Thursday, January 25, 2024

दीनन दुख हरन देव

 दीनन दुख हरन देव

दीनन दुख हरन देव

दीनन दुख हरन देव

संतन हितकारी

अजामील गीध व्याध

(अजामील गीध व्याध)

अजामील गीध व्याध

इनमें कहो कौन साध?

(अजामील गीध व्याध)

(इनमें कहो कौन साध?)

पंछी को पद पढ़ात

(पंछी को पद पढ़ात)

पंछी को पद पढ़ात

(पंछी को पद पढ़ात)

गनिका-सी तारी

दीनन दुख हरन देव

दीनन दुख हरन देव

संतन हितकारी

(दीनन दुख हरन देव)

ध्रुव के सर छत्र देत

(ध्रुव के सर छत्र देत)

प्रह्लाद को उबार देत

ध्रुव के सिर छत्र देत

(प्रह्लाद को उबार देत)

भगत हेत बाँध्यो सेत

(भगत हेत बाँध्यो सेत)

लंकपुरी जारी

दीनन दुख हरन देव

दीनन दुख हरन देव

संतन हितकारी

(दीनन दुख हरन देव)

गज को जब ग्राह ग्रस्यो

(गज को जब ग्राह ग्रस्यो)

दुस्सासन चीर खस्यो

(गज को जब ग्राह ग्रस्यो)

(दुस्सासन चीर खस्यो)

सभा बीच, "कृष्ण-कृष्ण"

(सभा बीच, "कृष्ण-कृष्ण")

"कृष्ण-कृष्ण", "कृष्ण-कृष्ण"

"कृष्ण-कृष्ण", "कृष्ण-कृष्ण"

("कृष्ण-कृष्ण", "कृष्ण-कृष्ण")

सभा बीच, "कृष्ण-कृष्ण"

(सभा बीच, "कृष्ण-कृष्ण")

द्रौपदी पुकारी

इतने हरि आए-गए

(इतने हरि आए-गए)

इतने हरि आए-गए

(इतने हरि आए-गए)

बसनन आरूढ़ भये

(इतने हरि आए-गए)

(बसनन आरूढ़ भये)

सूरदास द्वारे ठाढ़ो

(सूरदास द्वारे ठाढ़ो)

आँधरो भिखारी

संतन हितकारी

दीनन दुख हरन देव

दीनन दुख हरन देव

संतन हितकारी

संतन हितकारी

(दीनन दुख हरन देव) 

दीनन दुख हरन देव



Song :  दीनन दुख हरन देव
Singer : Jagjit Singh


कार्तिक माहात्म्य -05


अध्याय - 05

          

           राजा पृथु बोले – हे नारद जी! आपने कार्तिक मास में स्नान का फल कहा, अब अन्य मासों में विधिपूर्वक स्नान करने की विधि, नियम और उद्यापन की विधि भी बतलाइये।

          देवर्षि नारद ने कहा – हे राजन्! आप भगवान विष्णु के अंश से उत्पन्न हुए हैं, अत: यह बात आपको ज्ञात ही है फिर भी आपको यथाचित विधान बतलाता हूँ।

          आश्विन माह में शुक्लपक्ष की एकादशी से कार्तिक के व्रत करने चाहिए। ब्रह्ममुहूर्त में उठकर जल का पात्र लेकर गाँव से बाहर पूर्व अथवा उत्तर दिशा में जाना चाहिए। दिन में या सांयकाल में कान में जनेऊ चढ़ाकर पृथ्वी पर घास बिछाकर सिर को वस्त्र से ढककर मुंह को भली-भाँति बन्द कर के थूक व सांस को रोककर मल व मूत्र का त्याग करना चाहिए। तत्पश्चात मिट्टी व जल से भली-भाँति अपने गुप्ताँगों को धोना चाहिए। उसके बाद जो मनुष्य मुख शुद्धि नहीं करता, उसे किसी भी मन्त्र का फल प्राप्त नहीं होता है। अत: दाँत और जीभ को पूर्ण रूप से शुद्ध करना चाहिए और निम्नलिखित मन्त्र का उच्चारण करते हुए दातुन तोड़नी चाहिए।

          ‘हे वनस्पतये! आप मुझे आयु, कीर्ति, तेज, प्रज्ञा, पशु, सम्पत्ति, महाज्ञान, बुद्धि और विद्या प्रदान करो’। इस प्रकार उच्चारण करके वृक्ष से बारह अंगुल की दांतुन ले, दूध वाले वृक्षों से दांतुन नहीं लेनी चाहिए। इसी प्रकार कपास, कांटेदार वृक्ष तथा जले हुए वृक्ष से भी दांतुन लेना मना है। जिससे उत्तम गन्ध आती हो और जिसकी टहनी कोमल हो, ऎसे ही वृक्ष से दन्तधावन ग्रहण करना चाहिए।

          प्रतिपदा, अमावस्या, नवमी, छठी, रविवार को, चन्द्र तथा सूर्यग्रहण में दांतुन नहीं करनी चाहिए। तत्पश्चात भली-भाँति स्नान कर के फूलमाला, चन्दन और पान आदि पूजा की सामग्री लेकर प्रसन्नचित्त व भक्तिपूर्वक शिवालय में जाकर सभी देवी-देवताओं की अर्ध्य, आचमनीय आदि वस्तुओं से पृथक-पृथक पूजा करके प्रार्थना एवं प्रणाम करना चाहिए फिर भक्तों के स्वर में स्वर मिलाकर श्रीहरि का कीर्तन करना चाहिए।

          मन्दिर में जो गायक भगवान श्रीहरि का कीर्तन करने आये हों उनका माला, चन्दन, ताम्बूल आदि से पूजन करना चाहिए क्योंकि देवालयों में भगवान विष्णु को अपनी तपस्या, योग और दान द्वारा प्रसन्न करते थे परन्तु कलयुग में भगवद गुणगान को ही भगवान श्रीहरि को प्रसन्न करने का एकमात्र साधन माना गया है।

          नारद जी राजा पृथु से बोले – हे राजन! एक बार मैंने भगवान से पूछा कि हे प्रभु! आप सबसे अधिक कहां निवास करते हैं? इसका उत्तर देते हुए भगवान ने कहा – हे नारद! मैं वैकुण्ठ या योगियों के हृदय में ही निवास नहीं करता अपितु जहां मेरे भक्त मेरा कीर्तन करते हैं, मैं वहां अवश्य निवास करता हूँ। जो मनुष्य चन्दन, माला आदि से मेरे भक्तों का पूजन करते हैं उनसे मेरी ऎसी प्रीति होती है जैसी कि मेरे पूजन से भी नहीं हो सकती।

          नारद जी ने फिर कहा – शिरीष, धतूरा, गिरजा, चमेली, केसर, कन्दार और कटहल के फूलों व चावलों से भगवान विष्णु की पूजा नहीं करनी चाहिए। अढ़हल,कन्द, गिरीष, जूही, मालती और केवड़ा के पुष्पों से भगवान शंकर की पूजा नहीं करनी चाहिए। जिन देवताओं की पूजा में जो फूल निर्दिष्ट हैं उन्हीं से उनका पूजन करना चाहिए। पूजन समाप्ति के बाद भगवान से क्षमा प्रार्थना करनी चाहिए। यथा – ‘हे सुरेश्वर, हे देव! न मैं मन्त्र जानता हूँ, न क्रिया, मैं भक्ति से भी हीन हूँ, मैंने जो कुछ भी आपकी पूजा की है उसे पूरा करें’।

          ऎसी प्रार्थना करने के पश्चात साष्टांग प्रणाम कर के भगवद कीर्तन करना चाहिए। श्रीहरि की कथा सुननी चाहिए और प्रसाद ग्रहण करना चाहिए।

          जो मनुष्य उपरोक्त विधि के अनुसार कार्तिक व्रत का अनुष्ठान करते हैं वह जगत के सभी सुखों को भोगते हुए अन्त में मुक्ति को प्राप्त करते हैं।



🚩जय श्रीराधे कृष्णा🚩