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Friday, October 11, 2024

कार्तिक माहात्म्य --35


अध्याय–35 (अन्तिम)

          

          इतनी कथा सुनकर सभी ऋषि सूतजी से बोले–‘हे सूतजी! अब आप हमें तुलसी विवाह की विधि बताइए।’ 

          सूतजी बोले–‘कार्तिक शुक्ला नवमी को द्वापर युग का आरम्भ हुआ है। अत: यह तिथि दान और उपवास में क्रमश: पूर्वाह्नव्यापिनी तथा पराह्नव्यापिनी हो तो ग्राह्य है। इस तिथि को, नवमी से एकादशी तक, मनुष्य शास्त्रोक्त विधि से तुलसी के विवाह का उत्सव करे तो उसे कन्यादान का फल प्राप्त होता है। पूर्वकाल में कनक की पुत्री किशोरी ने एकादशी तिथि में सन्ध्या के समय तुलसी की वैवाहिक विधि सम्पन्न की। इससे वह किशोरी वैधव्य दोष से मुक्त हो गई।

          अब मैं उसकी विधि बतलाता हूँ–एक तोला सुवर्ण की भगवान विष्णु की सुन्दर प्रतिमा तैयार कराए अथवा अपनी शक्ति के अनुसार आधे या चौथाई तोले की ही प्रतिमा बनवा ले, फिर तुलसी और भगवान विष्णु की प्रतिमा में प्राण-प्रतिष्ठा कर के षोडशोपचार से पूजा करें। पहले देश-काल का स्मरण कर के गणेश पूजन करें फिर पुण्याहवाचन कराकर नान्दी श्राद्ध करें। तत्पश्चात वेद-मन्त्रों के उच्चारण और बाजे आदि की ध्वनि के साथ भगवान विष्णु की प्रतिमा को तुलसी जी के निकट लाकर रखें। प्रतिमा को वस्त्रों से आच्छादित करना चाहिए। उस समय भगवान का आवाहन करें–

          ‘भगवान केशव! आइए, देव! मैं आपकी पूजा करुंगा। आपकी सेवा में तुलसी को समर्पित करुंगा। आप मेरे सम्पूर्ण मनोरथों को पूर्ण करें।’

          इस प्रकार आवाहन के पश्चात तीन-तीन बार अर्ध्य, पाद्य और विष्टर का उच्चारण कर के इन्हें बारी-बारी से भगवान को समर्पित करें, फिर आचमनीय पद का तीन बार उच्चारण कर के भगवान को आचमन कराएँ। इसके बाद कांस्य के बर्तन में दही, घी और मधु(शहद) रखकर उसे कांस्य के पात्र से ही ढक दें तथा भगवान को अर्पण करते हुए इस प्रकार कहें–वासुदेव! आपको नमस्कार है, यह मधुपर्क (दही, घी तथा शहद के मिश्रण को मधुपर्क कहते हैं) ग्रहण कीजिए।

          तदनन्तर हरिद्रालेपन और अभ्यंग-कार्य सम्पन्न कर के गौधूलि की वेला में तुलसी और विष्णु का पूजन पृथक-पृथक करना चाहिए। दोनों को एक-दूसरे के सम्मुख रखकर मंगल पाठ करें। जब भगवान सूर्य कुछ-कुछ दिखाई देते हों तब कन्यादान का संकल्प करें। अपने गोत्र और प्रवर का उच्चारण कर के आदि की तीन पीढ़ियों का भी आवर्तन करें। 

          तत्पश्चात भगवान से इस प्रकार कहें–‘आदि, मध्य और अन्त से रहित त्रिभुवन-प्रतिपालक परमेश्वर! इस तुलसी दल को आप विवाह की विधि से ग्रहण करें। यह पार्वती के बीज से प्रकट हुई है, वृन्दा की भस्म में स्थित रही है तथा आदि, मध्य और अन्त से शून्य है, आपको तुलसी बहुत ही प्रिय है, अत: इसे मैं आपकी सेवा में अर्पित करता हूँ। मैंने जल के घड़ो से सींचकर और अन्य प्रकार की सेवाएँ कर के अपनी पुत्री की भाँति इसे पाला, पोसा और बढ़ाया है, आपकी प्रिया तुलसी मैं आपको दे रहा हूँ। प्रभो! आप इसे ग्रहण करें।’

          इस प्रकार तुलसी का दान कर के फिर उन दोनों अर्थात तुलसी और भगवान विष्णु की पूजा करें, विवाह का उत्सव मनाएँ। सुबह होने पर पुन: तुलसी और विष्णु जी का पूजन करें। अग्नि की स्थापना कर के उसमें द्वादशाक्षर मन्त्र से खीर, घी, मधु और तिलमिश्रित हवनीय द्रव्य की एक सौ आठ आहुति दें फिर ‘स्विष्टकृत’ होमक कर के पूर्णाहुति दें। उसके बाद भगवान से इस प्रकार प्रार्थना करें–‘हे प्रभो! आपकी प्रसन्नता के लिए मैंने यह व्रत किया है। जनार्दन इसमें जो न्यूनता हो वह आपके प्रसाद से पूर्णता को प्राप्त हो जाये।’

          यदि द्वादशी में रेवती का चौथा चरण बीत रहा हो तो उस समय पारण न करें। जो उस समय भी पारण करता है वह अपने व्रत को निष्फल कर देता है। भोजन के पश्चात तुलसी के स्वत: गलकर गिरे हुए पत्तों को खाकर मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है। भोजन के अन्त में ऊख, आंवला और बेर का फल खा लेने से उच्छिष्ट-दोष मिट जाता है।

          तदनन्तर भगवान का विसर्जन करते हुए कहे–‘भगवन! आप तुलसी के साथ वैकुण्ठधाम में पधारें। प्रभो! मेरे द्वारा की हुई पूजा ग्रहण करके आप सदैव सन्तुष्टि करें।’ इस प्रकार देवेश्वर विष्णु का विसर्जन कर के मूर्त्ति आदि सब सामग्री आचार्य को अर्पण करें। इससे मनुष्य कृतार्थ हो जाता है।

          यह विधि सुनाकर सूतजी ने ऋषियों से कहा–‘हे ऋषियों! इस प्रकार जो मनुष्य श्रद्धापूर्वक सत्य, शान्ति और सन्तोष को धारण करता है, भगवान विष्णु को तुलसीदल समर्पित करता है, उसके सभी पापों का नाश हो जाता है और वह संसार के सुखों को भोगकर अन्त में विष्णुलोक को प्राप्त करता है।

          हे ऋषिवरों! यह कार्तिक माहात्म्य सब रोगों और सम्पूर्ण पापों का नाश करने वाला है। जो मनुष्य इस माहात्म्य को भक्तिपूर्वक पढ़ता है और जो सुनकर धारण करता है वह सब पापों से मुक्त हो भगवान विष्णु के लोक में जाता है। सभी भक्तों ने पूरे महीने कार्तिक महात्म्य सुना ,दक्षिणा स्वरूप एक बार अपने ग्रुप पर जय श्रीराधे कृष्णा जरूर लिखें🙏जिसकी बुद्धि खोटी हो तथा जो श्रद्धा से हीन हो ऐसे किसी भी मनुष्य को यह माहात्म्य नहीं सुनाना चाहिए।

                         

 –:इति श्री कार्तिक मास माहात्म्य:–


🚩जय श्रीराधे कृष्णा🚩

Thursday, October 10, 2024

कार्तिक माहात्म्य -- 34


अध्याय–34

          

          ऋषियों ने पूछा–‘हे सूतजी! पीपल के वृक्ष की शनिवार के अलावा सप्ताह के शेष दिनों में पूजा क्यों नहीं की जाती ?

          सूतजी बोले–‘हे ऋषियों! समुद्र-मंथन करने से देवताओं को जो रत्न प्राप्त हुए, उनमें से देवताओं ने लक्ष्मी और कौस्तुभमणि भगवान विष्णु को समर्पित कर दी थी। जब भगवान विष्णु लक्ष्मी जी से विवाह करने के लिए तैयार हुए तो लक्ष्मी जी बोली–‘हे प्रभु! जब तक मेरी बड़ी बहन का विवाह नहीं हो जाता तब तक मैं छोटी बहन आपसे किस प्रकार विवाह कर सकती हूँ इसलिए आप पहले मेरी बड़ी बहन का विवाह करा दे, उसके बाद आप मुझसे विवाह कीजिए। यही नियम है जो प्राचीनकाल से चला आ रहा है।’

          सूतजी ने कहा–‘लक्ष्मी जी के मुख से ऐसे वचन सुनकर भगवान विष्णु ने लक्ष्मी जी की बड़ी बहन का विवाह उद्दालक ऋषि के साथ सम्पन्न करा दिया। लक्ष्मी जी की बड़ी बहन अलक्ष्मी जी बड़ी कुरुप थी, उसका मुख बड़ा, दाँत चमकते हुए, उसकी देह वृद्धा की भाँति, नेत्र बड़े-बड़े और बाल रुखे थे। (श्रीजी की चरण सेवा" की सभी धार्मिक, आध्यात्मिक एवं धारावाहिक पोस्टों के लिये हमारे पेज से जुड़े रहें) भगवान विष्णु द्वारा आग्रह किये जाने पर ऋषि उद्दालक उससे विवाह कर के उसे वेद मन्त्रों की ध्वनि से गुंजाते हुए अपने आश्रम ले आये। वेद ध्वनि से गुंजित हवन के पवित्र धुंए से सुगन्धित उस ऋषि के सुन्दर आश्रम को देखकर अलक्ष्मी को बहुत दु:ख हुआ। वह महर्षि उद्दालक से बोली–‘चूंकि इस आश्रम में वेद ध्वनि गूँज रही है इसलिए यह स्थान मेरे रहने योग्य नहीं है इसलिए आप मुझे यहाँ से अन्यत्र ले चलिए।’

          उसकी बात सुनकर महर्षि उद्दालक बोले–‘तुम यहाँ क्यों नहीं रह सकती और तुम्हारे रहने योग्य अन्य कौन सा स्थान है वह भी मुझे बताओ।’ अलक्ष्मी बोली–‘जिस स्थान पर वेद की ध्वनि होती हो, अतिथियों का आदर-सत्कार किया जाता हो, यज्ञ आदि होते हों, ऐसे स्थान पर मैं नहीं रह सकती। जिस स्थान पर पति-पत्नी आपस में प्रेम से रहते हों पितरों के निमित्त यज्ञ होते हों, देवताओं की पूजा होती हो, उस स्थान पर भी मैं नहीं रह सकती। जिस स्थान पर वेदों की ध्वनि न हो, अतिथियों का आदर-सत्कार न होता हो, यज्ञ न होते हों, पति-पत्नी आपस में क्लेश करते हों, पूज्य वृद्धो, सत्पुरुषों तथा मित्रों का अनादर होता हो, जहाँ दुराचारी, चोर, परस्त्रीगामी मनुष्य निवास करते हों, जिस स्थान पर गायों की हत्या की जाती हो, मद्यपान, ब्रह्महत्या आदि पाप होते हों, ऐसे स्थानों पर मैं प्रसन्नतापूर्वक निवास करती हूँ।’

          सूतजी बोले–‘अलक्ष्मी के मुख से इस प्रकार के वचन सुनकर उद्दालक का मन खिन्न हो गया। वह इस बात को सुनकर मौन हो गये। थोड़ी देर बाद वे बोले कि ‘ठीक है, मैं तुम्हारे लिए ऐसा स्थान ढूंढ दूँगा। जब तक मैं तुम्हारे लिए ऐसा स्थान न ढूंढ लूँ तब तक तुम इसी पीपल के नीचे चुपचाप बैठी रहना।’ महर्षि उद्दालक उसे पीपल के वृक्ष के नीचे बैठाकर उसके रहने योग्य स्थान की खोज में निकल पड़े परन्तु जब बहुत समय तक प्रतीक्षा करने पर भी वे वापिस नहीं लौटे तो अलक्ष्मी विलाप करने लगी। जब वैकुण्ठ में बैठी लक्ष्मी जी ने अपनी बहन अलक्ष्मी का विलाप सुना तो वे व्याकुल हो गई। वे दुखी होकर भगवान विष्णु से बोली–‘हे प्रभु! मेरी बड़ी बहन पति द्वारा त्यागे जाने पर अत्यन्त दुखी है। यदि मैं आपकी प्रिय पत्नी हूँ तो आप उसे आश्वासन देने के लिए उसके पास चलिए।’ लक्ष्मी जी की प्रार्थना पर भगवान विष्णु लक्ष्मी जी सहित उस पीपल के वृक्ष के पास गये जहाँ अलक्ष्मी बैठकर विलाप कर रही थी।

          उसको आश्वासन देते हुए भगवान विष्णु बोले–‘हे अलक्ष्मी! तुम इसी पीपल के वृक्ष की जड़ में सदैव के लिए निवास करो क्योंकि इसकी उत्पत्ति मेरे ही अंश से हुई है और इसमें सदैव मेरा ही निवास रहता है। प्रत्येक वर्ष गृहस्थ लोग तुम्हारी पूजा करेगें और उन्हीं के घर में तुम्हारी छोटी बहन का वास होगा। स्त्रियों को तुम्हारी पूजा विभिन्न उपहारों से करनी चाहिए। मनुष्यों को पुष्प, धूप, दीप, गन्ध आदि से तुम्हारी पूजा करनी चाहिए तभी तुम्हारी छोटी बहन लक्ष्मी उन पर प्रसन्न होगी।’

          सूतजी बोले–‘ऋषियों! मैंने आपको भगवान श्रीकृष्ण, सत्यभामा तथा पृथु-नारद का संवाद सुना दिया है जिसे सुनने से ही मनुष्य के समस्त पापों का नाश हो जाता है और अन्त में वैकुण्ठ को प्राप्त करता है। यदि अब भी आप लोग कुछ पूछना चाहते हैं तो अवश्य पूछिये, मैं उसे अवश्य कहूँगा।’

          सूतजी के वचन सुनकर शौनक आदि ऋषि थोड़ी देर तक प्रसन्नचित्त वहीं बैठे रहे, तत्पश्चात वे लोग बद्रीनारायण जी के दर्शन हेतु चल दिये। जो मनुष्य इस कथा को सुनता या सुनाता है उसे इस संसार में समस्त सुख प्राप्त होते हैं।

                   

🚩जय श्रीराधे कृष्णा🚩

Wednesday, October 9, 2024

कार्तिक माहात्म्य -- 33


अध्याय - 33

          

          सूतजी ने कहा – इस प्रकार अपनी अत्यन्त प्रिय सत्यभामा को यह कथा सुनाकर भगवान श्रीकृष्ण सन्ध्योपासना करने के लिए माता के घर में गये। यह कार्तिक मास का व्रत भगवान विष्णु को अतिप्रिय है तथा भक्ति प्रदान करने वाला है। 1) रात्रि जागरण, 2) प्रात:काल का स्नान, 3) तुलसी वट सिंचन, 4) उद्यापन और 5) दीपदान – यह पाँच कर्म भगवान विष्णु को प्रसन्न करने वाले हैं इसलिए इनका पालन अवश्य करना चाहिए।

          ऋषि बोले – भगवान विष्णु को प्रिय, अधिक फल की प्राप्ति कराने वाले, शरीर के प्रत्येक अंग को प्रसन्न करने वाले कार्तिक माहत्म्य आपने हमें बताया। यह मोक्ष की कामना करने वालो अथवा भोग की इच्छा रखने वाले मनुष्यों को यह व्रत अवश्य ही करना चाहिए। इसके अतिरिक्त हम आपसे एक बात पूछना चाहते हैं कि यदि कार्तिक मास का व्रत करने वाला मनुष्य किसी संकट में फंस जाये या वह किसी वन में हो या व्रती किसी रोग से ग्रस्त हो जाये तो उस मनुष्य को कार्तिक व्रत को किस प्रकार करना चाहिए? क्योंकि कार्तिक व्रत भगवान विष्णु को अत्यन्त प्रिय है और इसे करने से मुक्ति एवं भक्ति प्राप्त होती है इसलिए इसे छोड़ना नहीं चाहिए।

          श्रीसूतजी ने इसका उत्तर देते हुए कहा – यदि कार्तिक का व्रत करने वाला मनुष्य किसी संकट में फंस जाये तो वह हिम्मत करके भगवान शंकर या भगवान विष्णु के मन्दिर, जो भी पास हो उसमें जाकर रात्रि जागरण करे। यदि व्रती घने वन में फंस जाये तो फिर पीपल के वृक्ष के नीचे या तुलसी के वन में जाकर जागरण करे। भगवान विष्णु की प्रतिमा के सामने बैठकर विष्णुजी का कीर्तन करे। ऎसा करने से सहस्त्रों गायों के दान के समान फल की प्राप्ति होती है। जो मनुष्य विष्णुजी के कीर्तन में बाजा बजाता है उसे वाजपेय यज्ञ के समान फल की प्राप्ति होती है और हरि कीर्तन में नृत्य करने वाले मनुष्यों को सभी तीर्थों में स्नान करने का फल प्राप्त होता है। किसी संकट के समय या रोगी हो जाने और जल न मिल पाने की स्थिति में केवल भगवान विष्णु के नाममात्र से मार्जन ही कर लें।

          यदि उद्यापन न कर सके तो व्रत की पूर्त्ति के लिए केवल ब्राह्मणों के प्रसन्न होने के कारण विष्णुजी प्रसन्न रहते हैं। यदि मनुष्य दीपदान करने में असमर्थ हो तो दूसरे की दीप की वायु आदि से भली-भांति रक्षा करे। यदि तुलसी का पौधा समीप न हो तो वैष्णव ब्राह्मण की ही पूजा कर ले क्योंकि भगवान विष्णु सदैव अपने भक्तों के समीप रहते हैं। इन सबके न होने पर कार्तिक का व्रत करने वाला मनुष्य ब्राह्मण, गौ, पीपल और वटव्रक्ष की श्रद्धापूर्वक सेवा करे।

          शौनक आदि ऋषि बोले – आपने गौ तथा ब्राह्मणों के समान पीपल और वट वृक्षों को बताया है और सभी वृक्षों में पीपल तथा वट वृक्ष को ही श्रेष्ठ कहा है, इसका कारण बताइए।

          सूतजी बोले – पीपल भगवान विष्णु का और वट भगवान शंकर का स्वरूप है। पलाश ब्रह्माजी के अंश से उत्पन्न हुआ है। जो कार्तिक मास में उसके पत्तल में भोजन करता है वह भगवान विष्णु के लोक में जाता है। जो इन वृक्षों की पूजा, सेवा एवं दर्शन करते हैं उनके सभी पाप नष्ट हो जाते हैं।

          ऋषियों ने पूछा – हे प्रभु! हम लोगों के मन में एक शंका है कि ब्रह्मा, विष्णु और शंकर वृक्ष स्वरुप क्यों हुए? कृपया आप हमारी इस शंका का निवारण कीजिए।

          सूतजी बोले – प्राचीनकाल में भगवान शिव तथा माता पार्वती विहार कर रहे थे। उस समय उनके विहार में विघ्न उपस्थित करने के उद्देश्य से अग्निदेव ब्राह्मण का रुप धारण करके वहाँ पहुँचे। विहार के आनन्द के वशीभूत हो जाने के कारण कुपित होकर माता पार्वती ने सभी देवताओं को शाप दे दिया।

          माता पार्वती ने कहा – हे देवताओं! विषयसुख से कीट-पतंगे तक अनभिज्ञ नहीं है। आप लोगों ने देवता होकर भी उसमें विघ्न उपस्थित किया है इसलिए आप सभी वृक्ष बन जाओ।

          सूतजी बोले – इस प्रकार कुपित पार्वती जी के शाप के कारण समस्त देवता वृक्ष बन गये। यही कारण है कि भगवान विष्णु पीपल और शिवजी वट वृक्ष हो गये। इसलिए भगवान विष्णु का शनिदेव के साथ योग होने के कारण केवल शनिवार को ही पीपल को छूना चाहिए अन्य किसी भी दिन नहीं छूना चाहिए।


🚩जय श्रीराधे कृष्णा🚩

Tuesday, October 8, 2024

कार्तिक माहात्म्य --32

 

अध्याय - 32

          

          भगवान श्रीकृष्ण ने आगे कहा – हे प्रिये! यमराज की आज्ञा शिरोधार्य करते हुए प्रेतपति धनेश्वर को नरकों के समीप ले गया और उसे दिखाते हुए कहने लगा – हे धनेश्वर! महान भय देने वाले इन नरकों की ओर दृष्टि डालो। इनमें पापी पुरुष सदैव दूतों द्वारा पकाए जाते हैं। यह देखो यह तप्तवाचुक नामक नरक है जिसमें देह जलने के कारण पापी विलाप कर रहे हैं। जो मनुष्य भोजन के समय भूखों को भोजन नहीं देता वह बार-बार इस नरक में डाले जाते हैं। वह प्राणी, जो गुरु, अग्नि, ब्राह्मण, गौ, वेद और राजा – इनको लात मारता है वह भयंकर नरक अतिशय पापों के करने पर मिलते हैं।

          आगे देखो यह दूसरा नरक है जिसका नाम अन्धतामिस्र है। इन पापियों को सुई की भांति मुख वाले तमोत नामक कीड़े काट रहे हैं। इस नरक में दूसरों का दिल दुखाने वाले पापी गिराये जाते हैं।

          यह तीसरा नरक है जिसका नाम क्रकेय है। इस नरक में पापियों को आरे से चीरा जाता है। यह नरक भी असिमत्रवण आदि भेदों से छ: प्रकार का होता है। इसमें स्त्री तथा पुत्रों के वियोग कराने वाले मनुष्यों को कड़ाही में पकाया जाता है। दो प्रियजनों को दूर करने वाले मनुष्य भी असिमत्र नामक नरक में तलवार की धार से काटे जाते हैं और कुछ भेड़ियों के डर से भाग जाते हैं।

          अब अर्गल नामक यह चौथा नरक देखो। इसमें पापी विभिन्न प्रकार से चिल्लाते हुए इधर-उधर भाग रहे हैं। यह नरक भी वध आदि भेदों से छ: प्रकार का है। अब तुम यह पांचवाँ नरक देखो जिसका नाम कूटशाल्मलि है। इसमें अंगारों की तरह कष्ट देने वाले बड़े-बड़े कांटे लगे हैं। यह नरक भी यातना आदि भेदों से छ: प्रकार का है। इस नरक में परस्त्री गमन करने वाले मनुष्य डाले जाते हैं।

          अब तुम यह छठा नरक देखो। उल्वण नामक नरक में सिर नीचे कर के पापियों को लटकाया जाता है। जो लोग भक्ष्याभक्ष्य का विचार नहीं करते दूसरों की निन्दा और चुगली करते हैं वे इस नरक में डाले जाते हैं। दुर्गन्ध भेद से यह नरक भी छ: प्रकार का है।

          यह सातवाँ नरक है जिसका नाम कुम्भीपाक है। यह अत्यन्त भयंकर है और यह भी छ: प्रकार का है। इसमें महापातकी मनुष्यों को पकाया जाता है, इस नरक में सहस्त्रों वर्षों तक यातना भोगनी पड़ती है जो पाप इच्छारहित किये जाते हैं वह सूखे और जो पाप इच्छापूर्वक किये जाते हैं वह पाप आर्द्र कहलाते हैं। इस प्रकार शुष्क और आर्द्र भेदों से यह पाप दो प्रकार के होते हैं। इसके अलावा और भी अलग-अलग चौरासी प्रकार के पाप है। 1) अपक्रीण, 2) पाडाकतेय, 3) मलिनीकर्ण, 4) जातिभ्रंशकर्ण, 5) उपाय, 6) अतिपाप, 7) महापाप – यह सात प्रकार के पातक हैं। जो मनुष्य जैसा कर्म करता है उसे इन सातों नरकों में उसके पाप कर्मों के अनुसार पकाया जाता है। चूंकि तुम्हें कार्तिक व्रत करने वाले प्रभु भक्तों का संसर्ग प्राप्त हुआ था उससे पुण्य की वृद्धि हो जाने के कारण ये सभी नरक तुम्हारे लिए निश्चय ही नष्ट हो गये हैं।

          इस प्रकार धनेश्वर को नरकों का दर्शन कराकर प्रेतराज उसे यक्षलोक में ले गये। वहाँ जाकर उसे वहाँ का राजा बना दिया। वही कुबेर का अनुचर ‘धनक्षय’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। बाद में महर्षि विश्वामित्र ने उसके नाम पर तीर्थ बनाया था।

          कार्तिक मास का व्रत महाफल देने वाला है, इसके समतुल्य अन्य कोई दूसरा पुण्य कर्म नहीं है। जो भी मनुष्य इस व्रत को करता है तथा व्रत करने वाले का दर्शन करता है उसे मोक्ष की प्राप्ति है।


🚩जय श्रीराधे कृष्णा🚩

Monday, October 7, 2024

कार्तिक माहात्म्य --31


अध्याय - 31

          

          भगवान श्रीकृष्ण ने कहा – पूर्वकाल में अवन्तिपुरी (उज्जैन)में धनेश्वर नामक एक ब्राह्मण रहता था।वह रस, चमड़ा और कम्बल आदि का व्यापार करता था। वह वैश्यागामी और मद्यपान आदि बुरे कर्मों में लिप्त रहता था। चूंकि वह रात-दिन पाप में रत रहता था इसलिए वह व्यापार करने नगर-नगर घूमता था। एक दिन वह क्रय-विक्रय के कार्य से घूमता हुआ महिष्मतीपुरी में जा पहुंचा जो राजा महिष ने बसाई थी। वहाँ पापनाशिनी नर्मदा सदैव शोभा पाती है। उस नदी के किनारे कार्तिक का व्रत करने वाले बहुत से मनुष्य अनेक गाँवों से स्नान करने के लिए आये हुए थे। धनेश्वर ने उन सबको देखा और अपना सामान बेचता हुआ वह भी एक मास तक वहीं रहा।

          वह अपने माल को बेचता हुआ नर्मदा नदी के तट पर घूमता हुआ स्नान, जप और देवार्चन में लगे हुए ब्राह्मणों को देखता और वैष्णवों के मुख से भगवान विष्णु के नामों का कीर्तन सुनता था। वह वहाँ रहकर उनको स्पर्श करता रहा, उनसे बातचीत करता रहा। वह कार्तिक के व्रत की उद्यापन विधि तथा जागरण भी देखता रहा। उसने पूर्णिमा के व्रत को भी देखा कि व्रती ब्राह्मणों तथा गऊओं को भोजन करा रहे हैं, उनको दक्षिणा आदि भी दे रहे हैं। उसने नित्य प्रति भगवान शंकर की प्रसन्नता के लिए होती दीपमाला भी देखी।

          त्रिपुर नामक राक्षस के तीनों पुरों को भगवान शिव ने इसी तिथि को जलाया था इसलिए शिवजी के भक्त इस तिथि को दीप-उत्सव मनाते हैं। जो मनुष्य मुझमें और शिवजी में भेद करता है, उसकी समस्त क्रियाएँ निष्फल हो जाती हैं। इस प्रकार नर्मदा तट पर रहते हुए जब उसको एक माह व्यतीत हो गया तो एक दिन अचानक उसे किसी काले साँप ने डस लिया। इससे विह्वल होकर वह भूमि पर गिर पड़ा। उसकी यह दशा देखकर वहाँ के दयालु भक्तों ने उसे चारों ओर से घेर लिया और उसके मुँह पर तुलसीदल मिश्रित जल के छींटे देने लगे। जब उसके प्राण निकल गये तब यमदूतों ने आकर उसे बाँध लिया और कोड़े बरसाते हुए उसे यमपुरी ले गये।

          उसे देखकर चित्रगुप्त ने यमराज से कहा – इसने बाल्यावस्था से लेकर आज तक केवल बुरे कार्य ही हैं इसके जीवन में तो पुण्य का लेशमात्र भी दृष्टिगोचर नहीं होता। यदि मैं पूरे एक वर्ष तक भी आपको सुनाता रहूँ तो भी इसके पापों की सूची समाप्त नहीं होगी।

यह महापापी है इसलिए इसको एक कल्प तक घोर नरक में डालना चाहिए। चित्रगुप्त की बात सुनकर यमराज ने कुपित होकर कालनेमि के समान अपना भयंकर रुप दिखाते हुए अपने अनुचरों को आज्ञा देते हुए कहा – हे प्रेत सेनापतियों! इस दुष्ट को मुगदरों से मारते हुए कुम्भीपाक नरक में डाल दो।

          सेनापतियों ने मुगदरों से उसका सिर फोड़ते हुए कुम्भीपाक नरक में ले जाकर खौलते हुए तेल के कड़ाहे में डाल दिया। प्रेत सेनापतियों ने उसे जैसे ही तेल के कड़ाहे में डाला, वैसे ही वहाँ का कुण्ड शीतल हो गया ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार पूर्वकाल में प्रह्लादजी को डालने से दैत्यों की जलाई हुई आग ठण्डी हो गई थी। यह विचित्र घटना देखकर प्रेत सेनापति यमराज के पास गये और उनसे सारा वृत्तान्त कहा।

          सारी बात सुनकर यमराज भी आश्चर्यचकित हो गये और इस विषय में पूछताछ करने लगे। उसी समय नारदजी वहाँ आये और यमराज से कहने लगे – सूर्यनन्दन! यह ब्राह्मण नरकों का उपभोग करने योग्य नही है। जो मनुष्य पुण्य कर्म करने वाले लोगों का दर्शन, स्पर्श और उनके साथ वार्तालाप करता है, वह उनके पुण्य का छठवाँ अंश प्राप्त कर लेता है। यह धनेश्वर तो एक मास तक श्रीहरि के कार्तिक व्रत का अनुष्ठान करने वाले असंख्य मनुष्यों के सम्पर्क में रहा है। अत: यह उन सबके पुण्यांश का भागी हुआ है। इसको अनिच्छा से पुण्य प्राप्त हुआ है इसलिए यह यक्ष की योनि में रहे और पाप भोग के रुप में सब नरक का दर्शन मात्र कर के ही यम यातना से मुक्त हो जाए।

          भगवान श्रीकृष्ण ने कहा – सत्यभामा! नारदजी के इस प्रकार कहकर चले जाने के पश्चात धनेश्वर को पुण्यात्मा समझते हुए यमराज ने दूतों को उसे नरक दिखाने की आज्ञा दी।


🚩जय श्रीराधे कृष्णा🚩

Sunday, October 6, 2024

कार्तिक माहात्म्य--30


अध्याय - 30


                    भगवान श्रीकृष्ण सत्यभामा से बोले – हे प्रिये! नारदजी के यह वचन सुनकर महाराजा पृथु बहुत आश्चर्यचकित हुए। अन्त में उन्होंने नारदजी का पूजन करके उनको विदा किया। इसीलिए माघ, कार्तिक और एकादशी – यह तीन व्रत मुझे अत्यधिक प्रिय हैं। वनस्पतियों में तुलसी, महीनों में कार्तिक, तिथियों में एकादशी और क्षेत्रों में प्रयाग मुझे बहुत प्रिय हैं। जो मनुष्य इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर इनका सेवन करता है वह मुझे यज्ञ करने वाले मनुष्य से भी अधिक प्रिय है। जो मनुष्य विधिपूर्वक इनकी सेवा करते हैं, मेरी कृपा से उन्हें समस्त पापों से छुटकारा मिल जाता है।

          भगवान श्रीकृष्ण के वचन सुनकर सत्यभामा ने कहा – हे प्रभो! आपने बहुत ही अद्भुत बात कही है कि दूसरे के लिए पुण्य के फल से कलहा की मुक्ति हो गयी। यह प्रभावशाली कार्तिक मास आपको अधिक प्रिय है जिससे पतिद्रोह का पाप केवल स्नान के पुण्य से ही नष्ट हो गया। दूसरे मनुष्य द्वारा किया हुआ पुण्य उसके देने से किस प्रकार मिल जाता है, यह आप मुझे बताने की कृपा करें।

          श्रीकृष्ण भगवान बोले – प्रिये! जिस कर्म द्वारा बिना दिया हुआ पुण्य और पाप मिलता है उसे ध्यानपूर्वक सुनो।

          सतयुग में देश, ग्राम तथा कुलों को दिया पुण्य या पाप मिलता था किन्तु कलियुग में केवल कर्त्ता को ही पाप तथा पुण्य का फल भोगना पड़ता है। संसर्ग न करने पर भी वह व्यवस्था की गई है और संसर्ग से पाप व पुण्य दूसरे को मिलते हैं, उसकी व्यवस्था भी सुनो।

          पढ़ाना, यज्ञ कराना और एक साथ भोजन करने से पाप-पुण्य का आधा फल मिलता है। एक आसन पर बैठने तथा सवारी पर चढ़ने से, श्वास के आने-जाने से पुण्य व पाप का चौथा भाग जीवमात्र को मिलता है। छूने से, भोजन करने से और दूसरे की स्तुति करने से पुण्य और पाप का छठवाँ भाग मिलता है। दूसरे की निन्दा, चुगली और धिक्कार करने से उसका सातवाँ भाग मिलता है। पुण्य करने वाले मनुष्यों की जो कोई सेवा करता है वह सेवा का भाग लेता है और अपना पुण्य उसे देता है।

          नौकर और शिष्य के अतिरिक्त जो मनुष्य दूसरे से सेवा करवाकर उसे पैसे नहीं देता, वह सेवक उसके पुण्य का भागी होता है। जो व्यक्ति पंक्ति में बैठे हुए भोजन करने वालों की पत्तल लांघता है, वह उसे(जिसकी पत्तल उसने लांघी है) अपने पुण्य का छठवाँ भाग देता है। स्नान तथा ध्यान आदि करते हुए मनुष्य से जो व्यक्ति बातचीत करता है या उसे छूता है, वह अपने पुण्य का छठवाँ भाग दे डालता है।

          जो मनुष्य धर्म के कार्य के लिए दूसरों से धन मांगता है, वह पुण्य का भागी होता है। ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार कि दान करने वाला पुण्य का भागी होता है। जो मनुष्य धर्म का उपदेश करता है और उसके बाद सुनने वाले से याचना करता है, वह अपने पुण्य का छठवाँ भाग उसे दे देता है। जो मनुष्य दूसरों का धन चुराकर उससे धर्म करता है, वह चोरी का फल भोगता है और शीघ्र ही निर्धन हो जाता है और जिसका धन चुराता है, वह पुण्य का भागी होता है।

          बिना ऋण उतारे जो मनुष्य मृत्यु को प्राप्त होता है, उनको ऋण देने वाले सज्जन पुरुष पुण्य के भागी होते हैं। शिक्षा देने वाला, सलाह देने वाला, सामग्री को जुटाने वाला तथा प्रेरणा देने वाला, यह पाप और पुण्य के छठे भाग को प्राप्त करते हैं। राजा प्रजा के पाप-पुण्य के षष्ठांश का भोगी होता है, गुरु शिष्यों का, पति पत्नी का, पिता पुत्र का, स्त्री पति के लिए पुण्य का छठा भाग पाती है। पति को प्रसन्न करने वाली आज्ञाकारी स्त्री पति के लिए पुण्य का आधा भाग ले लेती है।

          जो पुण्यात्मा पराये लोगों को दान करते हैं, वह उनके पुण्य का छठा भाग प्राप्त करते हैं। जीविका देने वाला मनुष्य जीविका ग्रहण करने वाले मनुष्य के पुण्य के छठे भाग को प्राप्त करता है। इस प्रकार दूसरों के लिए पुण्य अथवा पाप बिना दिये भी दूसरे को मिल सकते हैं किन्तु यह नियम जो कि मैंने बतलाये हैं, ये कलियुग में लागू नहीं होते। कलियुग में तो एकमात्र कर्त्ता को ही अपने पाप व पुण्य भोगने पड़ते हैं। इस संबंध में एक बड़ा पुराना इतिहास है जो कि पवित्र भी है और बुद्धि प्रदान करने वाला कहा जाता है, उसे ध्यानपूर्वक सुनो –

       (यह इतिहास 31वें अध्याय में बताया जाएगा।)


🚩जय श्रीराधे कृष्णा🚩

Saturday, October 5, 2024

कार्तिक माहात्म्य --29


अध्याय - 29

          

          राजा पृथु ने कहा – हे मुनिश्रेष्ठ! आपने कलहा द्वारा मुक्ति पाये जाने का वृत्तान्त मुझसे कहा जिसे मैंने ध्यानपूर्वक सुना। हे नारदजी! यह काम उन दो नदियों के प्रभाव से हुआ था, कृपया यह मुझे बताने की कृपा कीजिए।

          नारद जी बोले – हे राजन! कृष्णा नदी साक्षात भगवान श्रीकृष्ण महाराज का शरीर और वेणी नामक नदी भगवान शंकर का शरीर है। इन दोनों नदियों के संगम का माहात्म्य श्रीब्रह्माजी भी वर्णन करने में समर्थ नहीं है फिर भी चूंकि आपने पूछा है इसलिए आपको इनकी उत्पत्ति का वृत्तान्त सुनाता हूँ ध्यानपूर्वक सुनो –

          चाक्षसु मन्वन्तर के आरम्भ में ब्रह्माजी ने सह्य पर्वत के शिखर पर यज्ञ करने का निश्चय किया। वह भगवान विष्णु, भगवान शंकर तथा समस्त देवताओं सहित यज्ञ की सामग्री लेकर उस पर्वत के शिखर पर गये। महर्षि भृगु आदि ऋषियों ने ब्रह्ममुहूर्त में उन्हें दीक्षा देने का विचार किया। तत्पश्चात भगवान विष्णु ने ब्रह्माजी की भार्या त्वरा को बुलवाया। वह बड़ी धीमी गति से आ रही थी। इसी बीच में भृगु जी ने भगवान विष्णु से पूछा – हे प्रभु! आपने त्वरा को शीघ्रता से बुलाया था, वह क्यों नहीं आई? ब्रह्ममुहूर्त निकल जाएगा।

          इस पर भगवान विष्णु बोले – यदि त्वरा यथासमय यहाँ नहीं आती है तो आप गायत्री को ही स्त्री मानकर दीक्षा विधान कर दीजिएगा। क्या गायत्री पुण्य कर्म में ब्रह्माजी की स्त्री नहीं हो सकती?

          नारदजी ने कहा – हे राजन! भगवान विष्णु की इस बात का समर्थन भगवान शंकर जी ने भी किया। यह बात सुनकर भृगुजी ने गायत्री को ही ब्रह्माजी के दायीं ओर बिठाकर दी़क्षा विधान आरंभ कर दिया। जिस समय ऋषिमण्डल गायत्री को दीक्षा देने लगा, उसी समय त्वरा भी यज्ञमण्डल में आ पहुँची।

          ब्रह्माजी के दायीं ओर गायत्री को बैठा देखकर ईर्ष्या से कुपित होकर त्वरा बोली – जहाँ अपूज्यों की पूजा और पूज्यों की अप्रतिष्ठा होती है वहाँ पर दुर्भिक्ष, मृत्यु तथा भय तीनों अवश्य हुआ करते हैं। यह गायत्री ब्रह्माजी की दायीं ओर मेरे स्थान पर विराजमान हुई है इसलिए यह अदृश्य बहने वाली नदी होगी। आप सभी देवताओं ने बिना विचारे इसे मेरे स्थान पर बिठाया है इसलिए आप सभी जड़ रूप नदियाँ होगें।

          नारदजी राजा पृथु से बोले – हे राजन! इस प्रकार त्वरा के शाप को सुनकर गायत्री क्रोध से आग-बबूला होकर अपने होठ चबाने लगी। देवताओं के मना करने पर भी उसने उठकर त्वरा को शाप दे दिया। गायत्री बोली – त्वरा! जिस प्रकार ब्रह्माजी तुम्हारे पति हैं उसी प्रकार मेरे भी पति हैं। तुमने व्यर्थ ही शाप दे दिया है इसलिए तुम भी नदी हो जाओ तब देवताओं में खलबली मच गई। सभी देवता त्वरा को साष्टांग प्रणाम कर के बोले – हे देवि! तुमने ब्रह्मा आदि समस्त देवताओं को जो शाप दिया है वह उचित नहीं है क्योंकि यदि हम सब जड़ रुप नदियाँ हो जाएंगे तो फिर निश्चय ही यह तीनों लोक नहीं बच पाएंगे। चूंकि यह शाप तुमने बिना विचार किए दिया है इसलिए यह शाप तुम वापिस ले लो।

          त्वरा बोली – हे देवगण! आपके द्वारा यज्ञ के आरम्भ में गणेश पूजन न किये जाने के कारण ही यह विघ्न उत्पन्न हुआ है। मेरा यह शाप कदापि खाली नहीं जा सकता इसलिए आप सभी अपने अंगों से जड़ीभूत होकर अवश्यमेव नदियाँ बनोगे। हम दोनों सौतने भी अपने-अपने वंशों पश्चिम में बहने वाली नदियाँ बनेगी।

          नारदजी राजा पृथु से बोले – हे राजन! त्वरा के यह वचन सुनकर भगवान विष्णु, शंकर आदि सभी देवता अपने-अपने अंशों से नदियाँ बन गये। भगवान विष्णु के अंश से कृष्णा, भगवान शंकर के अंश से वेणी तथा ब्रह्माजी के अंश से ककुदमवती नामक नदियाँ उत्पन्न हो गई। समस्त देवताओं ने अपने अंशों को जड़ बनाकर वहीं सह्य पर्वत पर फेंक दिया। फिर उन लोगों के अंश पृथक-पृथक नदियों के रूप में बहने लगे। देवताओं के अंशों से सहस्त्रों की संख्या में पश्चिम की ओर बहने वाली नदियाँ उत्पन्न हो गई। गायत्री और त्वरा दोनों पश्चिम की ओर बहने वाली नदियाँ होकर एक साथ बहने लगी, उन दोनों का नाम सावित्री पड़ा।

          ब्रह्माजी ने यज्ञ स्थान पर भगवान विष्णु तथा भगवान शंकर की स्थापना की। दोनों देवता महाबल तथा अतिबल के नाम से प्रसिद्ध हुए। हे राजन! कृष्णा और वेणी नदी की उत्पत्ति का यह वर्णन जो भी मनुष्य सुनेगा या सुनायेगा, उसे नदियों के दर्शन और स्नान का फल प्राप्त होगा।


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Friday, October 4, 2024

कार्तिक माहात्म्य --28


अध्याय - 28

          

          धर्मदत्त ने पूछा – मैंने सुना है कि जय और विजय भी भगवान विष्णु के द्वारपाल हैं। उन्होंने पूर्वजन्म में ऎसा कौन सा पुण्य किया था जिससे वे भगवान के समान रूप धारण कर के वैकुण्ठधाम के द्वारपाल हुए?

          दोनों पार्षदों ने कहा – ब्रह्मन! पूर्वकाल में तृणविन्दु की कन्या देवहूति के गर्भ से महर्षि कर्दम की दृष्टिमात्र से दो पुत्र उत्पन्न हुए। उनमें से बड़े का नाम जय और छोटे का नाम विजय हुआ। पीछे उसी देवहूति के गर्भ से योगधर्म के जानने वाले भगवान कपिल उत्पन्न हुए। जय और विजय सदा भगवान की भक्ति में तत्पर रहते थे। वे नित्य अष्टाक्षर मन्त्र का जप और वैष्णव व्रतों का पालन करते थे। एक समय राजा मरुत्त ने उन दोनों को अपने यज्ञ में बुलाया। वहां जय ब्रह्मा बनाए गए और विजय आचार्य। उन्होंने यज्ञ की सम्पूर्ण विधि पूर्ण की। यज्ञ के अन्त में अवभृथस्थान के पश्चात राजा मरुत्त ने उन दोनों को बहुत धन दिया।

          धन लेकर दोनों भाई अपने आश्रम पर गये। वहाँ उस धन का विभाग करते समय दोनों में परस्पर लाग-डाँट पैदा हो गई। जय ने कहा – इस धन को बराबर-बराबर बाँट लिया जाये। विजय का कहना था – नहीं, जिसको जो मिला है वह उसी के पास रहे तब जय ने क्रोध में आकर लोभी विजय को शाप दिया – तुम ग्रहण कर के देते नहीं हो इसलिए ग्राह अर्थात मगरमच्छ हो जाओ।

          जय के शाप को सुनकर विजय ने भी शाप दिया – तुमने मद से भ्रान्त होकर शापो दिया है इसलिए तुम मातंग अर्थात हाथी की योनि में जाओ। तत्पश्चात उन्होंने भगवान से शाप निवृति के लिए प्रार्थना की। श्री भगवान ने कहा – तुम मेरे भक्त हो तुम्हारा वचन कभी असत्य नहीं होगा। तुम दोनों अपने ही दिये हुए इन शापों को भोगकर फिर से मेरे धाम को प्राप्त होगे।

          ऎसा कहकर भगवान विष्णु अन्तर्धान हो गये। तदनन्तर वे दोनों गण्ड नदी के तट पर ग्राह और गज हो गये। उस योनि में भी उन्हें पूर्वजन्म का स्मरण बना रहा और वे भगवान विष्णु के व्रत में तत्पर रहे। किसी समय वह गजराज कार्तिक मास में स्नान के लिए गण्ड नदी गया तो उस समय ग्राह ने शाप के हेतु को स्मरण करते हुए उस गज को पकड़ लिया। ग्राह से पकड़े जाने पर गजराज ने भगवान रमानाथ का स्मरण किया तभी भगवान विष्णु शंख, चक्र और गदा धारण किये वहां प्रकट हो गये उन्होंने चक्र चलाकर ग्राह और गजराज का उद्धार किया और उन्हें अपने ही जैसा रूप देकर वैकुण्ठधाम को ले गये तब से वह स्थान हरिक्षेत्र के नाम से प्रसिद्ध है। वे ही दोनों विश्वविख्यात जय और विजय हैं जो भगवान विष्णु के द्वारपाल हुए हैं।

          धर्मदत्त! तुम भी ईर्ष्या और द्वेष का त्याग करके सदैव भगवान विष्णु के व्रत में स्थिर रहो, समदर्शी बनो, कार्तिक, माघ और वैशाख के महीनों में सदैव प्रात:काल स्नान करो। एकादशी व्रत के पालन में स्थिर रहो। तुलसी के बगीचे की रक्षा करते रहो। ऎसा करने से तुम भी शरीर का अन्त होने पर भगवान विष्णु के परम पद को प्राप्त होवोगे। भगवान विष्णु को सन्तुष्ट करने वाले तुम्हारे इस व्रत से बढ़कर न यज्ञ हैं न दान है और न तीर्थ ही हैं। विप्रवर! तुम धन्य हो, जिसके व्रत के आधे भाग का फल पाकर यह स्त्री हमारे द्वारा वैकुण्ठधाम में ले जायी जा रही है।

          नारद जी बोले – हे राजन! धर्मदत्त को इस प्रकार उपदेश देकर वे दोनों विमानचारी पार्षद उस कलहा के साथ वैकुण्ठधाम को चले गये। धर्मदत्त जीवन-भर भगवान के व्रत में स्थिर रहे और देहावसान के बाद उन्होंने अपनी दोनों स्त्रियों के साथ वैकुण्ठधाम प्राप्त कर लिया। इस प्राचीन इतिहास को जो सुनता है और सुनाता है वह जगद्गुरु भगवान की कृपा से उनका सान्निध्य प्राप्त कराने वाली उत्तम गति को प्राप्त करता है।


🚩जय श्रीराधे कृष्णा🚩

Thursday, October 3, 2024

कार्तिक माहात्म्य--27


अध्याय - 27

          

          पार्षदों ने कहा – एक दिन की बात है, विष्णुदास ने नित्यकर्म करने के पश्चात भोजन तैयार किया किन्तु कोई छिपकर उसे चुरा ले गया। विष्णुदास ने देखा भोजन नहीं है परन्तु उन्होंने दुबारा भोजन नहीं बनाया क्योंकि ऎसा करने पर सायंकाल की पूजा के लिए उन्हें अवकाश नहीं मिलता। अत: प्रतिदिन के नियम का भंग हो जाने का भय था। दूसरे दिन पुन: उसी समय पर भोजन बनाकर वे ज्यों ही भगवान विष्णु को भोग अर्पण करने के लिए गये त्यों ही किसी ने आकर फिर सारा भोजन हड़प लिया।

          इस प्रकार सात दिनों तक लगातार कोई उनका भोजन चुराकर ले जाता रहा। इससे विष्णुदास को बड़ा विस्मय हुआ वे मन ही मन इस प्रकार विचार करने लगे – अहो! कौन प्रतिदिन आकर मेरी रसोई चुरा ले जाता है। यदि दुबारा रसोई बनाकर भोजन करता हूँ तो सायंकाल की पूजा छूट जाती है। यदि रसोई बनाकर तुरन्त ही भोजन कर लेना उचित हो तो मुझसे यह न होगा क्योंकि भगवान विष्णु को सब कुछ अर्पण किये बिना कोई भी वैष्णव भोजन नहीं करता। आज उपवास करते मुझे सात दिन हो गये। इस प्रकार मैं व्रत में कब तक स्थिर रह सकता हूँ। अच्छा! आज मैं रसोई की भली-भाँति रक्षा करुँगा।

          ऎसा निश्चय कर के भोजन बनाने के पश्चात वे वहीं कहीं छिपकर खड़े हो गये। इतने में ही उन्हें एक चाण्डाल दिखाई दिया जो रसोई का अन्न हरकर जाने के लिए तैयार खड़ा था। भूख के मारे उसका सारा शरीर दुर्बल हो गया था मुख पर दीनता छा रही थी। शरीर में हाड़ और चाम के सिवा कुछ शेष नहीं बचा था। उसे देखकर श्रेष्ठ ब्राह्मण विष्णुदास का हृदय करुणा से भर आया। उन्होंने भोजन चुराने वाले चाण्डाल की ओर देखकर कहा – भैया! जरा ठहरो, ठहरो! क्यों रूखा-सूखा खाते हो? यह घी तो ले लो।

          इस प्रकार कहते हुए विप्रवर विष्णुदास को आते देख वज चाण्डाल भय के मारे बड़े वेग से भागा और कुछ ही दूरी पर मूर्छित होकर गिर पड़ा। चाण्डाल को भयभीत और मूर्छित देखकर द्विजश्रेष्ठ विष्णुदास बड़े वेग से उसके समीप आये और दयावश अपने वस्त्र के छोर से उसको हवा करने लगे। तदन्तर जब वह उठकर खड़ा हुआ तब विष्णुदास ने देखा वहाँ चाण्डाल नहीं हैं बल्कि साक्षात नारायण ही शंख, चक्र और गदा धारण किये सामने उपस्थित हैं। अपने प्रभु को प्रत्यक्ष देखकर विष्णुदास सात्विक भावों के वशीभूत हो गये। वे स्तुति और नमस्कार करने में भी समर्थ न हो सके तब भगवान ने सात्विक व्रत का पालन करने वाले अपने भक्त विष्णुदास को छाती से लगा लिया और उन्हें अपने जैसा रूप देकर वैकुण्ठधाम को ले चले।

          उस समय यज्ञ में दीक्षित हुए राजा चोल ने देखा – विष्णुदास एक श्रेष्ठ विमान पर बैठकर भगवान विष्णु के समीप जा रहे हैं। विष्णुदास को वैकुण्ठधाम में जाते देख राजा ने शीघ्र ही अपने गुरु महर्षि मुद्गल को बुलाया और इस प्रकार कहना आरम्भ किया – जिसके साथ स्पर्धा करके मैंने इस यज्ञ, दान आदि कर्म का अनुष्ठान किया है वह ब्राह्मण आज भगवान विष्णु का रुप धारण करके मुझसे पहले ही वैकुण्ठधाम को जा रहा है। मैंने इस वैष्णवधाम में भली-भाँति दीक्षित होकर अग्नि में हवन किया और दान आदि के द्वारा ब्राह्मणों का मनोरथ पूर्ण किया तथापि अभी तक भगवान विष्णु मुझ पर प्रसन्न नहीं हुए और इस विष्णुदास को केवल भक्ति के ही कारण श्रीहरि ने प्रत्यक्ष दर्शन दिया है। अत: जान पड़ता है कि भगवान विष्णु केवल दान और यज्ञों से प्रसन्न नहीं होते। उन प्रभु का दर्शन कराने में भक्ति ही प्रधान कारण है।

          दोनों पार्षदों ने कहा – इस प्रकार कहकर राजा ने अपने भानजे को राज सिंहासन पर अभिषिक्त कर दिया। वे बचपन से ही यज्ञ की दीक्षा लेकर उसी में संलग्न रहते थे इसलिए उन्हें कोई पुत्र नहीं हुआ था। यही कारण है कि उस देश में अब तक भानजे ही राज्य के उत्तराधिकारी होते हैं। भानजे को राज्य देकर राजा यज्ञशाला में गये और यज्ञकुण्ड के सामने खड़े होकर भगवान विष्णु को सम्बोधित करते हुए तीन बार उच्च स्वर से निम्नांकित वचन बोले – भगवान विष्णु! आप मुझे मन, वाणी, शरीर और क्रिया द्वारा होने वाली अविचल भक्ति प्रदान कीजिए।

          इस प्रकार कहकर वे सबके देखते-देखते अग्निकुण्ड में कूद पड़े। बस, उसी क्षण भक्तवत्सल भगवान विष्णु अग्निकुण्ड में प्रकट हो गये। उन्होंने राजा को छाती से लगाकर एक श्रेष्ठ विमान में बैठाया और उन्हें अपने साथ लेकर वैकुण्ठधाम को प्रस्थान किया।

          नारद जी बोले – हे राजन्! जो विष्णुदास थे वे तो पुण्यशील नाम से प्रसिद्ध भगवान के पार्षद हुए और जो राजा चोल थे उनका नाम सुशील हुआ। इन दोनों को अपने ही समान रूप देकर भगवान लक्ष्मीपति ने अपना द्वारपाल बना लिया।


🚩जय श्रीराधे कृष्णा🚩

Wednesday, October 2, 2024

कार्तिक माहात्म्य--26


अध्याय - 26

          

          नारद जी बोले – इस प्रकार विष्णु पार्षदों के वचन सुनकर धर्मदत्त ने कहा – प्राय: सभी मनुष्य भक्तों का कष्ट दूर करने वाले श्रीविष्णु की यज्ञ, दान, व्रत, तीर्थसेवन तथा तपस्याओं के द्वारा विधिपूर्वक आराधना करते हैं। उन समस्त साधनों में कौन-सा ऎसा साधन है जो भगवान विष्णु की प्रसन्नता को बढ़ाने वाला तथा उनके सामीप्य की प्राप्ति कराने वाला है।

          दोनों पार्षद अपने पूर्वजन्म की कथा कहने लगे – हे द्विजश्रेष्ठ आपका प्रश्न बड़ा श्रेष्ठ है। आज हम आपको भगवान विष्णु को शीघ्र प्रसन्न करने का उपाय बताते हैं। हम इतिहास सहित प्राचीन वृत्तान्त सुनाते हैं, सावधानीपूर्वक सुनो।  ब्रह्मन! पहले कांचीपुरी में चोल नामक एक चक्रवर्ती राजा हो गये हैं। उन्हीं के नाम पर उनके अधीन रहने वाले सभी देश चोल नाम से विख्यात हुए। राजा चोल जब इस भूमण्डल का शासन करते थे, उस समय उनके राज्य में कोई भी मनुष्य दरिद्र, दुखी, पाप में मन लगाने वाला अथवा रोगी नहीं था।

          एक समय की बात है, राजा चोल अनन्तशयन नामक तीर्थ में गये जहाँ जगदीश्वर भगवान विष्णु ने योगनिद्रा का आश्रय  लेकर शयन किया था। वहाँ भगवान विष्णु के दिव्य विग्रह की राजा ने विधिपूर्वक पूजा की। दिव्य मणि, मुक्ताफल तथा सुवर्ण के बने हुए सुन्दर पुष्पों से पूजन कर के साष्टांग प्रणाम किया। प्रणाम कर के ज्यों ही बैठे उसी समय उनकी दृष्टि भगवान के पास आते हुए एक ब्राह्मण पर पड़ी जो उन्हीं की कांची नगरी के निवासी थे। उनका नाम विष्णुदास था। उन्होंने भगवान की पूजा के लिए अपने हाथ में तुलसीदल और जल ले रखा था। निकट आने पर उन ब्राह्मण ने विष्णुसूक्त का पाठ करते हुए देवाधिदेव भगवान को स्नान कराया और तुलसी की मंजरी तथा पत्तों से उनकी विधिवत पूजा की। राजा चोल ने जो पहले रत्नों से भगवान की पूजा की थी, वह सब तुलसी पूजा से ढक गई।

          यह देखकर राजा कुपित होकर बोले – विष्णुदास! मैंने मणियों तथा सुवर्ण से भगवान की जो पूजा की थी वह कितनी शोभा पा रही थी, तुमने तुलसीदल चढ़ाकर उसे ढक दिया। बताओ, ऎसा क्यों किया? मुझे तो ऎसा जान पड़ता है कि तुम दरिद्र और गंवार हो। भगवान विष्णु की भक्ति को बिलकुल नहीं जानते।

          राजा की यह बात सुनकर द्विजश्रेष्ठ विष्णुदास ने कहा – राजन! आपको भक्ति का कुछ भी पता नहीं है, केवल राजलक्ष्मी के कारण आप घमण्ड कर रहे हैं। बतलाइए तो आज से पहले आपने कितने वैष्णव व्रतों का पालन किया है?

          तब नृपश्रेष्ठ चोल ने हंसते हुए कहा – तुम तो दरिद्र और निर्धन हो तुम्हारी भगवान विष्णु में भक्ति ही कितनी है? तुमने भगवान विष्णु को सन्तुष्ट करने वाला कोई भी यज्ञ और दान आदि नहीं किया और न पहले कभी कोई देवमन्दिर ही बनवाया है। इतने पर भी तुम्हें अपनी भक्ति का इतना गर्व है। अच्छा तो ये सभी ब्राह्मण मेरी बात सुन लें। भगवान विष्णु के दर्शन पहले मैं करता हूँ या यह ब्राह्मण? इस बात को आप सब लोग देखें फिर हम दोनों में से किसकी भक्ति कैसी है, यह सब लोग स्वत: ही जान लेगें। ऎसा कहकर राजा अपने राजभवन को चले गये।

          वहाँ उन्होंने महर्षि मुद्गल को आचार्य बनाकर वैष्णव यज्ञ प्रारम्भ किया। उधर सदैव भगवान विष्णु को प्रसन्न करने वाले शास्त्रोक्त नियमों में तत्पर विष्णुदास भी व्रत का पालन करते हुए वहीं भगवान विष्णु के मन्दिर में टिक गये। उन्होंने माघ और कार्तिक के उत्तम व्रत का अनुष्ठान, तुलसीवन की रक्षा, एकादशी को द्वादशाक्षर मन्त्र का जाप, नृत्य, गीत आदि मंगलमय आयोजनों के साथ प्रतिदिन षोडशोपचार से भगवान विष्णु की पूजा आदि नियमों का आचरण किया। वे प्रतिदिन चलते, फिरते और सोते – हर समय भगवान विष्णु का स्मरण किया करते थे। उनकी दृष्टि सर्वत्र सम हो गई थी। वे सब प्राणियों के भीतर एकमात्र भगवान विष्णु को ही स्थित देखते थे। इस प्रकार राजा चोल और विष्णुदास दोनों ही भगवान लक्ष्मीपति की आराधना में संलग्न थे। दोनों ही अपने-अपने व्रत में स्थित रहते थे और दोनों की ही सम्पूर्ण इन्द्रियाँ तथा समस्त कर्म भगवान विष्णु को समर्पित हो चुके थे। इस अवस्था में उन दोनों ने दीर्घकाल व्यतीत किया


🚩जय श्रीराधे कृष्णा🚩

Tuesday, October 1, 2024

कार्तिक माहात्म्य --25


अध्याय - 25

          

          तीर्थ में दान और व्रत आदि सत्कर्म करने से मनुष्य के पाप नष्ट हो जाते हैं परन्तु तू तो प्रेत के शरीर में है, अत: उन कर्मों को करने की अधिकारिणी नहीं है। इसलिए मैंने जन्म से लेकर अब तक जो कार्तिक का व्रत किया है उसके पुण्य का आधा भाग मैं तुझे देता हूँ, तू उसी से सदगति को प्राप्त हो जा।

          इस प्रकार कहकर धर्मदत्त ने द्वादशाक्षर मन्त्र का श्रवण कराते हुए तुलसी मिश्रित जल से ज्यों ही उसका अभिषेक किया त्यों ही वह प्रेत योनि से मुक्त हो प्रज्वलित अग्निशिखा के समान तेजस्विनी एवं दिव्य रूप धारिणी देवी हो गई और सौन्दर्य में लक्ष्मी जी की समानता करने लगी। तदन्तर उसने भूमि पर दण्ड की भाँति गिरकर ब्राह्मण देवता को प्रणाम किया और हर्षित होकर गदगद वाणी में कहा – हे द्विजश्रेष्ठ! आपके प्रसाद से आज मैं इस नरक से छुटकारा पा गई। मैं तो पाप के समुद्र में डूब रही थी और आप मेरे लिए नौका के समान हो गये।

          वह इस प्रकार ब्राह्मण से कह रही थी कि आकाश से एक दिव्य विमान उतरता दिखाई दिया। वह अत्यन्त प्रकाशमान एवं विष्णुरूपधारी पार्षदों से युक्त था। विमान के द्वार पर खड़े हुए पुण्यशील और सुशील ने उस देवी को उठाकर श्रेष्ठ विमान पर चढ़ा लिया तब धर्मदत्त ने बड़े आश्चर्य के साथ उस विमान को देखा और विष्णुरुपधारी पार्षदों को देखकर साष्टांग प्रणाम किया। पुण्यशील और सुशील ने प्रणाम करने वाले ब्राह्मण को उठाया और उसकी सराहना करते हुए कहा – हे द्विजश्रेष्ठ! तुम्हें साधुवाद है, क्योंकि तुम सदैव भगवान विष्णु के भजन में तत्पर रहते हो, दीनों पर दया करते हो, सर्वज्ञ हो तथा भगवान विष्णु के व्रत का पालन करते हो। तुमने बचपन से लेकर अब तक जो कार्तिक व्रत का अनुष्ठान किया है, उसके आधे भाग का दान देने से तुम्हें दूना पुण्य प्राप्त हुआ है और सैकड़ो जन्मों के पाप नष्ट हो गये हैं। अब यह वैकुण्ठधाम में ले जाई जा रही है। तुम भी इस जन्म के अन्त में अपनी दोनों स्त्रियों के साथ भगवान विष्णु के वैकुण्ठधाम में जाओगे और मुक्ति प्राप्त करोगे।

          धर्मदत्त! जिन्होंने तुम्हारे समान भक्तिपूर्वक भगवान विष्णु की आराधना की है वे धन्य और कृतकृत्य हैं। इस संसार में उन्हीं का जन्म सफल है। भली-भांति आराधना करने पर भगवान विष्णु देहधारी प्राणियों को क्या नहीं देते हैं? उन्होंने ही उत्तानपाद के पुत्र को पूर्वकाल में ध्रुवपद पर स्थापित किया था। उनके नामों का स्मरण करने मात्र से समस्त जीव सदगति को प्राप्त होते हैं। पूर्वकाल में ग्राहग्रस्त गजराज उन्हीं के नामों का स्मरण करने से मुक्त हुआ था। तुमने जन्म से लेकर जो भगवान विष्णु को सन्तुष्ट करने वाले कार्तिक व्रत का अनुष्ठान किया है, उससे बढ़कर न यज्ञ है, न दान और न ही तीर्थ है। विप्रवर! तुम धन्य हो क्योंकि तुमने जगद्गुरु भगवान विष्णु को प्रसन्न करने वाला कार्तिक व्रत किया है, जिसके आधे भाग के फल को पाकर यह स्त्री हमारे साथ भगवान लोक में जा रही है।


🚩जय श्रीराधे कृष्णा🚩

Thursday, September 26, 2024

कार्तिक माहात्म्य --24

 अध्याय - 24

          

          राजा पृथु बोले – हे मुनिश्रेष्ठ! आपने तुलसी के इतिहास, व्रत, माहात्म्य के विषय में कहा। अब आप कृपाकर मुझे यह बताइए कि कार्तिक मास में क्या और भी देवताओं का पूजन होता है? यह भी विस्तारपूर्वक बताइए। नारद जी बोले – पूर्व काल की बात है। सह्य पर्वत पर करवीकर में धर्मदत्त नामक विख्यात कोई धर्मज्ञ ब्राह्मण रहते थे। एक दिन कार्तिक मास में भगवान विष्णु के समीप जागरण करने के लिए वे भगवान के मन्दिर की ओर चले। उस समय एक पहर रात बाकी थी। भगवान के पूजन की सामग्री साथ लिये जाते हुए ब्राह्मण ने मार्ग में देखा कि एक भयंकर राक्षसी आ रही है।

          उसका शरीर नंगा और मांस रहित था। उसके बड़े-बड़े दाँत, लपकती हुई जीभ और लाल नेत्र देखकर ब्राह्मण भय से थर्रा उठे। उनका सारा शरीर कांपने लगा। उन्होंने साहस कर के पूजा की सामग्री तथा जल से ही उस राक्षसी के ऊपर प्रहार किया। उन्होंने हरिनाम का स्मरण कर के तुलसीदल मिश्रित जल से उसको मारा था इसलिए उसका सारा पातक नष्ट हो गया। अब उसे अपने पूर्व जन्म के कर्मों के परिणाम स्वरुप प्राप्त हुई दुर्दशा का स्मरण हो आया। उसने ब्राह्मण को दण्डवत प्रणाम कर के इस प्रकार कहा – ब्रह्मन्! मैं पूर्व जन्म के कर्मों के फल से इस दशा को पहुंची हूँ। अब मुझे किस प्रकार उत्तम गति प्राप्त होगी?

          धर्मदत्त ने उसे इस प्रकार प्रणाम करते देखकर आश्चर्यचकित होते हुए पूछा – किस कर्म के फल से तुम इस दशा को पहुंची हो? कहां की रहने वाली हो? तुम्हारा नाम क्या है और आचार-व्यवहार कैसा है? ये सारी बातें मुझे बताओ।

          उस राक्षसी का नाम कलहा था, कलहा बोली – ब्रह्मन! मेरे पूर्व जन्म की बात है, सौराष्ट्र नगर में भिक्षु नामक एक ब्राह्मण रहते थे, मैं उनकी पत्नी थी। मेरा नाम कलहा था और मैं बड़े क्रूर स्वभाव की स्त्री थी। मैंने वचन से भी कभी अपने पति का भला नहीं किया, उन्हें कभी मीठा भोजन नहीं परोसा। सदा अपने स्वामी को धोखा ही देती रही। मुझे कलह विशेष प्रिय था इसलिए मेरे पति का मन मुझसे सदा उद्विग्न रहा करता था। अन्ततोगत्वा उन्होंने दूसरी स्त्री से विवाह करने का निश्चय कर लिया तब मैंने विष खाकर अपने प्राण त्याग दिये, फिर यमराज के दूत आये और मुझे बाँधकर पीटते हुए यमलोक में ले गये। वहाँ यमराज ने मुझे देखकर चित्रगुप्त से पूछा – चित्रगुप्त! देखो तो सही इसने कैसा कर्म किया है? जैसा इसका कर्म हो, उसके अनुसार यह शुभ या अशुभ प्राप्त करे।

          चित्रगुप्त ने कहा – इसका किया हुआ कोई भी शुभ कर्म नहीं है। यह स्वयं मिठाईयाँ उड़ाती थी और अपने स्वामी को उसमें से कुछ भी नही देती थी। इसने सदा अपने स्वामी से द्वेष किया है इसलिए यह चमगादुरी होकर रहे तथा सदा कलह में ही इसकी प्रवृति रही है इसलिए यह विष्ठाभोजी सूकरी की योनि में रहे। जिस बर्तन में भोजन बनाया जाता है उसी में यह सदा अकेली खाया करती थी। अत: उसके दोष से यह अपनी ही सन्तान का भ़ाण करने वाली बिल्ली हो। इसने अपने पति को निमित्त बनाकर आत्मघात किया है इसलिए यह अत्यन्त निन्दनीय स्त्री प्रेत के शरीर में भी कुछ काल तक अकेली ही रहे। इसे यमदूतों द्वारा निर्जल प्रदेश में भेज देना चाहिए, वहाँ दीर्घकाल तक यह प्रेत के शरीर में निवास करे। उसके बाद यह पापिनी शेष तीन योनियों का भी उपभोग करेगी।

          कलहा ने कहा – विप्रवर! मैं वही पापिनी कलहा हूँ। इस प्रेत शरीर में आये मुझे पाँच सौ वर्ष बीत चुके हैं। मैं सदैव भूख-प्यास से पीड़ित रहा करती हूँ। एक बनिये के शरीर में प्रवेश कर के मैं इस दक्षिण देश में कृष्णा और वेणी के संगम तक आयी हूँ। ज्यों ही संगम तट पर पहुंची त्यों ही भगवान शिव और विष्णु के पार्षदों ने मुझे बलपूर्वक बनिये के शरीर से दूर भगा दिया तब से मैं भूख का कष्ट सहन करती हुई इधर-उधर घूम रही हूँ। इतने में ही आपके ऊपर मेरी दृष्टि पड़ गई। आपके हाथ से तुलसी मिश्रित जल का संसर्ग पाकर मेरे सब पाप नष्ट हो गये हैं। द्विजश्रेष्ठ! अब आप ही कोई उपाय कीजिए। बताइए मेरे इस शरीर से और भविष्य में होने वाली भयंकर तीन योनियों से किस प्रकार मुक्त होऊँगी?

          कलहा का यह वचन सुनकर धर्मदत्त उसके पिछले कर्मों और वर्तमान अवस्था को देखकर बहुत दुखी हुआ, फिर उसने बहुत सोच-विचार करने के बाद कहा –

(धर्मदत्त ने जो भी कहा उसका वर्णन पच्चीसवें अध्याय में किया गया है)


🚩जय श्रीराधे कृष्णा🚩

कार्तिक माहात्म्य --23

 अध्याय - 23

          

          नारद जी बोले – हे राजन! यही कारण है कि कार्तिक मास के व्रत उद्यापन में तुलसी की जड़ में भगवान विष्णु की पूजा की जाती है। तुलसी भगवान विष्णु को अधिक प्रीति प्रदान करने वाली मानी गई है। राजन! जिसके घर में तुलसीवन है वह घर तीर्थ स्वरुप है वहाँ यमराज के दूत नहीं आते। तुलसी का पौधा सदैव सभी पापों का नाश करने वाला तथा अभीष्ट कामनाओं को देने वाला है। जो श्रेष्ठ मनुष्य तुलसी का पौधा लगाते हैं वे यमराज को नहीं देखते। नर्मदा का दर्शन, गंगा का स्नान और तुलसी वन का संसर्ग – ये तीनों एक समान कहे गये हैं। जो तुलसी की मंजरी से संयुक्त होकर प्राण त्याग करता है वह सैकड़ो पापों से युक्त ही क्यों न हो तो भी यमराज उसकी ओर नहीं देख सकते। तुलसी को छूने से कामिक, वाचिक, मानसिक आदि सभी पाप नष्ट हो जाते हैं।

          जो मनुष्य तुलसी दल से भगवान का पूजन करते हैं वह पुन: गर्भ में नहीं आते अर्थात जन्म-मरण के चक्कर से छूट जाते हैं। तुलसी दल में पुष्कर आदि समस्त तीर्थ, गंगा आदि नदियाँ और विष्णु प्रभृति सभी देवता निवास करते हैं। हे राजन! जो मनुष्य तुलसी के काष्ठ का चन्दन लगाते हैं उन्हें सहज ही मुक्ति प्राप्त हो जाती है और उन द्वारा किये गये पाप उनके शरीर को छू भी नहीं पाते। जहाँ तुलसी के पौधे की छाया होती है, वहीं पितरों की तृप्ति के लिए श्राद्ध करना चाहिए। जिसके मुख में, कान में और मस्तक पर तुलसी का पत्ता दिखाई देता है उसके ऊपर यमराज भी दृष्टि नहीं डाल सकते फिर दूतों की तो बात ही क्या है। जो प्रतिदिन आदर पूर्वक तुलसी की महिमा सुनता है वह सब पापों से मुक्त हो ब्रह्मलोक को जाता है।

          इसी प्रकार आंवले का महान वृक्ष सभी पापों का नाश करने वाला है। आँवले का वृक्ष भगवान विष्णु को प्रिय है। इसके स्मरण मात्र से ही मनुष्य गोदान का फल प्राप्त करता है। जो मनुष्य कार्तिक में आंवले के वन में भगवान विष्णु की पूजा ततह आँवले की छाया में भोजन करता है उसके भी पाप नष्ट हो जाते हैं। आंवले की छाया में मनुष्य जो भी पुण्य करता है वह कोटि गुना हो जाता है। जो मनुष्य आंवले की छाया के नीचे कार्तिक में ब्राह्मण दम्पत्ति को एक बार भी भोजन देकर स्वयं भोजन करता है वह अन्न दोष से मुक्त हो जाता है। लक्ष्मी प्राप्ति की इच्छा रखने वाले मनुष्य को सदैव आंवले से स्नान करना चाहिए। नवमी, अमावस्या, सप्तमी, संक्रान्ति, रविवार, चन्द्रग्रहण तथा सूर्यग्रहण के दिन आंवले से स्नान नही करना चाहिए।

          जो मनुष्य आंवले की छाया में बैठकर पिण्डदान करता है उसके पितर भगवान विष्णु के प्रसाद से मोक्ष को प्राप्त होते हैं। जो मनुष्य आंवले के फल और तुलसी दल को पानी में मिलाकर स्नान करता है उसे गंगा स्नान का फल मिलता है। जो मनुष्य आंवले के पत्तों और फलों से देवताओं का पूजन करता है उसे स्वर्ण मणि और मोतियों द्वारा पूजन का फल प्राप्त होता है। कार्तिक मास में जब सूर्य तुला राशि में होता है तब सभी तीर्थ, ऋषि, देवता और सभी यज्ञ आंवले के वृक्ष में वास करते हैं। जो मनुष्य द्वादशी तिथि को तुलसी दल और कार्तिक में आंवले की छाया में बैठकर भोजन करता है उसके एक वर्ष तक अन्न-संसर्ग से उत्पन्न हुए पापों का नाश हो जाता है।

          जो मनुष्य कार्तिक में आंवले की जड़ में विष्णु जी का पूजन करता है उसे श्री विष्णु क्षेत्रों के पूजन का फल प्राप्त होता है। आंवले और तुलसी की महत्ता का वर्णन करने में श्री ब्रह्मा जी भी समर्थ नहीम है इसलिए धात्री और तुलसी जी की जन्म कथा सुनने से मनुष्य अपने वंश सहित भक्ति को पाता है।


🚩जय श्रीराधे कृष्णा🚩

Wednesday, September 25, 2024

कार्तिक माहात्म्य -- 22

 अध्याय - 22


          राजा पृथु ने नारद जी से पूछा – हे देवर्षि! कृपया आप अब मुझे यह बताइए कि वृन्दा को मोहित करके विष्णु जी ने क्या किया और फिर वह कहाँ गये?

          जब देवता स्तुति कर मौन हो गये तब शंकर जी ने सब देवताओ से कहा – हे ब्रह्मादिक देवताओं! जलन्धर तो मेरा ही अंश था। उसे मैंने तुम्हारे लिए नहीं मारा है, यह मेरी सांसारिक लीला थी, फिर भी आप लोग सत्य कहिए कि इससे आप सुखी हुए या नहीँ?

          तब ब्रह्मादिक देवताओं के नेत्र हर्ष से खिल गये और उन्होंने शिवजी को प्रणाम कर विष्णु जी का वह सब वृत्तान्त कह सुनाया जो उन्होंने बड़े प्रयत्न से वृन्दा को मोहित किया था तथा वह अग्नि में प्रवेश कर परमगति को प्राप्त हुई थी। देवताओं ने यह भी कहा कि तभी से वृन्दा की सुन्दरता पर मोहित हुए विष्णु उनकी चिता की राख लपेट इधर-उधर घूमते हैं। अतएव आप उन्हें समझाइए क्योंकि यह सारा चराचर आपके आधीन है।

          देवताओं से यह सारा वृत्तान्त सुन शंकर जी ने उन्हें अपनी माया समझाई और कहा कि उसी से मोहित विष्णु भी काम के वश में हो गये हैं। परन्तु महादेवी उमा, त्रिदेवों की जननी सबसे परे वह मूल प्रकृति, परम मनोहर और वही गिरिजा भी कहलाती है। अतएव विष्णु का मोह दूर करने के लिए आप सब उनकी शरण में जाइए। शंकर जी की आज्ञा से सब देवता मूल-प्रकृति को प्रसन्न करने चले। उनके स्थान पर पहुंचकर उनकी बड़ी स्तुति की तब यह आकाशवाणी हुई कि हे देवताओं! मैं ही तीन प्रकार से तीनों गुणों से पृथक होकर स्थित सत्य गुण से गौरा, रजोगुण से लक्ष्मी और तमोगुण से ज्योति रूप हूँ। अतएव अब आप लोग मेरी रक्षा के लिए उन देवियों के पास जाओ तो वे तुम्हारे मनोरथों को पूर्ण कर देगीं।

          यह सब सुनकर देवता भगवती के वाक्यों का आदर करते हुए गौरी, लक्ष्मी और सरस्वती को प्रणाम करने लगे। सब देवताओं ने भक्ति पूर्वक उन सब देवियों की प्रार्थना की। उस स्तुक्रमशःति से तीनों देवियाँ प्रकट हो गई। सभी देवताओं ने खुश होकर निवेदन किया तब उन देवियों ने कुछ बीज देकर कहा -इसे ले जाकर बो दो तो तुम्हारे सब कार्य सिद्ध हो जाएंगे। ब्रह्मादिक देवता उन बीजों को लेकर विष्णु जी के पास गये। वृन्दा की चिता-भूमि में डाल दिया। उससे धात्री, मालती और तुलसी प्रकट हुई।

          विधात्री के बीज से धात्री, लक्ष्मी के बीज से मालती और गौरी के बीज से तुलसी प्रकट हुई। विष्णु जी ने ज्योंही उन स्त्री रूपवाली वनस्पतियों को देखा तो वे उठ बैठे। कामासक्त चित्त से मोहित हो उनसे याचना करने लगे। धात्री और तुलसी ने उनसे प्रीति की। विष्णु जी सारा दुख भूल देवताओं से नमस्कृत हो अपने लोक बैकुण्ठ में चले। वह पहले की तरह सुखी होकर शंकर जी का स्मरण करने लगे। यह आख्यात शिवजी की भक्ति देने वाला है।


🚩जय श्रीराधे कृष्णा🚩

कार्तिक माहात्म्य --21


अध्याय - 21

          

          अब ब्रह्मा आदि देवता नतमस्तक होकर भगवान शिव की स्तुति करने लगे। वे बोले – हे देवाधिदेव! आप प्रकृति से परे पारब्रह्म और परमेश्वर हैं, आप निर्गुण, निर्विकार व सबके ईश्वर होकर भी नित्य अनेक प्रकार के कर्मों को करते हैं। हे प्रभु! हम ब्रह्मा आदि समस्त देवता आपके दास हैं। हे शंकर जी! हे देवेश! आप प्रसन्न होकर हमारी रक्षा कीजिए। हे शिवजी! हम आपकी प्रजा हैं तथा हम सदैव आपकी शरण में रहते हैं।

         नारद जी राजा पृथु से बोले – जब इस प्रकार ब्रह्मा आदि समस्त देवताओं एवं मुनियों ने भगवान शंकर जी की अनेक प्रकार से स्तुति कर के उनके चरण कमलों का ध्यान किया तब भगवान शिव देवताओं को वरदान देकर वहीं अन्तर्ध्यान हो गये। उसके बाद शिवजी का यशोगान करते हुए सभी देवता प्रसन्न होकर अपने-अपने लोक को चले गये।

          भगवान शंकर के साथ सागर पुत्र जलन्धर का युद्ध चरित्र पुण्य प्रदान करने वाला तथा समस्त पापों को नष्ट करने वाला है। यह सभी सुखदायक और शिव को भी आनन्ददायक है। इन दोनों आख्यानों को पढ़ने एवं सुनने वाला सुखों को भोगकर अन्त में अमर पद को प्राप्त करता है।


🚩जय श्रीराधे कृष्णा🚩

Friday, February 9, 2024

कार्तिक माहात्मय --19


अध्याय - 19

          

          राजा पृथु ने पूछा – हे नारद जी! अब आप यह कहिए कि भगवान विष्णु ने वहाँ जाकर क्या किया तथा जलन्धर की पत्नी का पतिव्रत किस प्रकार भ्रष्ट हुआ?

          नारद जी बोले – जलन्धर के नगर में जाकर विष्णु जी ने उसकी पतिव्रता स्त्री वृन्दा का पतिव्रत भंग करने का विचार किया। वे उसके नगर के उद्यान में जाकर ठहर गये और रात में उसको स्वप्न दिया।

          वह भगवान विष्णु की माया और विचित्र कार्यपद्धति थी और उसकी माया द्वारा जब वृन्दा ने रात में वह स्वप्न देखा कि उसका पति नग्न होकर सिर पर तेल लगाये महिष पर चढ़ा है। वह काले रंग के फूलों की माला पहने हुए है तथा उसके चारों हिंसक जीव हैं। वह सिर मुड़ाए हुए अन्धकार में दक्षिण दिशा की ओर जा रहा है। उसने नगर को अपने साथ समुद्र में डूबा हुआ इत्यादि बहुत से स्वप्न देखे। तत्काल ही वह स्वप्न का विचार करने लगी। इतने में उसने सूर्यदेव को उदय होते हुए देखा तो सूर्य में उसे एक छिद्र दिखाई दिया तथा वह कान्तिहीन था।

          इसे उसने अनिष्ट जाना और वह भयभीत हो रोती हुई छज्जे, अटारी तथा भूमि कहीं भी शान्ति को प्राप्त न हुई फिर अपनी दो सखियों के साथ उपवन में गई वहाँ भी उसे शान्ति नहीं मिली। फिर वह जंगल में में निकल गई वहाँ उसने सिंह के समान दो भयंकर राक्षसों को देखा, जिससे वह भयभीत हो भागने लगी। उसी क्षण उसके समक्ष अपने शिष्यों सहित शान्त मौनी तपस्वी वहाँ आ गया। भयभीत वृन्द उसके गले में अपना हाथ डाल उससे रक्षा की याचना करने लगी। मुनि ने अपनी एक ही हुंकार से उन राक्षसों को भगा दिया।

          वृन्दा को आश्चर्य हुआ तथा वह भय से मुक्त हो मुनिनाथ को हाथ जोड़ प्रणाम करने लगी। फिर उसने मुनि से अपने पति के संबंध में उसकी कुशल क्षेम का प्रश्न किया। उसी समय दो वानर मुनि के समक्ष आकर हाथ जोड़ खड़े हो गये और ज्योंही मुनि ने भृकुटि संकेत किया त्योंही वे उड़कर आकाश मार्ग से चले गये। फिर जलन्धर का सिर और धड़ लिये मुनि के आगे आ गये तब अपने पति को मृत हुआ जान वृन्दा मूर्छित हो पृथ्वी पर गिर पड़ी और अनेक प्रकार से दारुण विलाप करने लगी। पश्चात उस मुनि से कहा – हे कृपानिधे! आप मेरे इस पति को जीवित कर दीजिए। पतिव्रता दैत्य पत्नी ऎसा कहकर दुखी श्वासों को छोड़कर मुनीश्वर के चरणों पर गिर पड़ी।

          तब मुनीश्वर ने कहा – यह शिवजी द्वारा युद्ध में मारा गया है, जीवित नहीं हो सकता क्योंकि जिसे भगवान शिव मार देते हैं वह कभी जीवित नहीं हो सकता परन्तु शरणागत की रक्षा करना सनतन धर्म है, इसी कारण कृपाकर मैं इसे जिलाए देता हूँ।

          नारद जी ने आगे कहा – वह मुनि साक्षात विष्णु ही थे जिन्होंने यह सब माया फैला रखी थी। वह वृन्दा के पति को जीवित कर के अन्तर्ध्यान हो गये। जलन्धर ने उठकर वृन्दा को आलिंगन किया और मुख चूमा। वृन्दा भी पति को जीवित हुआ देख अत्यन्त हर्षित हुई और अब तक हुई बातों को स्वप्न समझा। तत्पश्चात वृन्दा सकाम हो बहुत दिनों तक अपने पति के साथ विहार करती रही। एक बार सुरत एवं सम्भोग काल के अन्त में उन्हीं विष्णु को देखकर उन्हें ताड़ित करती हुई बोली – हे पराई स्त्री से गमन करने वाले विष्णु! तुम्हारे शील को धिक्कार है। मैंने जान लिया है कि मायावी तपस्वी तुम्हीं थे।

          इस प्रकार कहकर कुपित पतिव्रता वृन्दा ने अपने तेज को प्रकट करते हुए भगवान विष्णु को शाप दिया – तुमने माया से दो राक्षस मुझे दिखाए थे वही दोनों राक्षस किसी समय तुम्हारी स्त्री ला हरण करेगें। सर्पेश्वर जो तुम्हारा शिष्य बना है, यह भी तुम्हारा साथी रहेगा जब तुम अपनी स्त्री के विरह में दुखी होकर विचरोगे उस समय वानर ही तुम्हारी सहायता करेगें।

          ऎसा कहती हुई पतिव्रता वृन्दा अग्नि में प्रवेश कर गई। ब्रह्मा आदि देवता आकाश से उसका प्रवेश देखते रहे। वृन्दा के शरीर का तेज पार्वती जी के शरीर में चला गया। पतिव्रत के प्रभाव से वृन्दा ने मुक्ति प्राप्त की।


🚩जय श्रीराधे कृष्णा🚩


कार्तिक माहात्म्य --18


अध्याय - 18


          अब रौद्र रूप महाप्रभु शंकर नन्दी पर चढ़कर युद्धभूमि में आये। उनको आया देख कर उनके पराजित गण फिर लौट आये और सिंहनाद करते हुए आयुद्धों से दैत्यों पर प्रहार करने लगे। भीषण रूपधारी रूद्र को देख दैत्य भागने लगे तब जलन्धर हजारों बाण छोड़ता हुआ शंकर की ओर दौडा़। उसके शुम्भ निशुम्भ आदि वीर भी शंकर जी की ओर दौड़े। इतने में शंकर जी ने जलन्धर के सब बाण जालों को काट अपने अन्य बाणों की आंधी से दैत्यों को अपने फरसे से मार डाला।

          खड़गोरमा नामक दैत्य को अपने फरसे से मार डाला और बलाहक का भी सिर काट दिया। घस्मर भी मारा गया और शिवगण चिशि ने प्रचण्ड नामक दैत्य का सिर काट डाला। किसी को शिवजी के बैल ने मारा और कई उनके बाणों द्वारा मारे गये। यह देख जलन्धर अपने शुम्भादिक दैत्यों को धिक्कारने और भयभीतों को धैर्य देने लगा। पर किसी प्रकार भी उसके भय ग्रस्त दैत्य युद्ध को न आते थे जब दैत्य सेना पलायन आरंभ कर दिया, तब महा क्रुद्ध जलन्धर ने शिवजी को ललकारा और सत्तर बाण मारकर शिवजी को दग्ध कर दिया।

          शिवजी उसके बाणों को काटते रहे। यहां तक कि उन्होंने जलन्धर की ध्वजा, छत्र और धनुष को काट दिया। फिर सात बाण से उसके शरीर में भी तीव्र आघात पहुंचाया। धनुष के कट जाने से जलन्धर ने गदा उठायी। शिवजी ने उसकी गदा के टुकड़े कर दिये तब उसने समझा कि शंकर मुझसे अधिक बलवान हैं। अतएव उसने गन्धर्व माया उत्पन्न कर दी अनेक गन्धर्व अप्सराओं के गण पैदा हो गये, वीणा और मृदंग आदि बाजों के साथ नृत्य व गान होने लगा। इससे अपने गणों सहित रूद्र भी मोहित हो एकाग्र हो गये। उन्होंने युद्ध बंद कर दिया।

          फिर तो काम मोहित जलन्धर बडी़ शीघ्रता से शंकर का रूप धारण कर वृषभ पर बैठकर पार्वती के पास पहुंचा उधर जब पार्वती ने अपने पति को आते देखा, तो अपनी सखियों का साथ छोड़ दिया और आगे आयी। उन्हें देख कामातुर जलन्धर का वीर्यपात हो गया और उसके पवन से वह जड़ भी हो गया। गौरी ने उसे दानव समझा वह अन्तर्धान हो उत्तर की मानस पर चली गयीं तब पार्वती ने विष्णु जी को बुलाकर दैत्यधन का वह कृत्य कहा और यह प्रश्न किया कि क्या आप इससे अवगत हैं।

          भगवान विष्णु ने उत्तर दिया – आपकी कृपा से मुझे सब ज्ञात है। हे माता! आप जो भी आज्ञा करेंगी, मै उसका पालन करूंगा।

          जगतमाता ने विष्णु जी से कहा – उस दैत्य ने जो मार्ग खोला है उसका अनुसरण उचित है, मै तुम्हें आज्ञा देती हूं कि उसकी पत्नी का पतिव्रत भ्रष्ट करो, वह दैत्य तभी मरेगा।

          पार्वती जी की आज्ञा पाते ही विष्णु जी उसको शिरोधार्य कर छल करने के लिए जलन्धर के नगर की ओर गये।


🚩जय श्रीराधे कृष्णा🚩

Thursday, July 7, 2011

Aarti shri Lakshmi Ji ki




जय लक्ष्मी माता , मैया जय लक्ष्मी माता |
तुमको निशदिन सेवत हर विष्णु विधाता || ॐ 

उमा, रमा, ब्रह्माणी रुद्राणी तू ही जग माता |
सूर्य चंद्रमा ध्यावत, नारद ऋषि गाता || ॐ 

दुर्गा रूप निरंजनि, सुख सम्पति दाता |
जो कोई तुमको ध्यावत , रिधि सीधी धन पाता || ॐ 

तुम पाताल- निवासिनी , तू ही है शुभदाता |
कर्म-प्रभाव प्रकाशिनी , भवनिधि की त्राता || ॐ  

जिस घर तुम रहती , तहं सब सद्गुण आता |
सब सम्भव हो जाता, मन नहीं घबराता || ॐ 

तुम बिन यज्ञ न होते , वस्त्र न कोई पाता |
खान-पान का वैभव सब तुम से आता || ॐ 

शुभ- गुण मंदिर सुन्दर शीरोदधि जाता |
रतन चतुदर्श तुम बिन कोई नहीं पाता || ॐ 

महालक्ष्मी जी की आरती , जो कोई नर गाता |
उर आनन्द समाता, पाप उतर जाता || ॐ 


Maha Lakshmi Ji ki Aarti

 Om Jai Laxmi Mata, Maiya JaiLaxmi Mata,
Tumko nis din sevat, Hari, Vishnu Data || Om Jai Laxmi Mata

Uma Rama Brahmaani, Tum ho Jag Mata,
Maiya, Tum ho Jag Mata,
Surya ChanraMa dhyaavat, Naarad Rishi gaata. ||  Om Jai Laxmi Mata.

Durga Roop Niranjani, Sukh Sampati Data,
Maiya Sukh Sampati Data
Jo koyee tumko dhyaataa, Ridhee Sidhee dhan paataa || Om Jai Laxmi Mata.

Jis ghar mein tu rehtee, sab sukh guna aataa,
Maiya sab sukh guna aataa,
Taap paap mit jaataa, Man naheen ghabraataa. || Om Jai Laxmi Mata

Dhoop Deep phal meva, Ma sweekaar karo,
Maiya Ma sweekaar karo,
Gyaan prakaash karo Ma, Moha agyaan haro. || Om Jai Laxmi Mata.

Maha Laxmiji ki Aarti, nis din jo gaavey
Maiya nis din jo gaavey, Dukh jaavey, sukh aavey,
Ati aananda paavey.||  Om Jai Laxmi Mata.

Jai Laxmi Mata  ||





Song: Lakshmi Mata ji ki Aarti
Singer(s): Alka Yagnik