Friday, July 30, 2021

Bhagwan Shri Krishan Mantra with meaning (भगवान श्रीकृष्ण के प्रसिद्ध मंत्र अर्थ सहित)



ॐ कृं कृष्णाय नम:
 
सच्चिदानंद रूपाय विश्वोत्पत्यादिहेतवे, तापत्रय विनाशाय श्री कृष्णाय वयं नम: ॥
(हे श्रीकृष्ण! ... हे योगिराज कृष्ण! आपके महान गीता ज्ञान का आलोक आज तक हमारा पथप्रदर्शक है लेकिन हम मर्त्य प्राणी आपके इस अपार सामर्थ्य को भूलकर उस माया में डूबे हुए हैं जो हमें आपके वास्तविक स्वरुप का भान नहीं होने देती है.)

वसुदेवसुतं देवं कंसचाणूरमर्दनम्। देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम।।

( कंस और चाणूर का वध करने वाले देवकी के आनंदवर्धन, वासुदेवनन्दन जगद्गुरु श्रीकृष्ण चंद्र की मैं वन्दना करता हूं)

वृन्दावनेश्वरी राधा कृष्णो वृन्दावनेश्वर:। जीवनेन धने नित्यं राधाकृष्णगतिर्मम।।

( श्री राधारानी वृन्दावन की स्वामिनी हैं और भगवान श्रीकृष्ण वृन्दावन के स्वामी हैं, इसलिए मेरे जीवन का प्रत्येक क्षण श्रीराधा-कृष्ण के आश्रय में व्यतीत हो)

महामायाजालं विमलवनमालं मलहरं, सुभालं गोपालं निहतशिशुपालं शशिमुखम। कलातीतं कालं गतिहतमरालं मुररिपुं
( जिसका मायारूपी महाजाल है जिसने निर्मल वनमाला धारण किया है, जो मलका अपहरण करने वाला है, जिसका सुंदरभाल है, जो गोपाल है, शिशुवधकारी हैं, जिसका चांद सा मुखड़ा है, जो संपूर्ण कलातीत हैं, काल हैं, अपनी सुन्दर गति से हंस का भी विजय करने वाला है, मूर दैत्य का शत्रु है, अरे, उस परमानन्दकन्द गोविंद का सदैव भजन कर)

कृष्ण गोविंद हे राम नारायण, श्रीपते वासुदेवाजित श्रीनिधे। अच्युतानन्त हे माधवाधोक्षज, द्वारकानायक द्रौपदीरक्षक।।
( हे कृष्ण, हे गोविन्द, हे राम, हे नारायण, हे रमानाथ, हे वासुदेव, हे अजेय, हे शोभाधाम, हे अच्युत, हे अनन्त, हे माधव, हे अधोक्षज ( इंद्रियातीत), हे द्वारकानाथ, हे द्रौपदीरक्षक मुझ पर कृपा कीजिये।

अधरं मधुरं वदनं मधुरं नयनं मधुरं हसितं मधुरं। हृदयं मधुरं गमनं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम्।।
( श्री मधुरापधिपति का सभी कुछ मधुर है। उनके अधर मधुर हैं। मुख मधुर है, नेत्र मधुर हैं, हास्य मधुर है और गति भी अति मधुर है। )

इन आठ मंत्रों से करें जन्माष्टमी पूजन

सभी प्रकार के कष्टों के निवारण के लिए प्रमुख बीज मंत्र

1.      ॐ  कृं कृष्णाय नम:

(भगवान श्रीकृष्ण का बताया हुआ बीज मंत्र हैं। एक माला जाप करने से ही सारे कष्ट दूर हो जाते हैं।

2.      ॐ  श्रीं नम: श्रीकृष्णाय परिपपूर्णतमाय स्वाहा ( सप्तदशाक्षर महामंत्र है। आर्थिक संकट समाप्त होते हैं)

3.      ॐ  गोवल्लभाय स्वाहा ( दो शब्दों का यह मंत्र चमत्कारी है। इस मंत्र से सारे कष्ट दूर होते हैं। वाणी मधुर होती है। कार्य में सफलता प्राप्त होती है)

4.      गोकुलनाथाय नम: ( आठ अक्षरों वाला यह मंत्र सभी इच्छाओं की पूर्ति करता है)

5.      ॐ क्लीं ग्लौं क्लीं श्यामलांगाय नम: ( आर्थिक संकट दूर होते हैं)

6.      ॐ  नमो भगवते वासुदेवाय नम: ( हर प्रकार के कार्यो की सिद्धि का महामंत्र)

7.      ॐ  नारायणाय विद्महे, वासुदेवाय धीमहि, तन्नो कृष्ण: प्रचोदयात ( श्रीकृष्ण गायत्री। सर्व कार्य सिद्धि)

8.      ॐ  श्री कृष्णाय नम:   

Monday, July 26, 2021

Shri SatyanarayanVarat Katha(श्री सत्यनारायण व्रत कथा)

  



            एक समय नैमिषारण्य तीर्थ में शौनकादि अठासी हजार ऋषियों ने सूत जी से पूछा-' हे प्रभु! इस कलियुग में वेद-विद्या रहित मनुष्यों को प्रभु भक्ति किस प्रकार मिलेगी तथा उनका उद्धार कैसे होगा? हे मुनि श्रेष्ठ! कोई ऐसा तप कहिए जिससे थोड़े समय में पुण्य प्राप्त होवे तथा मनवांछित फल मिले, ऐसी कथा सुनने की हमारी इच्छा है। सर्वशास्त्रज्ञाता श्री सूतजी बोले-' हे वैष्णवों में पूज्य! आप सबने प्राणियों के हित कौ बात पूछी है। अब मैं उस श्रेष्ठ व्रत को आप लोगों से कहूँगा, जिस व्रत को नारदजी ने लक्ष्मी नारायण भगवान से पूछा था और लक्ष्मीपति ने मुनिश्रेष्ठ नारदजी से कहा था, सो ध्यान से सुनो  - 

            एक समय योगीराज नारदजी दूसरों के हित की इच्छा से अनेक लोकों में घूमते हुए मृत्यलो क में आ पहुंचे । यहाँ अनेक योनियों में जन्मे हुए प्राय: सभी  मनुष्यों अपने कर्मों के अनुसार अनेकों दुखों से पीड़ित देखा कर सोचा,किस यत्न के करने से निश्चय ही प्राणियों के दुखों क का नाश हो सकेगा। ऐसा मन में सोचकर विष्णुलोक को गये। वहाँ एवेत वर्ण और चार भुजाओं वाले देवों के ईश नारायण को देख कर , जिनके हाथों में शंख , चक्र , गदा ,और पदम् थे तथा वरमाला पहने हुए थे, स्तुति करने लगे-"हे भगवन !अत्यन्त शक्ति से सम्पन्न हैं। मन तथा वाणी भी आपको नहीं पा सकती ,आपका आदि-मध्य-अन्त भी नहीं है। आप निर्गुण स्वरूप, सृष्टि के आदि भूत व भक्तों के दुखों को नष्ट करने वाले हो। आपको मेरा नमस्कार है। '' नारदजी से इस प्रकार की स्तुति सुनकर विष्णु भगवान् बोले- हे मुनिश्रेष्ठ! आपके मन में क्या है? आपका किस काम के लिये आगमन हुआ है  नि:संकोच कहें | 

            तब नारद मुनिबोले -' ' मृत्युलोक में सब मनुष्य जो अनेक योनियों में पैदा हुए हैं. अपने-अपने कर्मों के द्वारा अनेक प्रकार के मे दुखों से दुखी हो रहे हैं। हे नाथ! यदि आप मुझ पर दया रखते हो तो तो बतलाइये कि उन मनष्यों के सब दुःख थोड़े से ही प्रयत्न से कैसे दूर हो सकते है?" श्री विष्णु भगवान् जी बोले- " हे नारद! मनुष्यों की भलाई के लिए बहुत ही अच्छी बात पूछी है | जिस काम के करने से मनुष्य मोह से छूट जाता है वह में कहता हूँ, सुनो- बहुत पुण्य देने वाला, स्वर्ग तथा मृत्यलोक दोनों में दुर्लभ एक उत्तम व्रत है। आज मैं प्रेमवश हो कर तुमसे कहता हूँ | श्री सत्यनारायण भगवान् का यह व्रत अच्छी तरह विधि पूर्वक करके मनुष्य धरती पर आयुपर्यन्त सुख भोगकर मरने पर मोक्ष को गे प्राप्त होता है |" श्री भगवान् के वचन सुनकर नारद मुनि बोले -,"हे भगवान ! उस व्रत का फल क्या है , क्या विधान है और किसने यह व्रत  है और किस दिन यह व्रत करना चाहिए ? विस्तार से कहिये |" 

                विष्णु भगवान् बोले -" हे नारद ! दुःख शोक आदि को दूर करने वाला , धन - धान्य को बढ़ाने वाला ,सौभाग्य तथा संतान को देने वाला यह व्रत सब स्थानों पर विजयी करने वाला है | भक्ति और श्रद्धा के साथ किसी भी दिन मनुष्य श्री सत्यनारायण की  प्रात: काल के समय ब्राह्मणों और बंधुओ के साथ धर्म परायण होकर पूजा करें | भक्ति भाव से नैवेद्य , केले का फल, शहद , घी , दूध और गेहूँ का आटा सवाया लेवे | ( गेहूँ  के आभाव में साठी का चूर्ण ले सकते है |) और सब पदार्थों को भगवान् के अर्पण कर दे तथा  बंधुओ  सहित ब्राह्मणों को भोजन करवाएं , पश्चात स्वयं भोजन करें | रात्रि में नृतय ,संगीत आदि का आयोजन कर सत्यनारायण भगवान् का स्मरण करते हुए समय व्यतीत करें | इस तरह व्रत करने पर मनुष्य की इच्छा निश्चय पूरी होती है | विशेष रूप से कलि - काल में भूमि पर वही एक मोक्ष का सरल उपाय है | 

|| बोलो श्री सत्यनारायण भगवान् की जय || 

|| इति श्री सत्यनारायण व्रत कथा || 

Friday, July 23, 2021

Margsheersh Shukalpaksh "Moksha" Ekadashi Mhatamye (मार्गशीर्ष शुक्लपक्षकी “मोक्षा' एकादशीका माहात्म्य)

 



युधिष्ठिर बोले-- देवदेवेश्वर! मैं पूछता हूँ ," मार्गशीर्ष मास के शुक्ल पक्ष में जो एकादशी होती है उसका क्या नाम है ? कौन  सी व्रत विधि है तथा इस में किस देवता का पूजन किया जाता है ?" स्वामिन ! यह सब यथार्थ रूप से बताइये | 

श्री कृष्ण ने कहा ,''  मार्गशीर्षमसके कृष्ण पक्ष की "उत्पत्ति" (उत्तपन्ना ) नाम की एकादशी होती है जिसका वर्णन मैंने तुम्हारे समक्ष कर दिया है | अब शुक्लपक्षकी एकादशी का वर्णन करूंगा , जिसके श्रवणमात्रसे वाजपेय- यज्ञका फल मिलता है |  उसका नाम है-- 'मोक्षा' एकादशी , जो सब पापों का अपहरण करने वाली है | राजन्‌! उस दिन यत्नपूर्वक तुलसीकी मंजरी तथा धूप-दीपादिसे भगवान्‌ दामोदरका पूजन करना चाहिये। पूर्वोक्त विधिसे ही दशमी और एकादशीके नियमका पालन करना उचित है। मोक्षा एकादशी बड़े-बड़े पातकोंका नाश करनेवाली है।उस दिन रात्रि में मेरी प्रसन्‍नताके लिये नृत्य, गीत और स्तुतिके द्वारा जागरण करना चाहिये। जिसके पितर पापवश नीच योनिमें पड़े हों, वे इसका पुण्य-दान करनेसे मोक्षको प्राप्त होते हैं। इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। पूर्वकालकी बात है, वैष्णवों से विभूषित परम रमणीय चम्पक नगरमें वैखानस नामक राजा रहते थे। वे अपनी प्रजाका पुत्रकी भाँति पालन करते थे। इस प्रकार राज्य करते हुए राजाने एक दिन रातको स्वप्ममें अपने पितरोंको नीच योनि में पड़ा हुआ देखा। उन सबको इस अवस्थामें देखकर राजाके मनमें बड़ा विस्मय हुआ और प्रातःकाल ब्राह्मणोंसे उन्होंने उस स्वप्न का सारा हाल कह सुनाया।

 राजा बोले- ब्राह्मणो! मैंने अपने पितरोंको नरकमें  गिरा देखा है। वे बारम्बार रोते हुए मुझसे यों कह रहे थे कि ' तुम हमारे तनुज हो, इसलिये इस नरक-समुद्रसे हमलोगोंका उद्धार करो।' द्विजवरो! इस रूपमें मुझे पितरोंके दर्शन हुए हैं। इससे मुझे चैन नहीं मिलता। क्या करूँ, कहाँ जाऊँ? मेरा हृदय रुँधा जा रहा है। द्विजोत्तमो! वह व्रत, वह तप और वह योग, जिससे तत्काल नरकसे छुटकारा पा जाये, बतानेकी कृपा करें | मुझ बलवान एवं साहसी पुत्रके जीते-जी मेरे माता-पिता घोर नरक में पड़े हुए हैं अतः ऐसे पुत्रसे क्या लाभ है।

ब्राह्मण बोले-- राजन! यहाँसे निकट ही पर्वत मुनि का महान आश्रम है | वे भूत और भविष्य के भी ज्ञाता हैं | नृपश्रेष्ठ ! आप उनके पास चले जाइये | 

    ब्राह्मणो की बात सुनकर महाराज वैखानस शीघ्र ही पर्वत मुनि के आश्रम पर गए और वहाँ उन मुनिश्रेष्ठ को देखकर उन्होंने दण्डवत्‌-प्रणाम करके मुनिके चरणोंका स्पर्श किया। मुनिने भी राजासे राज्यके सातों अंगोंकी कुशल पूछी।

राजा बोले-- स्वामिन्‌! आपकी कृपासे मेरे राज्यके सातों अंग सकुशल हैं। कल मैंने स्वप्ममें देखा है कि मेरे पितर नरकमें पड़े है | अतः बताइए किस पुण्यके प्रभावसे उनका वहाँसे छुटकारा होगा ? 

       राजा  सुन कर मुनि श्रेष्ठ पर्वत एक मुहूर्त तक ध्यानस्थ रहे। इसके बाद वे राजासे बोले--" महाराज! मार्गशीर्षमासके शुक्लपक्षमें जो 'मोक्षा' नामकी एकादशी होती है, तुम सब लोग उसका व्रत करो और उसका पुण्य पितरोंको दे डालो। उस पुण्यके प्रभावसे उनका नरकसे उद्धार हो जायगा | "

    भगवान्‌ श्रीकृष्ण कहते हैं-- युधिष्ठिर! मुनिकी यह बात सनकर राजा पुनः अपने घर लौट आये। जब उत्तम मार्गशीर्षमास आया, तब राजा वैखानसने मुनिके कथनानुसार 'मोक्षा' एकादशीका  व्रत करके उसका पुण्य समस्त पितरो सहित पिता को दे दिया। पुण्य देते ही क्षणभरमें आकाशसे फूलोंकी वर्षा होने लगी।बैखानस के पिता पितरोंसहित नरकसे छुटकारा पा गये और आकाशमें आकर राजाके प्रति यह पवित्र वचन बोले-- बेटा! तुम्हारा कल्याण हो।' यह कहकर वे स्वार्गमें चले गये। राजन!जो इस प्रकार कल्याणमयी 'मोक्षा' एकादशीका व्रत करता है, उसके पाप नष्ट हो जाते हैं और मरनेके बाद वह मोक्ष प्राप्त कर लेता है। यह मोक्ष देनेवाली 'मोक्षा' एकादशी मनुष्योंके लिये चिन्तामणिके समान समस्त कामनाओंको पूर्ण करनेवाली है। इस महात्मय के पढ़ने और सुननेसे वाजपेय-यज्ञका फल मिलता है।

            || इति श्री मार्गशीर्ष शुक्लपक्षकी “मोक्षा' एकादशीका महात्मय || 

Thursday, July 22, 2021

Vrahspativaar Varat Katha (बृहस्पतिवार व्रत कथा )

            



             प्राचीन समय की बात है। भारत में एक राजा राज्य करता था। वह बड़ा प्रतापी तथा दानी था। वह नित्यप्रति मन्दिर में भगवान के दर्शन करने जाता था। वह ब्राह्मण और गुरु की सेवा किया करता -था। उसके द्वार से कोई भी याचक निराश होकर नहीं लौटता था। वह प्रत्येक गुरुवार को व्रत रखता एवं पूजन करता था। हर दिन गरीबों की सहायता करता था। परन्तु यह सब बातें उसकी रानी को अच्छी नहीं लगती थी, वह न व्रत करती और न किसी को एक भी पैसा दान में देती थी। वह राजा से भी ऐसा करने को मना किया करती थी। एक समय की बात है कि राजा शिकार खेलने वन को चले गए। घर पर रानी और दासी थीं। उस समय गुरु बृहस्पति साधु का रूप धारण कर राजा के दरवाजे पर भिक्षा माँगने आए। साथु ने रानी से भिक्षा माँगी तो वह कहने लगी- “हे साधु महाराज! मैं इस दान और पुण्य से तंग आ गई हूँ। इस कार्य के लिए तो मेरे पतिदेव ही बहुत हैं। अब आप ऐसी कृपा करें कि सारा धन नष्ट हो जाए तथा मैं आराम से रह सकूँ।”

                 साधु रूपी बृहस्पतिदेव ने कहा-“हे देवी! तुम बड़ी विचित्र हो। सन्तान और धन से कोई दुःखी नहीं होता है, इसको सभी चाहते हैं। पापी भी पुत्र और धन की इच्छा करता है। अगर तुम्हारे पास धन अधिक है तो भूखे मनुष्यों को भोजन कराओ, प्याऊ लगवाओ, ब्राह्मणों को दान दो, धर्मशालाएँ बनवाओ, कुआँ-तालाब, बावड़ी-बाग-बगीचे आदि का निर्माण कराओ तथा निर्धनों की कुँआरी कन्याओं का विवाह कराओ, साथ ही यज्ञादि करो। इस प्रकार के कर्मों से आपके कुल का और आपका नाम परलोक में भी सार्थक होगा एवं तुम्हें भी स्वर्ग की प्राप्ति होगी।” परन्तु रानी साधु की इन बातों से खुश नहीं हुई। उसने कहा-“हे साधु महाराज! मुझे ऐसे धन-की आवश्यकता नहीं- जिसको मैं अन्य लोगों को दान देती-फिरूँ तथा जिसको रखने और सम्हालने में ही मेरा सारा समय नष्ट हो जाए।” साधु ने कहा-“हे देवी! यदि तुम्हारी ऐसी ही इच्छा है तो जैसा मैं तुम्हें बताता हूँ तुम वैसा ही करना। बृहस्पतिवार के दिन घर आंगन को गोबर से लीपना, अपने केशों को पीली-मिट्टी से धोना, केशों को धोते समय स्नान करना, राजा से कहना वह हजामत करवाए, भोजन में मांस-मदिरा खाना, कपड़े धोबी के यहाँ धुलने देना। इस प्रकार सात बृहस्पतिवार करने से तुम्हारा सारा धन नष्ट हो जाएगा।” यह कहकर साधु महाराज रूपी बृहस्पतिदेव अन्तर्धान हो गए। 

            रानी ने साधु के कहने के अनुसार सात बृहस्पतिवार तक वैसा ही करने का विचार किया। साधु के बताए अनुसार कार्य करते हुए केवल तीन बृहस्पतिवार ही बीते थे कि उसकी समस्त धन-सम्पत्ति नष्ट हो गई। भोजन के लिए दोनों समय परिवार तरसने लगा तथा सांसारिक भोगों से दुःखी रहने लगा। तब राजा रानी से कहने लगा कि हे रानी!'तुम यहाँ पर रहो, मैं दूसरे: देश को जाता हूँ । क्योंकि यहां पर मुझे सभी मनुष्य जानते हैं, इसलिए मैं यहाँ पर कोई काम नहीं कर सकता। मैं अब परदेश जा रहा हूँ। वहाँ कोई काम-धन्धा करूँगा। शायद हमारे “भाग्य बदल जाएँ। ऐसा कंहकर राजा परदेश चला गया। वह वहाँ जंगल से लकड़ी काटकर लाता और शहर में बेचता। इस तरह जीवन व्यतीत करने लगा। इधर राजा के बिना रानी और दासियाँ दुःखी रहने लगीं, किसी दिन भोजन मिलता और किसी दिन जल पीकर ही रह जातीं। एक समय रानी और दासियों को सात दिन बिना भोजन के व्यतीत करने पड़े, तो रानी ने अपनी दासी से कहा-“हे दासी! यहाँ पास ही के नगर में मेरी बहन रहती है। वह बड़ी धनवान है। तू उसके पास जा और वहाँ से पाँच सेर बेझर माँगकर ले आ, जिससे कुछ समय के लिए गुजारा हो जाएगा।”

         दासी रानी की बहन के पास गई। रानी की बहन उस समय पूजा कर रही थी। बृहस्पतिवार का दिन था। दासी ने रानी की बहन से कहा-'हे रानी! मुझे आपकी बहन ने भेजा है। मुझे पाँच सेर बेझर दे दो।” दासी ने यह बात अनेक बार कही, परन्तु रानी की बहन ने कोई उत्तर नही दिया, क्योंकि वह उस समय बृहस्पतिवार की कथा सुन रही थी। जब दासी को रानी की बहन से कोई उत्तर नहीं मिला तो वह बहुत दुःखी  हुई। उसे क्रोध भी आया। वह लौटकर रानी से बोली-“हे रानी! आपकी बहन बहुत ही घमण्डी है। वह छोटे लोगों से बात भी नहीं करती। मैंने उससे कहा तो उसने कोई उत्तर नहीं दिया। मैं वापस चली आई।” रानी बोली-“हे दासी!  इसमे उसका कोई दोष नहीं है जब बुरे दिन आते हैं तब कोई सहारा नही देता। अच्छे-बुरे का पता विपत्ति में ही लगता है। जो ईश्वर की इच्छा होगी वही होगा। यह सब हमारे भाग्य का दोष है।” 

        उधर रानी की बहन ने सोचा कि मेरी बहन की दासी आई थी, परन्तु मैं उससे नही बोली, इससे वह बहुत दुःखी हुई होगी। अतः कथा सुन और विष्णु -भगवान्‌ का पूजन समाप्त कर वह अपनी बहन के घर आई और कहने लगी-“हे बहन! मैं बृहस्पतिवार का व्रत  कर रहीं थी। तुम्हारी दासी हमारे घर गई थी, परन्तु जब तक कथा होती है तब तक हम लोग न उठते हैं और न बोलते हैं, इसलिए मैं नहीं बोली। कहो, दासी क्‍यों गई थी?” रानी बोली- “बहन! हमारे घर अनाज नहीं था। वैसे तुमसे कोई बात छिपी | है। इस कारण मैंने दासी को तुम्हारे पास पाँच सेर बेझर लेने के लिए भेजा था।” रानी की बहन बोली-“बहन देखो! बृहस्पति भगवान्‌ सबकी मनोकामना पूर्ण करते हैं। देखो; शायद तुम्हारे घर में ही अनाज रखा हो ।” यह सुनकर दासी घर के अन्दर गई तो वहां उसे एक घड़ा बेझर का भरा मिल गया। उसे बड़ी हैरानी हुई, क्योंकि उसने एक-एक बर्तन देख लिया था। उसने बाहर आकर रानी को बताया। दासी अपनी रानी से कहने लगी-- “हे रानी! देखो, वैसे हमको जब अन्न नहीं मिलता तो हम रोज ही व्रत करते हैं | अगर इनसे व्रत की विधि पूछ ली जाये तो उसे हम भी कर लिया करेंगे | "

        दासी के कहने पर रानी ने अपनी बहन से बृहस्पतिवार व्रत के बारे में पूछा। उसकी बहन ने बताया- “हे रानी बहन! बृहस्पतिवार को सूर्योदय से पूर्व उठकर स्नान करके बृहस्पतिवार का व्रत करना चाहिए । लेकिन उस दिन सिर नहीं धोना चाहिए । बृहस्पतिवार के व्रत में चने की दाल और मुनक्कों से विष्णु भगवान्‌ का केले के वृक्ष की जड़ से पूजन करें तथा द्वीपक जलावें। उस दिन एक ही समय भोजन करें। भोजन पीले खाद्य पदार्थ का करें तथा कथा सुनें। इस प्रकार करने. से गुरु भगवान्‌ प्रसन्‍न होते हैं। अन्न, पुत्र, धन देते हैं। इस तरह व्रतऔर पूजन की विधि बताकर रानी की बहन अपने घर लौट गई।

        रानी और दासी दोनों ने निश्चय किया कि वे बृहस्पतिदेव भगवान्‌ का पूजन जरूर करेंगी | जब  सात दिन बाद बृहस्पतिवार आया तो उन्होंने व्रत रखा |घुड़साल में जा कर गुड़ और चना बीन लाईं | तथा उसकी दाल से केले की जड़ में विष्णु भगवान्‌ का पूजन किया। अब भोजन कहाँ से आए। दोनों बड़ी दुःखी हुईं परन्तु उन्होंने व्रत किया था इस कारण बृहस्पतिदेव भगवान्‌ प्रसन्‍न थे। वे एक साधारण व्यक्ति के रूप में दो थालों में सुन्दर भोजन ले कर आए और दासी को देकर बोले-“हे दासी! यह भोजन तुम्हारे और रानी के लिए है, तुम दोनों करना।” दासी भोजन पाकर बड़ी प्रसन्‍न हुई और रानी से बोली-“रानी जी, भोजन कर लो।” रानी को भोजन आने के बारे में कुछ पता नहीं था इसलिए वह दासी से बोली-“जा, तू ही भोजन कर क्‍योंकि तू हमारी व्यर्थ में हँसी उड़ाती है।” दासी बोली- “एक व्यक्ति अभी भोजन दे गया है।” रानी कहने लगी- “वह भोजन तेरे ही लिए दे गया है, तू ही भोजन कर।” 

        दासी ने कहा-“वह व्यक्ति हम दोनों के लिए दो थालों में भोजन दे गया है। इसलिए मैं और आप दोनों ही साथ-साथ भोजन करेंगी।” फिर दोनों ने गुरु भगवान्‌ को नमस्कार कर भोजन प्रारम्भ किया। उसके बाद से वे प्रत्येक बृहस्पतिवार को गुरु भगवान्‌ का व्रत और पूजन करने लगीं। बृहस्पति भगवान्‌ की कृपा से उनके पास धन हो गया। परन्तु रानी फिर पहले की तरह से आलस्य करने लगी। तब दासी बोली-“देखो रानी! तुम पहले भी इस प्रकार आलस्य करती थीं, तुम्हें धन के रखने में कष्ट होता था, इस कारण सभी धन नष्ट हो गया। अब गुरु भगवान्‌ की कृपा से धन मिला है तो फिर तुम्हें आलस्य होता है?बड़ी मुसीबतो के बाद हमने यह धन पाया है। इसलिए हमें दान-पुण्य करना चाहिए तुम भूखे मनुष्यों को भोजन कराओ, प्याऊ लगवाओ, ब्राह्मणों को दान दो, कुआँ-तालाब-बावड़ी आदि का निर्माण करवाओ, मन्दिर-पाठशाला बनवाकर दान दो, कुँवारी कन्याओं का विवाह करवाओ, धन को शुभ कार्यों में खर्च करो, जिससे तुम्हारे कुल का यश बढ़े तथा स्वर्ग प्राप्त हो और पितृ प्रसन्‍न हों।” दासी की बात मानकर रानी ने इसी प्रकार के कर्म करने प्रारम्भ किए, जिससे उनका काफी यश फैलने लगा। एक दिन रानी और दासी आपस में विचार करने लगीं कि न जाने राजा किस दशा में होंगे, उनकी कोई भी खोज-खबर नहीं है।

             गुरु भगवान्‌ से उन्होंने प्रार्थना की और भगवान्‌ ने रात्रि में राजा को स्वप्न में कहा-“हे राजा उठ! तेरी रानी तुझकों याद करती है। अब अपने देश को लौट जा।” राजा प्रातःकाल उठकर, जंगल से लकड़ियाँ काटकर लाने के लिए जंगल की ओर चल पड़ा। जंगल से गुजरते हुए वह सोचने लगा-“रानी की गलती से कितने दुःख भोगने पड़े। राजपाट छोड़कर उसे जंगल में आकर रहना पड़ा। जंगल से लकड़ियाँ काटकर उन्हें बेचकर गुज़ारा करना पड़ा। उसी समय उस जंगल में बृहसपतिदेव एक साधु का रूप धारण कर आए और राजा के पास आकर बोले-“हे लकड़हारे! तुम इस सुनसान जंगल में किस चिन्ता में बैठे हो, मुझे बतलाओ? ” यह सुन राजा के नेत्रों में जल भर आया और साधु की वन्दना कर बोला-“हे प्रभो! आप सब कुछ जानने वाले हैं।” इतना कहकर राजा ने साधु को अपनी सम्पूर्ण कहानी सुना दी। महात्मा तो स्वाभाव से ही दयालु होते हैं। वे राजा से बोले-“हे राजा! तुम्हारी पत्नी ने बृहस्पतिदेव के प्रति अपराध किया था जिसके कारण तुम्हारी यह दशा हुई। अब तुम किसी प्रकार की चिन्ता मत करो। भगवान्‌ तुम्हें पहले से अधिक धन देंगे। देखो, तुम्हारी पत्नी ने बृहस्पतिवार का व्रत करना प्रारम्भ कर दिया है। अब तुम भी बृहस्पतिवार का व्रत करके चने की दाल व गुड़ और जल को लोटे में डालकर केले के पत्ते से भगवान्‌ विष्णु का पूजन करो। फिर कथा कहो या सुनो। भगवान्‌ भगवान् तुम्हारी सब कामनाओं 'को पूर्ण करेंगे।” साधु को प्रसन्‍न देखकर राजा बोला-“हे प्रभो! मुझे लकड़ी बेचकर इतना पैसा भी नहीं बचता जिससे भोजन करने के उपरान्त कुछ बचा सकूँ। मैंने रात्रि में अपनी रानी को व्याकुल देखा है मेरे पास कोई साधन नहीं जिससे समाचार जान सूकूँ। फिर मैं बृहस्पतिवार की कौन सी कहानी कहूँ या सुनूं। मुझको तो कुछ भी मालूम नहीं है।” साधु ने कहा- “हे राजा! तुम किसी बात की चिन्ता मत करो। बृहस्पतिवार के दिन तुम रोजाना की तरह लकड़ियाँ लेकर शहर में जाओ। तुम्हें रोज से दोगुना धन प्राप्त होगा, जिससे तुम भली-भाँति भोजन कर लोगे तथा बृहस्पतिदेव की पूजा का सामान भी आ जाएगा।” बृहस्पतिदेव की कथा इस प्रकार है-

बृहस्पतिवार व्रत कथा         

प्राचीन काल में एक बहुत ही निर्धन ब्राह्मण था। उसके कोई संतान नहीं थी। वह नित्य 'पूजा-पाठ करता परन्तु उसकी स्त्री बहुत मलीनता के साथ रहती थी। वह न.स्नान करती और न किसी देवता का पूजन करती।प्रातःकाल उठते ही सर्वप्रथम भोजन करती, बाद में कोई अन्य कार्य करती। ब्राह्मण देवता बहुत दुःखी रहंते थे। पत्नी को बहुत समझाते , किन्तु उसका कोई परिणाम ननिकलता। भगवान्‌ की अनुकम्पा से एक सम्य उस ब्राह्मण की पत्नी गर्भवती हुई और दसवें महीने एक सुन्दर कन्या को जन्म दिया। निर्धन ब्राह्मण कन्या के जन्म से बहुत दुखी हुआ। धीरे-धीरे ब्राह्मण की कन्या. बड़ी होने. लगी। बचपन से ही उस कन्या की रुचि भगवान विष्णु की पूजा में थी। वह प्रातः उठते ही स्नानादि करके भगवान्‌ विष्णु की पूजा करने मंदिर मे जाती थी। बृहस्पतिवार को व्रत करके विधिवत्‌ पूजा-पाठ करती थी। पूजा-पाठ के बाद वह पढ़ने के लिए पाठशाला में जाती थी। घर से चलते हुए वह मुट्ठी भर जौ साथ लेकर जाती और पाठशाला के रास्ते में थोड़े-थोड़े जौ गिराती जाती थी। जब वह पाठशाला से घर लौटती तो जौ के वह दाने सोने में बदले हुए मिलते थे। लड़की सभी सोने के दाने बीन लाती थी। एक दिन जब वह सोने के दानों को साफ कर रहीं थी तो उसकी माँ ने कहा, “बेटी ! सोने के दानों को साफ़ करने के लिए सोने का सूप भी होना चाहिए।” अगले दिन बृहस्पतिवार था। उसने भगवान्‌ बृहस्पतिदेव की पूजा करते हुए प्रार्थना की, “हे भगवान! यदि मैंने आपका व्रत विधिवत्‌ किया हो तो मुझे सोने का सूप दे दो।” 

            भगवान्‌ बृहस्पतिदेव ने उसकी मनोकामना पूरी करने का वचन दिया। पाठशाला से लौटते समय उसे रास्ते में सोने का सूप पड़ा हुआ मिला। घर लौटकर सोने का सूप अपनी माँ को दिखाकर वह सोने के दाने साफ करने लगी। उसी समय नगर का राजकुमार उसके घर के पास से गुजरा। उस सुन्दर लड़की को सोने के सूप में जौ के दाने साफ करते देख राजकुमार उस पर मोहित हो गया। महल में लौटकर राजकुमार ने राजा से उस लड़की से विवाह करने की इच्छा प्रकट की तो राजा ने ब्राह्मण को महल में बुलाकर राजकुमार से उसकी लड़की के विवाह की बात कही। ब्राह्मण तैयार हो गया। धूमधाम से उस लड़की का विवाह राजकुमार से हो गया। दुल्हन बनकर ब्राह्मण की लड़की महल में चली गई। लड़की के चले जाने से ब्राह्मण फिर निर्धन हो गया। उसे कई-कई दिन भोजन भी नहीं मिलता था। बहुत दुखी होकर ब्राह्मण एक दिन अपनी लड़की के पास गया। अपने पिता से निर्धनता का समाचार सुनकर उसे बहुत-सा धन देकर पिता को विदा किया। उस धन से ब्राह्मण के कुछ दिन तो आराम से गुजर गए। लेकिन जल्दी ही फिर भूखों मरने की हालत हो गई। ब्राह्मण अपनी लड़की से धन लेने के लिए फिर महल में पहुँचा। लड़की ने पिता की बुरी हालत देखकर कहा, “पिताजी! आखिर आप कब तक मुझसे धन लेकर जीवन-यापन करेंगे। आप कोई ऐसा उपाय क्‍यों नहीं करते जिससे आपका घर धन-सम्पत्ति से भर जाए।” 
         
           ब्राह्मण ने कहा, “मैंने तेरी माँ को बहुत समझा लिया, पर उसकी समझ में कुछ नहीं आता। उसका फूहड़पन नष्ट हो तो घर की निर्धनता भी दूर हो जाए।” तब कुछ सोचकर लड़की ने पिता से कहा, “पिताजी! आप कुछ दिनों के लिए माँ को मेरे पास छोड़ जाओ।” तब कुछ सोचकर ब्राह्मण पत्नी को लड़की के पास महल में छोड़ आया। लड़की ने अपनी माँ से कहा, “माँ, तुम कल प्रात: उठकर स्नानादि करके भगवान्‌ बृहस्पतिदेव (विष्णुजी ) की पूजा अवश्य करना। पूजा करने से तुम्हारी निर्धनता अवश्य दूर हो जाएगी।” लेकिन उसकी माँ  ने उसकी कोई बात नहीं मानी। तब क्रोधित होकर लड़की ने अपनी माँ को एक कक्ष में बंद कर दिया। सूर्योदय के समय माँ को उठाकर, जबरदस्ती उसे स्नान कराया और फिर मंदिर में ले जाकर भगवान् बृहस्पतिदेव की पूजा कराईं। कुछ
दिनों तक ऐसा करने से माँ की बुद्धि में परिर्वतन हुआ और वह स्वयं बृहस्पतिवार का व्रत रखने लगी। उसके व्रत रखने से ब्राह्मण के घर में भगवान्‌ विष्णु की अनुकम्पा से धन की वर्षा होने लगी। दोनों पति-पत्नी धन-सम्पत्ति पाकर आनंदपूर्वक जीवन-यापन करते हुए विष्णुधाम को चले गए | 

                लकड़हारा बने राजा ने उन साधु से भगवान्‌ बृहस्पतिदेव की यह कथा सुनकर बृहस्पतिवार का व्रत करके भगवान्‌ विष्णु की पूजा की। उस दिन से उसके सभी क्लेश दूर हो गए। लेकिन अगले बृहस्पतिवार को कामकाज में अधिक व्यस्त रहने के कारण उसने भगवान्‌ बृहस्पतिदेवजी का व्रत नहीं किया। भगवान बृहस्पतिदेव लकड़हारे से क्राधित हो गए और उसे भूल की सजा दी। उस दिन नगर के राजा ने नगर में घोषणा करके सबको सूचित किया, “प्रत्येक नागरिक मेरे महल में भोजन करने आए। जो नहीं आएगा, उसे अपराधी मानकर भारी दण्ड दिया जाएगा।” लकड़हारा बने राजा ने उसर नगर के राजा की घोषणा तो सुनी, लेकिन जंगल से लकड़ी काटकर लाने और उन्हें बेचने में देर हो जाने के कारण वह समय पर महल में भोजन करने नहीं जा सका; अतः राजा के सैनिक लकड़हारे को पकड़कर महल मे ले गए। राजा ने उसे महल के एक कक्ष में बैठाकर भोजन कराया। उस कक्ष में एक खूँटी पर रानी का सोने का हार लटका हुआ था। लकड़हारा अकेला उस कक्ष में भोजन कर रहा था। तभी उसने एक आएचर्यजनक घटना घटती देखी। देखते-ही देखते वह खूँटी हार को निगल गई। थोड़ी देर के बाद राजा ने हार को गायब देखा तो लकड़हारे को कारावास में डलवा दिया। 

            लकड़हारा मन-ही-मन अपने भाग्य को कोसने लगा। तभी उसे जंगल में मिले साधु का स्मरण हो आया। थोड़ी देर में भगवान्‌ बृहस्पतिदेव सन्यासी के रूप में उसके सामने प्रकट हुए और कहा, “हे लकड़हारे! तूने भगवान्‌ बृहस्वतिदेव की पूजा नहीं की, इसी कारण तुम्हें कष्ट हुआ है। लेकिन अब चिन्ता मत करो। बृहस्पतिवार के दिन कारागार के दरवाजे पर तुम्हें कुछ पैसे पड़े हुए मिलेंगे। उन पैसों से भगवान्‌ बृहस्पतिदेव का व्रत करके उनकी पूजा करोगे तो तुम्हारे सब दुःख नष्ट हो जाएंगे। बृहस्पतिवार के दिन दरवाजे पर पड़े मिले पैसों से चने और गुड़ मंगाकर लकड़हारे ने बृहस्पतिवार की कथा कही तो भगवान्‌ बृहस्पतिदेव ने प्रसन्‍त होकर उस नगर के राजा को स्वप्न में लकड़हारे को कारागार से मुक्त करने को कहा | सुबह राजा ने अपने कक्ष में आकर देखा तो खूँटी पर रानी का हार टंगा हुआ था। राजा ने लकड़हारे को मुक्त कर दिया और उसे धन और आभूषण देकर विदा किया। लकड़हारा बना राजा उस नगर से चलकर अपने नगर पहुँचा तो उस नगर में कुएँ, धर्मशाला, बाग-बगीचे देखकर बहुत प्रसन्‍न हुआ। राजा ने किसी से पूछा, “ये कुएँ धर्मशालाएँ किसने बनवाई हैं?” सबने उसे बताया कि ये सब रानी और उसकी दासी ने बनवाए हैं। |

            राजा महल में पहुँचा तो रानी ने उसका भव्य स्वागत किया। तब राजा ने निश्चय किया कि सप्ताह में एक बार तो सभी बृहस्वतिदेव का व्रत तथा पूजन करते हैं, परन्तु मैं प्रतिदिन व्रत किया करूँगा तथा दिन में तीन बार कथा कहा करूँगा। अब राजा हर समय दुशाले में चने की दाल बाँधे रहता तथा दिन में तीन बार बृहस्पतिदेव की कथा कहता। कुछ दिनों के बाद राजा को अपनी बहन की याद आईं। एक दिन घोड़े पर सवार होकर राजा अपनी बहन से मिलने चल दिया। अभी राजा नगर के बाहर पहुँचा ही था कि उसने कुछ लोगों को एक शव को ले जाते हुए देखा। राजा को स्मरण हो आया कि आज उसने किसी को बृहस्पतिवार की व्रत-कथा नहीं सुनाई है। राजा ने उन लोंगों को रोककर कहा; " भाइयो! आप शव को ले जाने से पहले मुझसे बृहस्पतिवार की कथा सुन लें।” लोगों ने राजा पर क्रोधित होते हुए कहा, “तुम पागल तो नहीं हो।” लेकिन कुछ बड़े-बूढ़े लोगों ने कहा, “अच्छा भाई, साथ में चलते-चलते तुम अपनी कथा भी सुना लो।” राजा ने चलते हुए आधी कथा ही सुनाई थी कि शव हिलने लगा। राजा के पूरी कथा सुनाते ही शव उठकर बैठ गया। लोगों ने हैरानी से दाँतो तले उँगली दबाई और अगले बृहस्पतिवार से भगवान्‌ बृहस्पतिदेव का व्रत करने व कथा सुनने का निशचय कर लिया। 

        अब घोड़े पर सवार राजा चलते हुए एक किसान के पास पहुँचा। किसान अपने खेत में हल चला रहा था | राजा ने कहा, “अरे भाई! मुझसे बृहस्पतिवार की कथा सुन लो।” किसान झुँझलाकर बोला, “अरे भाई  देख नहीं रहे। जितनी देर तक तुम्हारी कथा सुनूँगा, उतनी देर में तो पूरे खेत में हल चला लूँगा।” राजा निराश होकर चलने लगा। तभी किसान के बैल लड़खड़ाकर जमीन पर जा गिरे। किसान के पेट में भी जोरों का दर्द होने लगा। उस किसान की पत्नी जब खाना लेकर आई तो उसने किसान से इस बारें में पूछ। किसान ने घुड़सवार की पूरी कहानी सुनाई। किसान की पत्नी दौड़ती हुई राजा के पास पहुँचकर हाथ जोड़कर बोली,भैया ! मैं तुम्हारी कथा सुनने को तैयार हूँ।” राजा ने उसके साथ खेत पर पहुँचकर बृहस्पतिवार की कथा सुनाई। तभी बैल उठकर खड़े हो गए। किसान के पेट का दर्द भी तुरन्त ठीक हो गया।

         राजा अपनी बहन के घर पहुँचा तो उसकी बहुत आव-भगत हुई। अगले दिन सुबह उठकर राजा ने देखा, घर के सभी लोग भोजन कर रहे हैं। किसी भूखे को बृहस्पतिवार की कथा सुनाए बिना राजा भोजन नहीं करता था। उसने बहन से कहा, “बहन! क्या घर में कोई ऐसा व्यक्ति है, जिसनें अभी तक भोजन न किया हो।” उसकी बहन बोली, भैया ! हमारे घर में तो क्या आपको पूरे नगर में कोई ऐसा व्यक्ति नही मिलेगा जिसने सुबह-सुबह भोजन नहीं किया हो।” तब राजा ने बहन के घर से निकलकर उस नगर में बिना भोजन किए व्यक्ति की तलाश की। एक गड़रिए के घर में उसका बेटा बीमार होने के कारण भूखा रह गया था। राजा ने उसको जाकर बृहस्पतिवार की कथा सुनाई। कथा सुनते-सुनते गड़रिए का बीमार बेटा बिल्कुल ठीक हो गया। सबने राजा की बहुत प्रशंसा की। 

            एक दिन राजा ने अपनी बहन से कहा, “बहन! अब हम अपने घर जाना चाहते हैं। तुम भी हमारे साथ चलो | कुछ दिन वहाँ रहकर लौट आना | राजा की बहन ने अपनी सास से पूछा, तो सास ने ताने देते हुए कहा, “बहू! मायके जाना हो तो अकेली जाना! मेरे पोतों को नही ले जाना। तुम्हारे भाई के कोई संतान नहीं है। कहीं तुम्हारी भाभी मेरे पोतों पर कोई जादू-टोना न कर दे।” दूसरे कक्ष में बहन की सास की बातें सुनकर राजा दुखी मन से अकेला ही अपने नगर को लौट गया। रानी ने राजा से कहा, “आप तो अपनी बहन कोसाथ लाने  की बात कहकर गए थे फिर बहन को साथ क्‍यों नहीं लाए?” तब राजा ने दुखी होते हुए कहा,“ रानी! हम निसंतान हैं, इसलिए कोई हमारे घर आना पसंद  नहीं करता।” रानी ने राजा को समझाया, “हे प्राणनाथ! हमें बृहस्पतिदेव ने सब कुछ दिया है। अब भगवान्‌ बृहस्पतिदेव हमें संतान भी अवश्य देंगे।” बृहस्पतिवार को विधिवत व्रत करते हुए राजा-रानी ने भगवान्‌ बृहस्पतिदेव से संतान  के लिए प्रार्थना की। कुछ दिनों के बाद उन्होंने स्वप्न में दर्शन देते हुए कहा, “हे राजन! तेरी मनोकामना अवश्य पूरी होगी।” एक सप्ताह बाद ही रानी गर्भवती हो गई। दसवें महीने रानी ने एक सुंदर पुत्र को जन्म दिया। राजा-रानी जीवनपर्यन्त बृहस्पतिवार का व्रत करतें रहे। उनके घर में धन की वर्षा होती रही।इस तरह आनंदपूर्वक जीवन-यापन करते हुए राजा-रानी भगवान बृहस्पतिदेव की अनुकम्पा से मोक्ष हक प्राप्त करके सीधे बैकुण्ठ धाम पहुँच गए। बृहस्पतिवार को विधिवत्‌ व्रत करके जो स्त्री-पुरुष भगवान्‌ विष्णु  की पूजा करते हैं, भगवान्‌ उनकी सभी मनोकामनाएँ पूरी करते हैं।

                                        ॥ इति श्री बृहस्पतिवार व्रत कथा ॥



Tuesday, July 20, 2021

Sawan Krishan Ganesh Chathurthi varat katha (श्रावण कृष्ण-गणेश चतुर्थी व्रत कथा)


ॐ गण गणपते नमः 




                            गणेश भक्तों के लिए सन्तानादि प्रदायक कथा

ऋषिगण पूछते हैं कि हे स्कन्द कुमार! दरिद्बता, शोक, कुष्ठ आदि से विकलांग,शत्रुओं से संतप्त , राज्य से निष्कासित राजा, सदैव दुःखी  रहने वाले, धनहीन, समस्त उपद्रवों से पीड़ित, विद्याहीन, संतानहीन , घर से उपरोक्त कष्टों का निवारण हो । यदि आप कोई उपाय जानते हों. तो उसे बतलाइए स्वामी कीर्तिकिय जी ने कहा-हे ऋषियों! आपने जो प्रश्न किया है,उसके निवारार्थ मैं एक व्रत बतलाता हूँ , सुनिए। इस व्रत के करने से पृथ्वी के समस्त प्राणी सभी संकटों से मुक्त हो जाते हैं। यह व्रत राज  महापुण्यकारी एवं मानवों को सभी कार्यों में सफलता प्रदान करने वाला है। विशेषतया यदि इस व्रत को महिलायें करें तो उन्हें सन्तान एवं सौभाग्य की वृद्धि होती है। इस व्रत को धर्मराज युथिष्ठिर ने किया था। पूर्वकाल में राज्यच्युत होकर अपने भाइयों के साथ जब धर्मराज वन में चले गये थे, तो उस वनवास काल में भगवान श्रीकृष्ण ने उनसे कहा था। युथिष्ठिर ने भगवान कृष्ण से अपने कष्टों के शमनार्थ जो प्रश्न किया था, उस कथा को आप श्रवण कीजिए ।

             युधिष्ठिर पूछते हैं कि, हे पुरुषोत्तम! ऐसा कौन सा उपाय है जिससे हम वर्तमान संकटों से मुक्त हो सकें। हे गदाधर! आप सर्वज्ञ हैं। हम लोगोंको आगे अब किसी प्रकार का कष्ट न भुगनता पड़े, ऐसा उपाय बतलाइये ।स्कन्दकुमार जी कहते हैं कि जब धैर्यवान युधिष्ठिर विनम्र भाव से हाथ जोड़कर, बारम्बार अपने कष्टों के निवारण का उपाय पूछने लगे तो भगवान ह्रषिकेश ने कहा |

              श्रीकृष्ण जी ने कहा कि हे राजन! सम्पूर्ण कामनाओं को पूर्ण करन वाला एक बहुत बड़ा गुप्त व्रत है। हे पुरुषोत्तम! इस व्रत के सम्बन्ध में मैंने आज तक किसी को नहीं बतलाया है। हे राजन! प्राचीनकाल में सत्ययुग की बात है कि पर्वतराज हिमाचल की सुन्दर कन्या पार्वती ने शंकर जी को पति रूप में प्राप्त करने के लिए गहन वन में जाकर कठोर तपस्या कौ। परन्तु भगवान शिव प्रसन्न होकर प्रकट नहीं हुए तब शेलतनया पार्वतीजी ने अनादि काल से विद्यमान गणेश जी का स्मरण किया। गणेश जी को उसी क्षण प्रकट देखकर पार्वती जी ने पूछा कि मैंने कुठीर, दुर्लभ एवं लोमहर्षक तपस्या की, किन्तु अपने प्रिय भगवान शिव को प्राप्त न कर सकी। वह कष्टविनाशक दिव्य व्रत जिसे नारद जी ने कहा है और जो आपका ही व्रत है, उस प्राचीन व्रत के तत्व को आप मुझसे कहिये। पार्वती जी की बात सुनकर तत्कालीन सिद्धि दाता गणेश जी उस कष्टनाशक, शुभदायक व्रत का प्रेम से वर्णन करने लगे ।

           हे देवाधिदेवेश्वरी! श्रावण के कृष्ण चतुर्थी की रात्रि में चन्द्रोदय होने पर पूजन करना चाहिए। उस दिन प्रातःकृत्य से निबटकर मन में संकल्प करें कि “जब तक चन्द्रोदय नहीं होगा, मैं निराहार रहूँगी। पहले गणेश पूजन करके तभी भोजन ग्रहण करूंगी। मन में ऐसा निश्चय करना चाहिए।इसके बाद सफेद तिल के जल से स्नान करें । अपना नित्य कर्म करने के बाद हे सूंदर व्रत वाली मेरा पूजन करें (अभाव  में चांदी ,अष्ट धातु अथवा मिट्टी की मूर्ति की ही पूजा करें ) अपनी शक्ति क अनुसार सोने, चांदी , तांबे अथवा मिट्टी के कलश में जल भर कर उस पर गणेश जी की प्रतिमा स्थापित करें | मूर्ति कलश पर वस्त्राच्छादन करके अष्टदल कमल की आकृति बनावें और उसी मूर्ति की स्थापना करें | तत्पश्चात षोडशोपचार विधि से भक्ति पूर्वक पूजन करें | मूर्ति का ध्यान निमन प्रकार से करें - हे लम्बोदर ! चार भुज वाले !तीन नेत्र वाले ! लाल रंग वाले!हे नील वर्ण वाले ! शोभा क भण्डार ! प्रसन्न मुख वाले गणेश जी !में आपक ध्यान करता हूँ। हे गजानन! मैं आपका आवाहन करता हूँ। हे विघ्नराज! आपको प्रणाम करता हूँ, यह आसन है। हे लम्बोदर! यह आपके लिए पाद्य है, हे शंकरसुतन! यह आपके लिए अर्घ्य है। हे उमापुत्र! यह आपके स्नानार्थ जल है | हे वक्रतुण्ड ! ये आपके लिए आचमनीय जल है | हे शूर्पकर्ण ! यह आपके लिए वस्त्र है | हे कुब्ज ! यह आपके लिए यज्ञोपवीत है | हे गणेश्वर ! यह आपक लिए रोली , चन्दन है | हे विघ्नविनाशन !यह आपके लिए फूल हैं | हे विकट !यह आपके लिए धूपबत्ती है | हे वामन ! यह आपके लिए दीपक है | हे सर्वदेव ! यह आपके लिए नैवेद्य है | हे सर्वार्तिनाशन देव ! यह आपके निमिरत फल है | हे विघ्नहर्ता !यह आपके निमिरत मेरा प्रणाम है | प्रणाम करने के बाद क्षमा प्रार्थना करें | इस प्रकार  षोडशोपचार रीति से पूजन करके नाना प्रकार क भक्ष्य पदार्थों को बना कर भगवन को भोग लगावें | हे देवी शुद्ध देसी घी में पंद्रह लड्डू बनावें | सर्व प्रथम भगवन को लड्डू अर्पित करके उस में से पांच ब्राह्मण को दे दें | अपनी सामर्थ्ये के अनुसार दक्षिणा दे कर चन्द्रोदय होने पर भक्ति भाव से अर्घ्य दें |  तदनन्तर पांच लड्डू का स्वयं भोजन करें | 

            फिर हे देवी! तुम सब तिथियों में सर्वोत्तम हो, गणेश जी की परम प्रियतमा हो। हे चतुर्थी हमारे द्वारा प्रदत्त अर्घ्य को ग्रहण करो, तुम्हें प्रणाम है।निम्न प्रकार से चन्द्रमा को अर्घ्य प्रदान करें--क्षीरसागर से उत्पन्न हे लक्ष्मी के भाई) हे निशाकर! रोहिणी सहित हे शशि! मेरे दिये हुये अर्घ्य को ग्रहण कीजिये । गणेश जी को इस प्रकार प्रणाम करें--हे लम्बोदर! आप सम्पूर्ण इच्छाओं को पूर्ण करने वाले हैं आपको प्रणाम है। हे समस्त विघ्नों  के नाशक! आप मेरी अभिलाषाओं को पूर्ण करें। तत्पश्चात ब्राह्मण की अआर्थना करें--हे ट्विजराज ! आपको नमस्कार है, आप साक्षात देवस्वरूप  हैं । गणेश जी की प्रसन्नता के लिए हम आपको लड्डू समर्पित कर रहे हैं। आप हम दोनों का उद्धार करने के लिए दक्षिणा सहित इन पाँच लड्डुओं को स्वीकार करें। हम आपको नमस्कार करते हैं। इसके बाद ब्राह्मण भोजन कराकर गणेश जी से प्रार्थना करें। यदि इन सब कार्यों के करने की शक्ति न हो तो अपने भाई-बन्धुओं के साथ दही एवं पूजन में निवेदित पदार्थ का भोजन करें। प्रार्थना करके प्रतिमा का विसर्जन करें और अपने गुरु को अन्न-वस्त्रादि एवं दक्षिणा के साथ मूर्ति दे देवें। इस प्रकार से विसर्जन करें--हे देवों में श्रेष्ठ! गणेश जी! आप अपने स्थानको प्रस्थान कीजिए एवं इस व्रत पूजा के फल को दीजिए।

            हे सुमुखि ! इस प्रकार जीवन भर गणेश चतुर्थी का व्रत करना चाहिए। यदि जन्म भर न कर सकें तो इक्कीस वर्ष तक करें। यदि इतना करना भी सम्भव न हो तो एक वर्ष तक बारहों महीने के व्रत को करें। यदि |! इतना भी न कर सकें तो वर्ष के एक मास को अवश्य ही व्रत करें और श्रावण चतुर्थी को व्रत का उद्यापन करें।


                                                        || जय गणपति गणेश जी महाराज || 

Sunday, July 18, 2021

Sawan Ke Somvaar ki Varat Katha (सावन के सोमवार की व्रत कथा )


ॐ गण गणपते नमः 

 Sawan Ke Somvaar ki Varat Katha (सावन के सोमवार की व्रत कथा )


        प्राचीन समय में एक नगर में एक बुढ़िया परिवार सहित रहती थी | उसके परिवार में एक लड़की और दो लड़के थे | लड़के बड़े थे परन्तु उनकी शादी नहीं हुई थी | लड़की भी शादी  के योग्य हो गयी थी | बुढ़िया धार्मिक विचारों वाली महिला थी | उसके घर के पास भगवान् शिव का मंदिर था जिस में एक साधु रहता था | वह बड़ी श्रद्धा से भगवान् शिव की सेवा करता था | बुढ़िया भी प्रतिदिन सुबह नहा धोकर मंदिर जाया करती थी | शिवरात्रि के दिन सुबह बुढ़िया अपने बच्चों को साथ लेकर मन्दिर पहुँची। सभी ने बड़ी श्रद्धा से भगवान्‌
शिव की पूजा अर्चना की। घर को वापिस आते समय बुढ़िया ने साधु को बच्चों को आशीर्वाद देने को कहा। साधु ने लड़कों को बहुत से आशीर्वाद दिए परन्तु लड़की को कोई आशीर्वाद न दिया। बुढ़िया ने साधु से हैरान होकर नम्रता  सहित प्रश्न किया, “'हे महात्मा! आपने लड़कों को तो आशीर्वाद दिया परन्तु मेरी इस प्यारी बच्ची को आशीर्वाद क्‍यों नहीं दिया? कृपा मेरी शंका का समाधान करो।''

        साधु ने सब की ओर स्नेह की दृष्टि  डाली और कहा कि मैं इस लड़की को आशीर्वाद नहीं दे सकता क्योंकि इसके भाग्य में सुहाग का सुख नहीं है। साधु केवचन को सुनकर सभी हैरान हो गए। सभी के चेहरों पर परेशानी की लकीरें  प्रकट हो आईं। बुढ़िया ने साधु से प्रार्थना की कि इसका कोई उपाय हो तो कृपा कहें।जिससे हमारी प्यारी बेटी को सुहाग की प्राप्ति हो। हम अपनी बेटी के इस कष्ट को दूर करने के लिए कुछ भी करने को तैयार हैं। अगर हमारे प्राणों की आहुति से ही हमारी बेटी का भला हो सकता है तो हम उसके लिए भी तैयार हैं। उन सब की इस प्रकार की बातें सुनकर साधु कुछ देर मौन हो गया।

        साधु ने कहा कि एक उपाय है परन्तु उपाय बहुत कठिन है इसमें प्राण जाने का भी भय है। सभी ने साधु से प्रार्थना की, “कृपा उस उपाय को हम पर प्रकट करें,हम उसे अवश्य करेंगे।'' इन वचनों को सुन कर साधु ने कहा कि यहां से सात समुद्र पार एक रंमणीक नगर में सोमपत्ति नाम की एक स्त्री रहती है, जिसके सौ बेटे हैं, यह वहां जाकर अपनी सेवा से उस स्त्री को प्रसन्‍न करे। अगर वह स्त्री प्रसन्‍न हो गई तो इसको अवश्य सुहाग सुख की प्राप्ति हो सकती है। आप लोग यहां से छः समुद्र तो आसानी से पार कर सकते हो क्योंकि इनको पार करने के लिए आपको किश्ती मिल सकती है परन्तु सातवें समुद्र को पार करने के लिए
 कुछ भी न मिलेगा। क्योंकि वहाँ पर मानव का जा पाना सम्भव नहीं है। अगर यह लड़की उस सातवें समुद्र को पार कर लेगी तो अवश्य ही इसको सौभाग्य प्राप्त होगा| साधु के कथनानुसार वे सभी भगवान्‌ शिव के सहारे घर से निकल पड़े। छः समुद्र तो उन्होंने भगवान्‌ की कृपा से आसानी से किश्ती में बैठ कर पार कर लिए | 

        सातवें समुद्र के तट पर पहुँच कर वे उसे पार करने के उपाय को सोचते हुए भगवान्‌ शिव की अराधना करने लगे। भगवान्‌ शंकर की कृपा से उन्हें वहां एक पेड़ दिखाई दिया। पेड़ के ऊपर एक हंस बैठा हुआ था। हंस ने उनसे कहा कि मैं इस पेड़ के पत्तों से आप लोगों को एक बेड़ी बना कर दे सकता हूँ। सभी ने सोचा कि अगर भगवान्‌ की कृपा होगी तो यह बेड़ी हमें हमारी मंजिल पर पहुँचा देगी, नहीं तो मौत निश्चित ही है। उन्होंने हंस से बेड़ी बनाकर देने की प्रार्थना की। हंस ने कुछ ही समय में उनको बेड़ी बनाकर दे दी। सभी ने हंस का धन्यवाद किया और भगवान्‌ शिव के नाम का सहारा लेकर बेड़ी में सवार हो गए।  ॐ नमो शिवाय: का जाप करते-करते वे लोग सातवां समुद्र भी पार कर गए। थोड़ी दूर चलने पर वे रमणीक नगर में पहुँचे। वहाँ पर उन्होंने सोमपत्ति को देखा और उसके सौ पुत्रों व बहुओं को देखा। उसके बहु-बेटे सभी अलग-अलग रहते थे। वे सभी सोमपत्ति के घर के पास छुप कर रहने लगे | 

        सोमपत्ति रोज़ सुबह स्नान करने के लिए नदी पर जाया करती थी। जैसे ही सोमपत्ति स्नान के लिए घर से निकलती थी तो वह लड़की हर रोज़ चुप चाप  उसके पीछे से घर में आती । घर का झाड़, चौंका, बर्तन आदि साफ़ करके उसकेघर आने से पहले वापिस अपने परिवार में पहुँच जाती थी। हर रोज़ जैसे ही सोमयत्ति स्नान आदि से निवृत होकर घर को वापिस आती तो घर की साफ़ सफाई देखकर हैरान होकर सोचती कि कौन मेरे पीछे से आता है ,जो मेरे घर की सफाई, बर्तन आदि साफ कर जाता है। मैं उसको कैसे देखूं। ऐसे ही महिनों बीत गए। एक दिन किसी कारणवश सोमपत्ति की नींद कुछ देर से खुली परन्तु वह लड़की अपने नियमानुसार उसके घर साफ़-सफाई के लिए आ पहुँची और अपना नित्य का कार्य करने लगी। सोमपत्ति ने उस लड़की को देखकर पूछा, “बेटी, तुम कौन हो? यहाँ पर किस लिए आई हो? तुम्हें क्या चाहिए? '' सोमपत्ति के वचनों को सुनकर लड़की उसी समय उसके चरणों में गिर पड़ी। सोमपत्ति ने नींद में ही उसको आशीर्वाद दिया, बेटी, दूधवती, पुत्रवर्ती, सौभाग्यवती हो।'' परन्तु लड़की ने फिर भी उसके पांवों से सिर न उठाया तीन बार वही आशीर्वाद देने के पश्चात्‌ उठकर जब उस लड़की के सिर को उठाया तो देखा कि इसके भाग्य में तो सुहाग सुख नहीं है परन्तु मैंने इसे पुत्रवती होने का आशीर्वाद दे दिया है। यह कैसे होगा? सोमपत्ति अभी सोच ही रही थी कि लड़की की माँ व भाईं सभी वहां पर आ गए। सभी सोमपत्ति से प्रार्थना करने लगे। हे माँ, अब आप ही इसकी माँ हैं और आप ही इसको इसकी खुशियाँ दे सकती हैं। माँ सोमपत्ति ने कहा, “ठीक है। मगर यह सावन मास में आने वाले सभी सोमवार को भगवान्‌ शिव का व्रत करे। यह व्रत सभी को मनवांछित फल प्रदान
करने वाले हैं। मां पार्वती और भगवान्‌ शिव के आशीर्वाद से इसको भी मनवांछित फल अवश्य प्राप्त होगा। आप लोग भी इसके लिए सावन के प्रथम सोमवार को  लड़का ढूंढना । दूसरे सोमवार को सगाई करना। तीसरे सोमवार को साहे चिट्ठी भेजना  तथा चौथे सोमवार को बारात मंगवाना। जैसे ही लड़का लगन मण्डप में बैठेगा उसी समय ही वह समा जाएगा। सभी रिश्तेदार, भाई-बन्धु विलाप करेंगे।  दुनिया तरह तरह की बातें करेगी। मगर आप मत रोना। सभी को चुप करवानाऔर मुझे याद करना। सब ठीक हो जाएगा। उन्होंने कहा, “ठीक है माँ! हम ऐसा ही करेंगे। सभी सोमपत्ति माँ से आशीर्वाद लेकर अपने घर को चल पड़े।
            घर वापिस आकर सभी बड़ी श्रद्धा से भगवान्‌ की पूजा करते हुए समय व्यतीत करने लगे। लड़की पूरी श्रद्धा, भक्ति भाव से सोमवार का व्रत करने लगी। सावन के पहले सोमवार को उसकी माँ व भाईयों ने सोमपत्ति के कथनानुसार लड़का देखा। लड़का बहुत सुन्दर व गुणवान था। दूसरे सोमवार को उन्होंने बड़ी धूमधाम से सगाई की रसमें पूरी कीं। तीसरे सोमवार को साहे चिट्ठी भेजी तथा सावन के चौथे सोमवार को बारात लाने को कहा।

        उन्होंने शादी के दिन घर को खूब अच्छी तरह सजाया। बारात के स्वागत के लिए सजावटी द्वार लगाए, गाजे बाजे का भी खूब प्रबन्ध किया। निश्चित दिन यानि चौथे सोमवार को निश्चित समय पर बहुत धूमधाम से खुशी में नाचती- घूमती बारात उनके द्वार पहुंची । सभी ने मिलकर बारात का स्वागत किया। बारात को भोजन वगैरा आदि करवाया। बारात के विश्राम का प्रबन्ध किया।  जब लगन  का समय आया तो लड़के को लगन मण्डप में बुलाया गया। जैसे ही लड़का लगन मण्डप में आसन पर बैठा उसी समय समा गया। लड़के के परिवार के सदस्य व बारात में शामिल सभी बाराती रोने लगे। लोग तरह-तरह की बातें बनाने लगे। कोई कहता कि यह डायन है पहले ही दिन पति को खा गई। कोई कहता लड़की कुल्टा है। कोई कहता कुल्छनी है। जितने मुँह उतनी बातें । लड़की मन ही मन में भगवान्‌ शंकर व पार्वती को याद करने लगी। हे भोले नाथ, मेरी इज्जत रखो। मेरे परिवार की इज़्ज़त को बनाए रखो। हे माँ पार्वती! तुम सुहाग को देने वाली हो, मेरे सुहाग को जिन्दा कर दो।

        लड़की की माँ व भाई परिवार सहित माँ सोमपत्ति को याद करने लगे। वे सभी बारातियों को ढांढस बंधवा रहे थे कि.सब कुछ ठीक हो जाएगा, भगवान्‌ शंकर की महिमा अपरम्पार है। उनकी पुकार माँ सोमपत्ति के कानों तक जा पहुँची । उसी समय माँ सोमपत्ति ने अपने सभी बहु-पुत्रों पर जल छिड़क कर उन सभी को सुला दिया। उनको सुलाने के पश्चात्‌ वह अपनी पड़ोसन के पास गई और उसको कहने लगी कि कोई भी इनमें से जागे न, और न ही कोई इनको जगाए। अगर कोई जगाएगा या कोई जाग गया तो वह मर जाएगा। इतना कह कर सोमपत्ति वहाँ से चलपड़ी।सोमपत्ति  ने अपने १00 पुत्रों व बहुओं की आयु में से थोड़ी-थोड़ी आयु जल के रूप में उस लड़की के सुहाग पर छिड़क कर उसको जीवित कर दिया। लड़के के जीवित होते ही शादी की सभी रस्में पूरी की गई। सभी बहुत प्रसन्‍न थे। शादी सम्पन्न होने के पश्चात्‌ माँ  सोमपत्ति से आशीर्वाद लेकर डोली विदा की गई।
उसके बाद माँ सोमपत्ति अपने नगर को चली गई। वह लड़की प्रति वर्ष सावन मास के सोमवार का व्रत करने लगी। व्रत के प्रभाव से उसके परिवार में किसी चीज़ की कमी न रही और वह खुशी-खुशी अपने घर में सुख से जीवन व्यतीत करने लगी॥

जिस तरह भगवान्‌ शिव ने उस लड़की के सुहाग को जिन्दा किया। उसी प्रकार
भगवान्‌ शिव सब का भला करें और सब को मन वांछित फल प्रदान करें।

ॐ नमः शिवाय: ||