – प्रभो! यह तो मुझे ज्ञात नहीं है परन्तु मैं इतना अवश्य जानता हूँ कि यह गंगा सागर के संगम पर प्रगट हुआ है इसलिए हे जगतगुरु! आप इस बालक का जात कर्म आदि संस्कार कर के इसका जातक फल बताइए।

          नारद जी राजा पृथु से बोले – सागर ब्रह्माजी के गले में हाथ डालकर बार-बार उनका आकर्षण कर रहा था। फिर तो उसने ब्रह्माजी का गला इतनी जोर से पकड़ा कि उससे पीड़ित होकर ब्रह्मा जी की आँखों से अश्रु टपकने लगे। ब्रह्माजी ने अपने दोनों हाथों का जोर लगाकर किसी प्रकार सागर से अपना गला छुड़वाया और सागर से कहा – हे सागर! सुनो, मैं तुम्हारे इस पुत्र का जातक फल कहता हूँ। मेरे नेत्रों से जो यह जल निकला है इस कारण इसका नाम जलन्धर होगा। उत्पन्न होते ही यह तरुणावस्था को प्राप्त हो गया है इसलिए यह सब शास्त्रों का पारगामी, महापराक्रमी, महावीर, बलशाली, महायोद्धा और रण में विजय प्राप्त करने वाला होगा।

          यह बालक सभी दैत्यों का अधिपति होगा। यह किसी से भी पराजित न होने वाला तथा भगवान विष्णु को भी जीतने वाला होगा। भगवान शंकर को छोड़कर यह सबसे अवध्य होगा। जहां से इसकी उत्पत्ति हुई है यह वहीं जायेगा। इसकी पत्नी बड़ी पतिव्रता, सौभाग्यशालिनी, सर्वांगसुन्दरी, परम मनोहर, मधुर वाणी बोलने वाली तथा शीलवान होगी।

          सागर से इस प्रकार कहकर ब्रह्माजी ने शुक्राचार्य को बुलवाया और उनके हाथों से बलक का राज्याभिषेक कराकर स्वयं अन्तर्ध्यान हो गये। बालक को देखकर सागर की प्रसन्नता की सीमा न रही, वह हर्षित मन से घर आ गया। फिर सागर में उस बालक का लालन-पालन कर उसे पुष्ट किया, फिर कालनेमि नामक असुर को बुलाकर वृन्दा नामक कन्या से विधिपूर्वक उसका विवाह करा दिया। उस विवाह में बहुत बड़अ उत्सव हुआ। श्री शुक्राचार्य के प्रभाव से पत्नी सहित जलन्धर दैत्यों का राजा हो गया।

क्रमश:


🚩जय श्रीराधे कृष्णा🚩

Monday, January 29, 2024

कार्तिक माहात्म्य--09


अध्याय - 09

          

          राजा पृथु ने कहा – हे मुनिश्रेष्ठ नारद जी! आपने कार्तिक माह के व्रत में जो तुलसी की जड़ में भगवान विष्णु का निवास बताकर उस स्थान की मिट्टी की पूजा करना बतलाया है, अत: मैं श्री तुलसी जी के माहात्म्य को सुनना चाहता हूँ। तुलसी जी कहां और किस प्रकार उत्पन्न हुई, यह बताने की कृपा करें।

          नारद जी बोले – राजन! अब आप तुलसी जी की महत्ता तथा उनके जन्म का प्राचीन इतिहास ध्यानपूर्वक सुनिए –

          एक बार देवगुरु बृहस्पति और देवराज इन्द्र भगवान शंकर का दर्शन करने कैलाश पर्वत की ओर चले तब भगवान शंकर ने अपने भक्तों की परीक्षा लेने के लिए जटाधारी दिगम्बर का रुप धारण कर उन दोनों के मार्ग में अवरोध उत्पन्न किया यद्यपि वह तेजस्वी, शान्त, लम्बी भुजा और चौड़ी छाती वाले, गौर वर्ण, अपने विशाल नेत्रों से युक्त तथा सिर पर जटा धारण किये वैसे ही बैठे थे तथापि उन भगवान शंकर को न पहचान कर इन्द्र ने उनसे उनका नाम व धाम आदि पूछते हुए कहा कि क्या भगवान शंकर अपने स्थान पर हैं या कहीं गये हुए हैं?

         इस पर तपस्वी रूप भगवान शिव कुछ नहीं बोले। इन्द्र को अपने त्रिलोकीनाथ होने का गर्व था, उसी अहंकार के प्रभाव से वह चुप किस प्रकार रह सकता था, उसने क्रोधित होते हुए उस तपस्वी को धुड़ककर कहा – अरे! मैंने तुझसे कुछ पूछा है और तू उसका उत्तर भी नहीं देता, मैं अभी तुझ पर वज्र का प्रहार करता हूँ फिर देखता हूँ कि कौन तुझ दुर्मति की रक्षा करता है। इस प्रकार कहकर जैसे ही इन्द्र ने उस जटाधारी दिगम्बर को मारने के लिए हाथ में वज्र लिया वैसे ही भगवान शिव ने वज्र सहित इन्द्र का हाथ स्तम्भित कर दिया और विकराल नेत्र कर उसे देखा।

          उस समय ऎसा प्रतीत हो रहा था कि वह दिगम्बर प्रज्वलित हो उठा है और वह अपने तेज से जला देगा। भुजाएँ स्तम्भित होने के कारण इन्द्र दुखित होने के साथ-साथ अत्यन्त कुपित भी हो गया परन्तु उस जटाधारी दिगम्बर को प्रज्वलित देखकर बृहस्पति जी ने उन्हें भगवान शंकर जानकर प्रणाम किया और दण्डवत होकर उनकी स्तुति करने लगे। बृहस्पति भगवान शंकर से कहने लगे – हे दीनानाथ! हे महादेव! आप अपने क्रोध को शान्त कर लीजिए और इन्द्र के इस अपराध को क्षमा कीजिए।

          बृहस्पति के यह वचन सुनकर भगवान  शंकर ने गम्भीर वाणी में कहा – मैं अपने नेत्रों से निकाले हुए क्रोध को किस प्रकार रोकूँ?

          तब बृहस्पति ने कहा – भगवन्! आप अपना भक्तवत्सल नाम सार्थक करते हुए अपने भक्तों पर दया कीजिए। आप अपने इस तेज को अन्यत्र स्थापित कीजिए और इन्द्र का उद्धार कीजिए।

          तब भगवान शंकर गुरु बृहस्पति से बोले – मैं तुम्हारी स्तुति से अत्यन्त प्रसन्न हूँ। तुमने इन्द्र को जीवनदान दिलवाया है। मुझे विश्वास है कि मेरे नेत्रों की अग्नि अब इन्द्र को पीड़ित नहीं करेगी।

          बृहस्पति से इस प्रकार कहकर भगवान शिव ने अपने मस्तक से निकाले हुए अग्निमय तेज को अपने हाथों में ले लिया और फिर उसे क्षीर सागर में डाल दिया तत्पश्चात भगवान शंकर अन्तर्ध्यान हो गये। इस प्रकार जिसको जो जानने की कामना थी उसे जानकर इन्द्र तथा बृहस्पति अपने-अपने स्थान को चले गये।


क्रमशः
  
🚩जय श्रीराधे कृष्णा🚩

Sunday, January 28, 2024

कार्तिक माहात्म्य --08


अध्याय - 08

          

          नारदजी बोले – अब मैं कार्तिक व्रत के उद्यापन का वर्णन करता हूँ जो सब पापों का नाश करने वाला है। व्रत का पालन करने वाला मनुष्य कार्तिक शुक्ला चतुर्दशी को व्रतव की पूर्ति और भगवान विष्णु की प्रीति के लिए उद्यापन करे। तुलसी के ऊपर एक सुन्दर मण्डप बनवावे, उसे केले के खम्भों से संयुक्त कर के नाना प्रकार की धातुओं से उसकी विचित्र शोभा बढ़ावे। मण्डप के चारों ओर दीपकों की श्रेणी सुन्दर ढंग से सजाकर रखे। उस मण्डप में सुन्दर बन्दनवारों से सुशोभित चार दरवाजे बनावे और उन्हें फूलों से तथा चंवर से सुसज्जित करे। द्वारो पर पृथक-पृथक मिट्टी के द्वारपाल बनाकर उनकी पूजा करे। उनके नाम इस प्रकार हैं – जय, विजय, चण्ड, प्रचण्ड, नन्द, सुनन्द, कुमुद और कुमुदाक्ष। उन्हें चारों दरवाजों पर दो-दो के क्रम से स्थापित कर भक्तिपूर्वक पूजन करे।

          तुलसी की जड़ के समीप चार रंगों से सुशोभित सर्वतोभद्रमण्डल बनावे और उसके ऊपर पूर्णपत्र तथा पंचरत्न से संयुक्त कलश की स्थापना करें। कलश के ऊपर शंख, चक्र, गदाधारी भगवान विष्णु का पूजन करें। भक्तिपूर्वक उस तिथि में उपवास करें तथा रात्रि में गीत, वाद्य, कीर्तन आदि मंगलमय आयोजनों के साथ जागरण करें। जो भगवान विष्णु के लिए जागरण करते समय भक्तिपूर्वक भगवत्सम्बन्धी पदों का गान करते हैं वे सैकड़ो जन्मों की पापराशि से मुक्त हो जाते हैं।

          जो मनुष्य भगवान के निमित्त जागरण कर के रात्रि भर भगवान का कीर्तन करते हैं, उनको असंख्य गोदान का फल मिलता है। जो मनुष्य भगवान की मूर्ति के सामने नृत्य-गान करते हैं उनके अनेक जन्मों के एकत्रित पाप नष्ट हो जाते हैं। जो भगवान के सम्मुख बैठकर कीर्तन करते हैं और बंसी आदि बजाकर भगवद भक्तों को प्रसन्न करते हैं तथा भक्ति से रात्रि भर जागरण करते हैं, उन्हें करोड़ो तीर्थ करने का फल मिलता है।

          उसके बाद पूर्णमासी में एक सपत्नीक ब्राह्मण को निमंत्रित करें। प्रात:काल स्नान और देव पूजन कर के वेदी पर अग्नि की स्थापना करे और भगवान की प्रीति के लिए तिल और खीर की आहुति दे। होम की शेष विधि पूरी कर के भक्ति पूर्वक ब्राह्मणों का पूजन करें और उन्हें यथाशक्ति दक्षिणा दें फिर उनसे इस प्रकार क्षमा प्रार्थना करें – ‘आप सब लोगों की अनुकम्पा से मुझ पर भगवान सदैव प्रसन्न रहें। इस व्रत को करने से मेरे सात जन्मों के किये हुए पाप नष्ट हो जायें और मेरी सन्तान चिरंजीवी हो। इस पूजा के द्वारा मेरी सभी मनोकामनाएँ पूर्ण हों, मेरी मृत्यु के पश्चात मुझे अतिशय दुर्लभ विष्णुलोक की प्राप्ति हो।’

          पूजा की समस्त वस्तुओं के साथ गाय भी गुरु को दान में दे, उसके पश्चात घरवालों और मित्रों के साथ स्वयं भोजन करें।

          भगवान द्वाद्शी तिथि को शयन से उठे, त्रयोदशी को देवताओं से मिले और चतुर्दशी को सबने उनका दर्शन एवं पूजन किया इसलिए उस तिथि में भगवान की पूजा करनी चाहिए। गुरु की आज्ञा से भगवान विष्णु की सुवर्णमयी प्रतिमा का पूजन करें। इस पूर्णिमा को पुष्कर तीर्थ की यात्रा श्रेष्ठ मानी गयी है। कार्तिक माह में इस विधि का पालन करना चाहिए। जो इस प्रकार कार्तिक के व्रत का पालन करते हैं वे धन्य और पूजनीय हैं उन्हें उत्तम फल की प्राप्ति होती है। जो भगवान विष्णु की भक्ति में तत्पर हो कार्तिक में व्रत का पालन करते हैं उनके शरीर में स्थित सभी पाप तत्काल नष्ट हो जाते हैं। जो श्रद्धापूर्वक कार्तिक के उद्यापन का माहात्म्य सुनता या सुनाता है वह भगवान विष्णु का सायुज्य प्राप्त करता है।

क्रमशः

  

🚩जय श्रीराधे कृष्णा🚩


Saturday, January 27, 2024

कार्तिक माहात्म्य -- 07


अध्याय - 07

          

          नारद जी ने कहा – हे राजन! कार्तिक मास में व्रत करने वालों के नियमों को मैं संक्षेप में बतलाता हूँ, उसे आप सुनिए। व्रती को सब प्रकार के आमिष मांस, उरद, राई, खटाई तथा नशीली वस्तुओं का त्याग कर देना चाहिए। व्रती को दूसरे का अन्न ग्रहण नहीं करना चाहिए, किसी से द्वेष नहीं करना चाहिए और तीर्थ के अतिरिक्त अन्य कोई यात्रा नहीं करनी चाहिए। देवता, वेद, ब्राह्मण, गाय, व्रती, नारी, राजा तथा गुरुजनों की निन्दा भी नहीं करनी चाहिए।

          व्रती को दाल, तिल, पकवान व दान किया हुआ भोजन ग्रहण नहीं करना चाहिए। किसी की चुगली या निन्दा भी नहीं करनी चाहिए। किसी भी जीव का मांस नहीं छूना चाहिए। पान, कत्था, चूना, नींबू, मसूर, बासी तथा झूठे अन्न का भी प्रयोग नहीं करना चाहिए। गाय, बकरी तथा भैंस के अतिरिक्त अन्य किसी पशु का दूध नहीं पीना चाहिए। कांस्य के पात्र में रखा हुआ पंचगव्य, बहुत छोटे घड़े का पानी तथा केवल अपने लिए ही पका हुआ अन्न प्रयोग करना चाहिए।

          कार्तिक माह का व्रत करने वाले मनुष्य को सदैव ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए। उसे धरती पर सोना चाहिए और दिन के चौथे पहर में केवल एक बार पत्तल में भोजन करना चाहिए। व्रती कार्तिक माह में केवल नरक चतुर्दशी जिसे छोटी दीवाली भी कहा जाता है के दिन ही शरीर में तेल लगा सकता है। कार्तिक माह में व्रत करने वाले मनुष्य को सिंघाड़ा, प्याज, मठ्ठा, गाजर, मूली, काशीफल, लौकी, तरबूज इन वस्तुओं का प्रयोग बिलकुल नहीं करना चाहिए। रजस्वला, चाण्डाल, पापी, म्लेच्छ, पतित, व्रतहीन, ब्राह्मणद्रोही और नास्तिकों से बातचीत नहीं करनी चाहिए। भगवान विष्णु को प्रसन्न करने के लिए अपनी शक्ति के अनुसार चान्द्रायण आदि का व्रत करना चाहिए और उपर्युक्त नियमों का पालन करना चाहिए।

          व्रती को प्रतिपदा को कुम्हड़ा, द्वितीया को कटहल, तृतीया को तरूणी स्त्री, चतुर्थी को मूली, पंचमी को बेल, षष्ठी को तरबूज, सप्तमी को आंवला, अष्टमी को नारियल, नवमी को मूली, दशमी को लौकी, एकादशी को परवल, द्वादशी को बेर, त्रयोदशी को मठ्ठा, चतुर्दशी को गाजर तथा पूर्णिमा को शाक का प्रयोग नहीं करना चाहिए। रविवार को आंवला का प्रयोग नहीं करना चाहिए। कार्तिक माह में व्रत करने वाला मनुष्य यदि इन शाकों में से किसी शाक का सेवन करना चाहे तो पहले ब्राह्मण को देखकर ग्रहण करे।

          यही विधान माघ माह के व्रत के लिए भी है। देवोत्थानी एकादशी में पहले कही गयी विधि के अनुसार नृत्य, जागरण, गायन-वादन आदि करना चाहिए। इसको विधिपूर्वक करने वाले मनुष्य को देखकर यमदूत ऎसे भाग जाते हैं जैसे सिंह की गर्जना से हाथी भाग जाते हैं। कार्तिक माह का व्रत सभी व्रतों में श्रेष्ठ है। इसके अतिरिक्त जितने भी व्रत-यज्ञ हैं वह हजार की संख्या में किये जाने पर भी इसकी तुलना नहीं कर सकते क्योंकि यज्ञ करने वाले मनुष्य को सीधा वैकुण्ठ की प्राप्ति होती है। जिस प्रकार राजा की रक्षा उसके अंगरक्षक करते हैं उसी प्रकार कार्तिक माह का व्रत करने वाले की रक्षा भगवान विष्णु की आज्ञा से इन्द्रादि देवता करते हैं।

          व्रती मनुष्य जहाँ कहीं भी रहता है वहीं पर उसकी पूजा होती है, उसका यश फैलता है। उसके निवास स्थान पर भूत, पिशाच आदि कोई भी नहीं रह पाते। विधि पूर्वक कार्तिक माह का व्रत करने वाले मनुष्यों के पुण्यों का वर्णन करने में ब्रह्माजी भी असमर्थ हैं। यह व्रत सभी पापों को नष्ट करने वाला, पुत्र-पौत्र प्रदान करने वाला और धन-धान्य की वृद्धि करने वाला है।

क्रमश


🚩जय श्रीराधे कृष्णा🚩


Monday, January 22, 2024

कार्तिक माहात्म्य -02

 अध्याय - 02


          भगवान श्रीकृष्ण आगे बोले – हे प्रिये! जब गुणवती को राक्षस द्वारा अपने पति एवं पिता के मारे जाने का समाचार मिला तो वह विलाप करने लगी – हा नाथ! हा पिता! मुझको त्यागकर तुम कहां चले गये? मैं अकेली स्त्री, तुम्हारे बिना अब क्या करूँ? अब मेरे भोजन, वस्त्र आदि की व्यवस्था कौन करेगा। घर में प्रेमपूर्वक मेरा पालन-पोषण कौन करेगा? मैं कुछ भी नहीं कर सकती, मुझ विधवा की कौन रक्षा करेगा, मैं कहां जाऊँ? मेरे पास तो अब कोई ठिकाना भी नहीं रहा। इस प्रकार विलाप करते हुए गुणवती चक्कर खाकर धरती पर गिर पड़ी और बेहोश हो गई।

          बहुत देर बाद जब उसे होश आया तो वह पहले की ही भाँति करुण विलाप करते हुए शोक सागर में डूब गई। कुछ समय के पश्चात जब वह संभली तो उसे ध्यान आया कि पिता और पति की मृत्यु के बाद मुझे उनकी क्रिया करनी चाहिए जिससे उनकी गति हो सके इसलिए उसने अपने घर का सारा सामान बेच दिया और उससे प्राप्त धन से उसने अपने पिता एवं पति का श्राद्ध आदि कर्म किया। तत्पश्चात वह उसी नगर में रहते हुए आठों पहर भगवान विष्णु की भक्ति करने लगी। उसने मृत्युपर्यन्त तक नियमपूर्वक सभी एकादशियों का व्रत और कार्तिक महीने में उपवास एवं व्रत किये।

          हे प्रिये! एकादशी और कार्तिक व्रत मुझे बहुत ही प्रिय हैं। इनसे मुक्ति,भुक्ति, पुत्र तथा सम्पत्ति प्राप्त होती है। कार्तिक मास में जब तुला राशि पर सूर्य आता है तब ब्रह्ममुहूर्त में उठकर स्नान करने व व्रत व उपवास करने वाले मनुष्य मुझे बहुत प्रिय हैं क्योंकि यदि उन्होंने पाप भी किये हों तो भी स्नान व व्रत के प्रभाव से उन्हें मोक्ष प्राप्त हो जाता है। कार्तिक में स्नान, जागरण, दीपदान तथा तुलसी के पौधे की रक्षा करने वाले मनुष्य साक्षात भगवान विष्णु के समान है। कार्तिक मास में मन्दिर में झाड़ू लगाने वाले, स्वस्तिक बनाने वाले तथा भगवान विष्णु की पूजा करने वाले मनुष्य जन्म-मरण के चक्कर से छुटकारा पा जाते हैं।

          यह सुनकर गुणवती भी प्रतिवर्ष श्रद्धापूर्वक कार्तिक का व्रत और भगवान विष्णू की पूजा करने लगी। हे प्रिये! एक बार उसे ज्वर हो गया और वह बहुत कमजोर भी हो गई फिर भी वह किसी प्रकार गंगा स्नान के लिए चली गई। गंगा तक तो वह पहुंच गई परन्तु शीत के कारण वह बुरी तरह से कांप रही थी, इस कारण वह शिथिल हो गई तब मेरे(भगवान विष्णु) दूत उसे मेरे धाम में ले आये।

    तत्पश्चात ब्रह्मा आदि देवताओं की प्रार्थना पर जब मैंने कृष्ण का अवतार लिया तो मेरे गण भी मेरे साथ इस पृथ्वी पर आये जो इस समय यादव हैं। तुम्हारे पिता पूर्वजन्म में देवशर्मा थे तो इस समय सत्राजित हैं। पूर्वजन्म में चन्द्र शर्मा जो तुम्हारा पति था, वह डाकू है और हे देवि! तू ही वह गुणवती है। कार्तिक व्रत के प्रभाव के कारण ही तू मेरी अर्द्धांगिनी हुई है।

          पूर्व जन्म में तुमने मेरे मन्दिर के द्वार पर तुलसी का पौधा लगाया था। इस समय वह तेरे महलों के आंगन में कल्पवृक्ष के रुप में विद्यमान है। उस जन्म में जो तुमने दीपदान किया था उसी कारण तुम्हारी देह इतनी सुन्दर है और तुम्हारे घर में साक्षात लक्ष्मी का वास है। चूंकि तुमने पूर्वजन्म में अपने सभी व्रतों का फल पतिस्वरुप विष्णु को अर्पित किया था उसी के प्रभाव से इस जन्म में तुम मेरी प्रिय पत्नी हुई हो। पूर्वजन्म में तुमने नियमपूर्वक जो कार्तिक मास का व्रत किया था उसी के कारण मेरा और तुम्हारा कभी वियोग नहीं होगा। इस प्रकार कार्तिक मास में व्रत आदि करने वाले मनुष्य मुझे तुम्हारे समान प्रिय हैं। दूसरे जप तप, यज्ञ, दान आदि करने से प्राप्त फल कार्तिक मास में किये गये व्रत के फल से बहुत थोड़ा होता है अर्थात कार्तिक मास के व्रतों का सोलहवां भाग भी नहीं होता है।


          इस प्रकार सत्यभामा भगवान श्रीकृष्ण के मुख से अपने पूर्वजन्म के पुण्य का प्रभाव सुनकर बहुत प्रसन्न हुई।


🚩जय श्रीराधे कृष्णा🚩

Sunday, January 21, 2024

कार्तिक माहात्म्य -01

 

अध्याय - 01


                    नैमिषारण्य तीर्थ में श्रीसूतजी ने अठ्ठासी हजार शौनकादि ऋषियों से कहा – अब मैं आपको कार्तिक मास की कथा विस्तार पूर्वक सुनाता हूँ, जिसका श्रवण करने से मनुष्य के सभी पाप नष्ट हो जाते हैं और अन्त समय में वैकुण्ठ धाम की प्राप्ति होती है।

          सूतजी ने कहा – श्रीकृष्ण जी से अनुमति लेकर देवर्षि नारद के चले जाने के पश्चात सत्यभामा प्रसन्न होकर भगवान कृष्ण से बोली – हे प्रभु! मैं धन्य हुई, मेरा जन्म सफल हुआ, मुझ जैसी त्रैलोक्य सुन्दरी के जन्मदाता भी धन्य हैं, जो आपकी सोलह हजार स्त्रियों के बीच में आपकी परम प्यारी पत्नी बनी।

        मैंने आपके साथ नारद जी को वह कल्पवृक्ष आदिपुरुष विधिपूर्वक दान में दिया, परन्तु वही कल्पवृक्ष मेरे घर लहराया करता है। यह बात मृत्युलोक में किसी स्त्री को ज्ञात नहीं है। हे त्रिलोकीनाथ! मैं आपसे कुछ पूछने की इच्छुक हूँ। आप मुझे कृपया कार्तिक माहात्म्य की कथा विस्तारपूर्वक सुनाइये जिसको सुनकर मेरा हित हो और जिसके करने से कल्पपर्यन्त भी आप मुझसे विमुख न हों।

          सूतजी आगे बोले – सत्यभामा के ऎसे वचन सुनकर श्रीकृष्ण ने हँसते हुए सत्यभामा का हाथ पकड़ा और अपने सेवकों को वहीं रूकने के लिए कहकर विलासयुक्त अपनी पत्नी को कल्पवृक्ष के नीचे ले गये फिर हंसकर बोले – हे प्रिये! सोलह हजार रानियों में से तुम मुझे प्राणों के समान प्यारी हो। तुम्हारे लिए मैंने इन्द्र एवं देवताओं से विरोध किया था। हे कान्ते! जो बात तुमने मुझसे पूछी है, उसे सुनो।

          एक दिन मैंने (श्रीकृष्ण) तुम्हारी (सत्यभामा) इच्छापूर्ति के लिए गरुड़ पर सवार होकर इन्द्रलोक जाकर कल्पवृक्ष मांगा। इन्द्र द्वारा मना किये जाने पर इन्द्र एवं गरुड़ में घोर संग्राम हुआ और गौ लोक में भी गरुड़ जी  ने गौओं से युद्ध किया।

        गरुड़ की चोंच की चोट से उनके कान एवं पूंछ कटकर गिरने लगे जिससे तीन वस्तुएँ उत्पन्न हुई। कान से तम्बाकू, पूँछ से गोभी और रक्त से मेहंदी बनी। इन तीनों का प्रयोग करने वाले को मोक्ष नहीं मिलता तब गौओं ने भी क्रोधित होकर गरुड़ पर वार किया जिससे उनके तीन पंख टूटकर गिर गये। इनके पहले पंख से नीलकण्ठ, दूसरे से मोर और तीसरे से चकवा-चकवी उत्पन्न हुए। हे प्रिये! इन तीनों का दर्शन करने मात्र से ही शुभ फल प्राप्त हो जाता है।

        यह सुनकर सत्यभामा ने कहा – हे प्रभो! कृपया मुझे मेरे पूर्व जन्मों के विषय में बताइए कि मैंने पूर्व जन्म में कौन-कौन से दान, व्रत व जप नहीं किए हैं। मेरा स्वभाव कैसा था, मेरे जन्मदाता कौन थे और मुझे मृत्युलोक में जन्म क्यों लेना पड़ा। मैंने ऎसा कौन सा पुण्य कर्म किया था जिससे मैं आपकी अर्द्धांगिनी हुई?

          श्रीकृष्ण ने कहा – हे प्रिये! अब मै तुम्हारे द्वारा पूर्व जन्म में किये गये पुण्य कर्मों को विस्तारपूर्वक कहता हूँ, उसे सुनो।

पूर्व समय में सतयुग के अन्त में मायापुरी में अत्रिगोत्र में वेद-वेदान्त का ज्ञाता देवशर्मा नामक एक ब्राह्मण निवास करता था। वह प्रतिदिन अतिथियों की सेवा, हवन और सूर्य भगवान का पूजन किया करता था। वह सूर्य के समान तेजस्वी था। वृद्धावस्था में उसे गुणवती नामक कन्या की प्राप्ति हुई। उस पुत्रहीन ब्राह्मण ने अपनी कन्या का विवाह अपने ही चन्द्र नामक शिष्य के साथ कर दिया। वह चन्द्र को अपने पुत्र के समान मानता था और चन्द्र भी उसे अपने पिता की भाँति सम्मान देता था।

          एक दिन वे दोनों कुश व समिधा लेने के लिए जंगल में गये। जब वे हिमालय की तलहटी में भ्रमण कर रहे थे तब उन्हें एक राक्षस आता हुआ दिखाई दिया। उस राक्षस को देखकर भय के कारण उनके अंग शिथिल हो गये और वे वहाँ से भागने में भी असमर्थ हो गये तब उस काल के समान राक्षस ने उन दोनों को मार डाला। चूंकि वे धर्मात्मा थे इसलिए मेरे पार्षद उन्हें मेरे वैकुण्ठ धाम में मेरे पास ले आये। उन दोनों द्वारा आजीवन सूर्य भगवान की पूजा किये जाने के कारण मैं दोनों पर अति प्रसन्न हुआ।

          गणेश जी, शिवजी, सूर्य व देवी – इन सबकी पूजा करने वाले मनुष्य को स्वर्ग की प्राप्ति होती है। मैं एक होता हुआ भी काल और कर्मों के भेद से पांच प्रकार का होता हूँ। जैसे – एक देवदत्त, पिता, भ्राता, आदि नामों से पुकारा जाता है। जब वे दोनों विमान पर आरुढ़ होकर सूर्य के समान तेजस्वी, रूपवान, चन्दन की माला धारण किये हुए मेरे भवन में आये तो वे दिव्य भोगों को भोगने लगे।

                                                              🚩जय श्रीराधे कृष्णा🚩

Sunday, July 18, 2021

Sawan Ke Somvaar ki Varat Katha (सावन के सोमवार की व्रत कथा )


ॐ गण गणपते नमः 

 Sawan Ke Somvaar ki Varat Katha (सावन के सोमवार की व्रत कथा )


        प्राचीन समय में एक नगर में एक बुढ़िया परिवार सहित रहती थी | उसके परिवार में एक लड़की और दो लड़के थे | लड़के बड़े थे परन्तु उनकी शादी नहीं हुई थी | लड़की भी शादी  के योग्य हो गयी थी | बुढ़िया धार्मिक विचारों वाली महिला थी | उसके घर के पास भगवान् शिव का मंदिर था जिस में एक साधु रहता था | वह बड़ी श्रद्धा से भगवान् शिव की सेवा करता था | बुढ़िया भी प्रतिदिन सुबह नहा धोकर मंदिर जाया करती थी | शिवरात्रि के दिन सुबह बुढ़िया अपने बच्चों को साथ लेकर मन्दिर पहुँची। सभी ने बड़ी श्रद्धा से भगवान्‌
शिव की पूजा अर्चना की। घर को वापिस आते समय बुढ़िया ने साधु को बच्चों को आशीर्वाद देने को कहा। साधु ने लड़कों को बहुत से आशीर्वाद दिए परन्तु लड़की को कोई आशीर्वाद न दिया। बुढ़िया ने साधु से हैरान होकर नम्रता  सहित प्रश्न किया, “'हे महात्मा! आपने लड़कों को तो आशीर्वाद दिया परन्तु मेरी इस प्यारी बच्ची को आशीर्वाद क्‍यों नहीं दिया? कृपा मेरी शंका का समाधान करो।''

        साधु ने सब की ओर स्नेह की दृष्टि  डाली और कहा कि मैं इस लड़की को आशीर्वाद नहीं दे सकता क्योंकि इसके भाग्य में सुहाग का सुख नहीं है। साधु केवचन को सुनकर सभी हैरान हो गए। सभी के चेहरों पर परेशानी की लकीरें  प्रकट हो आईं। बुढ़िया ने साधु से प्रार्थना की कि इसका कोई उपाय हो तो कृपा कहें।जिससे हमारी प्यारी बेटी को सुहाग की प्राप्ति हो। हम अपनी बेटी के इस कष्ट को दूर करने के लिए कुछ भी करने को तैयार हैं। अगर हमारे प्राणों की आहुति से ही हमारी बेटी का भला हो सकता है तो हम उसके लिए भी तैयार हैं। उन सब की इस प्रकार की बातें सुनकर साधु कुछ देर मौन हो गया।

        साधु ने कहा कि एक उपाय है परन्तु उपाय बहुत कठिन है इसमें प्राण जाने का भी भय है। सभी ने साधु से प्रार्थना की, “कृपा उस उपाय को हम पर प्रकट करें,हम उसे अवश्य करेंगे।'' इन वचनों को सुन कर साधु ने कहा कि यहां से सात समुद्र पार एक रंमणीक नगर में सोमपत्ति नाम की एक स्त्री रहती है, जिसके सौ बेटे हैं, यह वहां जाकर अपनी सेवा से उस स्त्री को प्रसन्‍न करे। अगर वह स्त्री प्रसन्‍न हो गई तो इसको अवश्य सुहाग सुख की प्राप्ति हो सकती है। आप लोग यहां से छः समुद्र तो आसानी से पार कर सकते हो क्योंकि इनको पार करने के लिए आपको किश्ती मिल सकती है परन्तु सातवें समुद्र को पार करने के लिए
 कुछ भी न मिलेगा। क्योंकि वहाँ पर मानव का जा पाना सम्भव नहीं है। अगर यह लड़की उस सातवें समुद्र को पार कर लेगी तो अवश्य ही इसको सौभाग्य प्राप्त होगा| साधु के कथनानुसार वे सभी भगवान्‌ शिव के सहारे घर से निकल पड़े। छः समुद्र तो उन्होंने भगवान्‌ की कृपा से आसानी से किश्ती में बैठ कर पार कर लिए | 

        सातवें समुद्र के तट पर पहुँच कर वे उसे पार करने के उपाय को सोचते हुए भगवान्‌ शिव की अराधना करने लगे। भगवान्‌ शंकर की कृपा से उन्हें वहां एक पेड़ दिखाई दिया। पेड़ के ऊपर एक हंस बैठा हुआ था। हंस ने उनसे कहा कि मैं इस पेड़ के पत्तों से आप लोगों को एक बेड़ी बना कर दे सकता हूँ। सभी ने सोचा कि अगर भगवान्‌ की कृपा होगी तो यह बेड़ी हमें हमारी मंजिल पर पहुँचा देगी, नहीं तो मौत निश्चित ही है। उन्होंने हंस से बेड़ी बनाकर देने की प्रार्थना की। हंस ने कुछ ही समय में उनको बेड़ी बनाकर दे दी। सभी ने हंस का धन्यवाद किया और भगवान्‌ शिव के नाम का सहारा लेकर बेड़ी में सवार हो गए।  ॐ नमो शिवाय: का जाप करते-करते वे लोग सातवां समुद्र भी पार कर गए। थोड़ी दूर चलने पर वे रमणीक नगर में पहुँचे। वहाँ पर उन्होंने सोमपत्ति को देखा और उसके सौ पुत्रों व बहुओं को देखा। उसके बहु-बेटे सभी अलग-अलग रहते थे। वे सभी सोमपत्ति के घर के पास छुप कर रहने लगे | 

        सोमपत्ति रोज़ सुबह स्नान करने के लिए नदी पर जाया करती थी। जैसे ही सोमपत्ति स्नान के लिए घर से निकलती थी तो वह लड़की हर रोज़ चुप चाप  उसके पीछे से घर में आती । घर का झाड़, चौंका, बर्तन आदि साफ़ करके उसकेघर आने से पहले वापिस अपने परिवार में पहुँच जाती थी। हर रोज़ जैसे ही सोमयत्ति स्नान आदि से निवृत होकर घर को वापिस आती तो घर की साफ़ सफाई देखकर हैरान होकर सोचती कि कौन मेरे पीछे से आता है ,जो मेरे घर की सफाई, बर्तन आदि साफ कर जाता है। मैं उसको कैसे देखूं। ऐसे ही महिनों बीत गए। एक दिन किसी कारणवश सोमपत्ति की नींद कुछ देर से खुली परन्तु वह लड़की अपने नियमानुसार उसके घर साफ़-सफाई के लिए आ पहुँची और अपना नित्य का कार्य करने लगी। सोमपत्ति ने उस लड़की को देखकर पूछा, “बेटी, तुम कौन हो? यहाँ पर किस लिए आई हो? तुम्हें क्या चाहिए? '' सोमपत्ति के वचनों को सुनकर लड़की उसी समय उसके चरणों में गिर पड़ी। सोमपत्ति ने नींद में ही उसको आशीर्वाद दिया, बेटी, दूधवती, पुत्रवर्ती, सौभाग्यवती हो।'' परन्तु लड़की ने फिर भी उसके पांवों से सिर न उठाया तीन बार वही आशीर्वाद देने के पश्चात्‌ उठकर जब उस लड़की के सिर को उठाया तो देखा कि इसके भाग्य में तो सुहाग सुख नहीं है परन्तु मैंने इसे पुत्रवती होने का आशीर्वाद दे दिया है। यह कैसे होगा? सोमपत्ति अभी सोच ही रही थी कि लड़की की माँ व भाईं सभी वहां पर आ गए। सभी सोमपत्ति से प्रार्थना करने लगे। हे माँ, अब आप ही इसकी माँ हैं और आप ही इसको इसकी खुशियाँ दे सकती हैं। माँ सोमपत्ति ने कहा, “ठीक है। मगर यह सावन मास में आने वाले सभी सोमवार को भगवान्‌ शिव का व्रत करे। यह व्रत सभी को मनवांछित फल प्रदान
करने वाले हैं। मां पार्वती और भगवान्‌ शिव के आशीर्वाद से इसको भी मनवांछित फल अवश्य प्राप्त होगा। आप लोग भी इसके लिए सावन के प्रथम सोमवार को  लड़का ढूंढना । दूसरे सोमवार को सगाई करना। तीसरे सोमवार को साहे चिट्ठी भेजना  तथा चौथे सोमवार को बारात मंगवाना। जैसे ही लड़का लगन मण्डप में बैठेगा उसी समय ही वह समा जाएगा। सभी रिश्तेदार, भाई-बन्धु विलाप करेंगे।  दुनिया तरह तरह की बातें करेगी। मगर आप मत रोना। सभी को चुप करवानाऔर मुझे याद करना। सब ठीक हो जाएगा। उन्होंने कहा, “ठीक है माँ! हम ऐसा ही करेंगे। सभी सोमपत्ति माँ से आशीर्वाद लेकर अपने घर को चल पड़े।
            घर वापिस आकर सभी बड़ी श्रद्धा से भगवान्‌ की पूजा करते हुए समय व्यतीत करने लगे। लड़की पूरी श्रद्धा, भक्ति भाव से सोमवार का व्रत करने लगी। सावन के पहले सोमवार को उसकी माँ व भाईयों ने सोमपत्ति के कथनानुसार लड़का देखा। लड़का बहुत सुन्दर व गुणवान था। दूसरे सोमवार को उन्होंने बड़ी धूमधाम से सगाई की रसमें पूरी कीं। तीसरे सोमवार को साहे चिट्ठी भेजी तथा सावन के चौथे सोमवार को बारात लाने को कहा।

        उन्होंने शादी के दिन घर को खूब अच्छी तरह सजाया। बारात के स्वागत के लिए सजावटी द्वार लगाए, गाजे बाजे का भी खूब प्रबन्ध किया। निश्चित दिन यानि चौथे सोमवार को निश्चित समय पर बहुत धूमधाम से खुशी में नाचती- घूमती बारात उनके द्वार पहुंची । सभी ने मिलकर बारात का स्वागत किया। बारात को भोजन वगैरा आदि करवाया। बारात के विश्राम का प्रबन्ध किया।  जब लगन  का समय आया तो लड़के को लगन मण्डप में बुलाया गया। जैसे ही लड़का लगन मण्डप में आसन पर बैठा उसी समय समा गया। लड़के के परिवार के सदस्य व बारात में शामिल सभी बाराती रोने लगे। लोग तरह-तरह की बातें बनाने लगे। कोई कहता कि यह डायन है पहले ही दिन पति को खा गई। कोई कहता लड़की कुल्टा है। कोई कहता कुल्छनी है। जितने मुँह उतनी बातें । लड़की मन ही मन में भगवान्‌ शंकर व पार्वती को याद करने लगी। हे भोले नाथ, मेरी इज्जत रखो। मेरे परिवार की इज़्ज़त को बनाए रखो। हे माँ पार्वती! तुम सुहाग को देने वाली हो, मेरे सुहाग को जिन्दा कर दो।

        लड़की की माँ व भाई परिवार सहित माँ सोमपत्ति को याद करने लगे। वे सभी बारातियों को ढांढस बंधवा रहे थे कि.सब कुछ ठीक हो जाएगा, भगवान्‌ शंकर की महिमा अपरम्पार है। उनकी पुकार माँ सोमपत्ति के कानों तक जा पहुँची । उसी समय माँ सोमपत्ति ने अपने सभी बहु-पुत्रों पर जल छिड़क कर उन सभी को सुला दिया। उनको सुलाने के पश्चात्‌ वह अपनी पड़ोसन के पास गई और उसको कहने लगी कि कोई भी इनमें से जागे न, और न ही कोई इनको जगाए। अगर कोई जगाएगा या कोई जाग गया तो वह मर जाएगा। इतना कह कर सोमपत्ति वहाँ से चलपड़ी।सोमपत्ति  ने अपने १00 पुत्रों व बहुओं की आयु में से थोड़ी-थोड़ी आयु जल के रूप में उस लड़की के सुहाग पर छिड़क कर उसको जीवित कर दिया। लड़के के जीवित होते ही शादी की सभी रस्में पूरी की गई। सभी बहुत प्रसन्‍न थे। शादी सम्पन्न होने के पश्चात्‌ माँ  सोमपत्ति से आशीर्वाद लेकर डोली विदा की गई।
उसके बाद माँ सोमपत्ति अपने नगर को चली गई। वह लड़की प्रति वर्ष सावन मास के सोमवार का व्रत करने लगी। व्रत के प्रभाव से उसके परिवार में किसी चीज़ की कमी न रही और वह खुशी-खुशी अपने घर में सुख से जीवन व्यतीत करने लगी॥

जिस तरह भगवान्‌ शिव ने उस लड़की के सुहाग को जिन्दा किया। उसी प्रकार
भगवान्‌ शिव सब का भला करें और सब को मन वांछित फल प्रदान करें।

ॐ नमः शिवाय: ||