Sunday, October 13, 2024

ਮਾਂ ਤੇਰੀਆਂ ਚੁੰਨੀਆਂ ਲਾਲ ਲਾਲ, ਤੇਰੇ ਸੋਹਣੇ ਝੰਡੇ ਲਾਲ

 

ਮਾਂ ਤੇਰੀਆਂ ਚੁੰਨੀਆਂ ਲਾਲ ਲਾਲ, ਤੇਰੇ ਸੋਹਣੇ ਝੰਡੇ ਲਾਲ 

ਮਾਂ ਤੇਰੀਆਂ ਚੁੰਨੀਆਂ ਲਾਲ ਲਾਲ, ਤੇਰੇ ਸੋਹਣੇ ਝੰਡੇ ਲਾਲ ।

ਮਾਂ ਲਾਲਾਂ ਵਿੱਚ ਹੀ ਵਸਦੀ ਹੈ, ਤੂੰ ਲਾਲਾਂ ਦੀ ਲੱਜ ਪਾਲ ॥

ਤੈਨੂੰ ਸੂਰਜ ਸੁਬਾਹ ਸਲਾਮ ਕਰੇ, ਤੇਰੀ ਪੂਜਾ ਕਰਦੇ ਚੰਨ ਤਾਰੇ ।

ਕੰਨਾਂ ਵਿੱਚ ਮਿਸ਼ਰੀ ਘੁਲ ਜਾਂਦੀ, ਜਦ ਲਾਲ ਬੋਲਦੇ ਜੈਕਾਰੇ ॥

ਭਵਨਾ ਦੀ ਰੰਗਤ ਲਾਲ ਲਾਲ, ਲਾਇਨਾ ਵਿੱਚ ਸੰਗਤ ਲਾਲ ।

ਫਿਰ ਭਗਤ ਧਮਾਲਾਂ ਪਾਂਦੇ ਨੇ, ਜਦ ਵਜੇ ਢੋਲ ਤੇ ਤਾਲ

ਲਾਲਾਂ ਦੇ ਗਲ ਵਿੱਚ ਸਜਦੇ ਮਾਂ, ਤੇਰੇ ਲਾਲ ਗਲਾਂ ਵਿੱਚ ਅਡੇ ਮਾਂ ।

ਤੇਰੀ ਜੋਤ ਦੀ ਲਾਲੀ ਐਸੀ ਮਾਂ, ਜਨਮਾਂ ਦੇ ਬੰਧਨ ਕਟੇ ਮਾਂ ॥

ਰੰਗ ਮੋਲਿ ਦਾ ਵੀ ਲਾਲ ਲਾਲ, ਰੰਗ ਰੋਲੀ ਦਾ ਵੀ ਲਾਲ ।

ਇਸ ਲਾਲੀ ਵਿੱਚ ਜੋ ਰੰਗਿਆ ਏ ਫਿਰ ਹੋ ਗਿਆ ਲਾਲੋ ਲਾਲ ॥

ਮਾਂ ਤੇਰੇਆ ਪਾਵਨ ਹੱਥਾਂ ਤੇ ਏਹ ਲਾਲ ਲਾਲ ਜੋ ਮੇਹੰਦੀ ਏ ।

ਗੱਲ ਦਿਲ ਵਿੱਚ ਹੋਵੇ ਲਾਲਾਂ ਦੇ, ਏਹ ਸਬ ਆਪੇ ਬੁੱਝ ਲੈਂਦੀ ਏ ॥

ਬਾਵਾ ਵਿੱਚ ਚੂੜਾ ਲਾਲ ਲਾਲ, ਰੰਗ ਜਚਦਾ ਗੂੜਾ ਲਾਲ ।

ਕਰ ਮੇਹਰ ਸੰਜੀਵ ਸਰਦੂਲ ਉੱਤੇ, ਆਵਾਂਗੇ ਹਰ ਸਾਲ ॥



Bhajan:    De Charna Da Pyar
Singer:    Sardool Sikander
Producer:  Jaidev

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Friday, October 11, 2024

कार्तिक माहात्म्य --35


अध्याय–35 (अन्तिम)

          

          इतनी कथा सुनकर सभी ऋषि सूतजी से बोले–‘हे सूतजी! अब आप हमें तुलसी विवाह की विधि बताइए।’ 

          सूतजी बोले–‘कार्तिक शुक्ला नवमी को द्वापर युग का आरम्भ हुआ है। अत: यह तिथि दान और उपवास में क्रमश: पूर्वाह्नव्यापिनी तथा पराह्नव्यापिनी हो तो ग्राह्य है। इस तिथि को, नवमी से एकादशी तक, मनुष्य शास्त्रोक्त विधि से तुलसी के विवाह का उत्सव करे तो उसे कन्यादान का फल प्राप्त होता है। पूर्वकाल में कनक की पुत्री किशोरी ने एकादशी तिथि में सन्ध्या के समय तुलसी की वैवाहिक विधि सम्पन्न की। इससे वह किशोरी वैधव्य दोष से मुक्त हो गई।

          अब मैं उसकी विधि बतलाता हूँ–एक तोला सुवर्ण की भगवान विष्णु की सुन्दर प्रतिमा तैयार कराए अथवा अपनी शक्ति के अनुसार आधे या चौथाई तोले की ही प्रतिमा बनवा ले, फिर तुलसी और भगवान विष्णु की प्रतिमा में प्राण-प्रतिष्ठा कर के षोडशोपचार से पूजा करें। पहले देश-काल का स्मरण कर के गणेश पूजन करें फिर पुण्याहवाचन कराकर नान्दी श्राद्ध करें। तत्पश्चात वेद-मन्त्रों के उच्चारण और बाजे आदि की ध्वनि के साथ भगवान विष्णु की प्रतिमा को तुलसी जी के निकट लाकर रखें। प्रतिमा को वस्त्रों से आच्छादित करना चाहिए। उस समय भगवान का आवाहन करें–

          ‘भगवान केशव! आइए, देव! मैं आपकी पूजा करुंगा। आपकी सेवा में तुलसी को समर्पित करुंगा। आप मेरे सम्पूर्ण मनोरथों को पूर्ण करें।’

          इस प्रकार आवाहन के पश्चात तीन-तीन बार अर्ध्य, पाद्य और विष्टर का उच्चारण कर के इन्हें बारी-बारी से भगवान को समर्पित करें, फिर आचमनीय पद का तीन बार उच्चारण कर के भगवान को आचमन कराएँ। इसके बाद कांस्य के बर्तन में दही, घी और मधु(शहद) रखकर उसे कांस्य के पात्र से ही ढक दें तथा भगवान को अर्पण करते हुए इस प्रकार कहें–वासुदेव! आपको नमस्कार है, यह मधुपर्क (दही, घी तथा शहद के मिश्रण को मधुपर्क कहते हैं) ग्रहण कीजिए।

          तदनन्तर हरिद्रालेपन और अभ्यंग-कार्य सम्पन्न कर के गौधूलि की वेला में तुलसी और विष्णु का पूजन पृथक-पृथक करना चाहिए। दोनों को एक-दूसरे के सम्मुख रखकर मंगल पाठ करें। जब भगवान सूर्य कुछ-कुछ दिखाई देते हों तब कन्यादान का संकल्प करें। अपने गोत्र और प्रवर का उच्चारण कर के आदि की तीन पीढ़ियों का भी आवर्तन करें। 

          तत्पश्चात भगवान से इस प्रकार कहें–‘आदि, मध्य और अन्त से रहित त्रिभुवन-प्रतिपालक परमेश्वर! इस तुलसी दल को आप विवाह की विधि से ग्रहण करें। यह पार्वती के बीज से प्रकट हुई है, वृन्दा की भस्म में स्थित रही है तथा आदि, मध्य और अन्त से शून्य है, आपको तुलसी बहुत ही प्रिय है, अत: इसे मैं आपकी सेवा में अर्पित करता हूँ। मैंने जल के घड़ो से सींचकर और अन्य प्रकार की सेवाएँ कर के अपनी पुत्री की भाँति इसे पाला, पोसा और बढ़ाया है, आपकी प्रिया तुलसी मैं आपको दे रहा हूँ। प्रभो! आप इसे ग्रहण करें।’

          इस प्रकार तुलसी का दान कर के फिर उन दोनों अर्थात तुलसी और भगवान विष्णु की पूजा करें, विवाह का उत्सव मनाएँ। सुबह होने पर पुन: तुलसी और विष्णु जी का पूजन करें। अग्नि की स्थापना कर के उसमें द्वादशाक्षर मन्त्र से खीर, घी, मधु और तिलमिश्रित हवनीय द्रव्य की एक सौ आठ आहुति दें फिर ‘स्विष्टकृत’ होमक कर के पूर्णाहुति दें। उसके बाद भगवान से इस प्रकार प्रार्थना करें–‘हे प्रभो! आपकी प्रसन्नता के लिए मैंने यह व्रत किया है। जनार्दन इसमें जो न्यूनता हो वह आपके प्रसाद से पूर्णता को प्राप्त हो जाये।’

          यदि द्वादशी में रेवती का चौथा चरण बीत रहा हो तो उस समय पारण न करें। जो उस समय भी पारण करता है वह अपने व्रत को निष्फल कर देता है। भोजन के पश्चात तुलसी के स्वत: गलकर गिरे हुए पत्तों को खाकर मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है। भोजन के अन्त में ऊख, आंवला और बेर का फल खा लेने से उच्छिष्ट-दोष मिट जाता है।

          तदनन्तर भगवान का विसर्जन करते हुए कहे–‘भगवन! आप तुलसी के साथ वैकुण्ठधाम में पधारें। प्रभो! मेरे द्वारा की हुई पूजा ग्रहण करके आप सदैव सन्तुष्टि करें।’ इस प्रकार देवेश्वर विष्णु का विसर्जन कर के मूर्त्ति आदि सब सामग्री आचार्य को अर्पण करें। इससे मनुष्य कृतार्थ हो जाता है।

          यह विधि सुनाकर सूतजी ने ऋषियों से कहा–‘हे ऋषियों! इस प्रकार जो मनुष्य श्रद्धापूर्वक सत्य, शान्ति और सन्तोष को धारण करता है, भगवान विष्णु को तुलसीदल समर्पित करता है, उसके सभी पापों का नाश हो जाता है और वह संसार के सुखों को भोगकर अन्त में विष्णुलोक को प्राप्त करता है।

          हे ऋषिवरों! यह कार्तिक माहात्म्य सब रोगों और सम्पूर्ण पापों का नाश करने वाला है। जो मनुष्य इस माहात्म्य को भक्तिपूर्वक पढ़ता है और जो सुनकर धारण करता है वह सब पापों से मुक्त हो भगवान विष्णु के लोक में जाता है। सभी भक्तों ने पूरे महीने कार्तिक महात्म्य सुना ,दक्षिणा स्वरूप एक बार अपने ग्रुप पर जय श्रीराधे कृष्णा जरूर लिखें🙏जिसकी बुद्धि खोटी हो तथा जो श्रद्धा से हीन हो ऐसे किसी भी मनुष्य को यह माहात्म्य नहीं सुनाना चाहिए।

                         

 –:इति श्री कार्तिक मास माहात्म्य:–


🚩जय श्रीराधे कृष्णा🚩

Thursday, October 10, 2024

कार्तिक माहात्म्य -- 34


अध्याय–34

          

          ऋषियों ने पूछा–‘हे सूतजी! पीपल के वृक्ष की शनिवार के अलावा सप्ताह के शेष दिनों में पूजा क्यों नहीं की जाती ?

          सूतजी बोले–‘हे ऋषियों! समुद्र-मंथन करने से देवताओं को जो रत्न प्राप्त हुए, उनमें से देवताओं ने लक्ष्मी और कौस्तुभमणि भगवान विष्णु को समर्पित कर दी थी। जब भगवान विष्णु लक्ष्मी जी से विवाह करने के लिए तैयार हुए तो लक्ष्मी जी बोली–‘हे प्रभु! जब तक मेरी बड़ी बहन का विवाह नहीं हो जाता तब तक मैं छोटी बहन आपसे किस प्रकार विवाह कर सकती हूँ इसलिए आप पहले मेरी बड़ी बहन का विवाह करा दे, उसके बाद आप मुझसे विवाह कीजिए। यही नियम है जो प्राचीनकाल से चला आ रहा है।’

          सूतजी ने कहा–‘लक्ष्मी जी के मुख से ऐसे वचन सुनकर भगवान विष्णु ने लक्ष्मी जी की बड़ी बहन का विवाह उद्दालक ऋषि के साथ सम्पन्न करा दिया। लक्ष्मी जी की बड़ी बहन अलक्ष्मी जी बड़ी कुरुप थी, उसका मुख बड़ा, दाँत चमकते हुए, उसकी देह वृद्धा की भाँति, नेत्र बड़े-बड़े और बाल रुखे थे। (श्रीजी की चरण सेवा" की सभी धार्मिक, आध्यात्मिक एवं धारावाहिक पोस्टों के लिये हमारे पेज से जुड़े रहें) भगवान विष्णु द्वारा आग्रह किये जाने पर ऋषि उद्दालक उससे विवाह कर के उसे वेद मन्त्रों की ध्वनि से गुंजाते हुए अपने आश्रम ले आये। वेद ध्वनि से गुंजित हवन के पवित्र धुंए से सुगन्धित उस ऋषि के सुन्दर आश्रम को देखकर अलक्ष्मी को बहुत दु:ख हुआ। वह महर्षि उद्दालक से बोली–‘चूंकि इस आश्रम में वेद ध्वनि गूँज रही है इसलिए यह स्थान मेरे रहने योग्य नहीं है इसलिए आप मुझे यहाँ से अन्यत्र ले चलिए।’

          उसकी बात सुनकर महर्षि उद्दालक बोले–‘तुम यहाँ क्यों नहीं रह सकती और तुम्हारे रहने योग्य अन्य कौन सा स्थान है वह भी मुझे बताओ।’ अलक्ष्मी बोली–‘जिस स्थान पर वेद की ध्वनि होती हो, अतिथियों का आदर-सत्कार किया जाता हो, यज्ञ आदि होते हों, ऐसे स्थान पर मैं नहीं रह सकती। जिस स्थान पर पति-पत्नी आपस में प्रेम से रहते हों पितरों के निमित्त यज्ञ होते हों, देवताओं की पूजा होती हो, उस स्थान पर भी मैं नहीं रह सकती। जिस स्थान पर वेदों की ध्वनि न हो, अतिथियों का आदर-सत्कार न होता हो, यज्ञ न होते हों, पति-पत्नी आपस में क्लेश करते हों, पूज्य वृद्धो, सत्पुरुषों तथा मित्रों का अनादर होता हो, जहाँ दुराचारी, चोर, परस्त्रीगामी मनुष्य निवास करते हों, जिस स्थान पर गायों की हत्या की जाती हो, मद्यपान, ब्रह्महत्या आदि पाप होते हों, ऐसे स्थानों पर मैं प्रसन्नतापूर्वक निवास करती हूँ।’

          सूतजी बोले–‘अलक्ष्मी के मुख से इस प्रकार के वचन सुनकर उद्दालक का मन खिन्न हो गया। वह इस बात को सुनकर मौन हो गये। थोड़ी देर बाद वे बोले कि ‘ठीक है, मैं तुम्हारे लिए ऐसा स्थान ढूंढ दूँगा। जब तक मैं तुम्हारे लिए ऐसा स्थान न ढूंढ लूँ तब तक तुम इसी पीपल के नीचे चुपचाप बैठी रहना।’ महर्षि उद्दालक उसे पीपल के वृक्ष के नीचे बैठाकर उसके रहने योग्य स्थान की खोज में निकल पड़े परन्तु जब बहुत समय तक प्रतीक्षा करने पर भी वे वापिस नहीं लौटे तो अलक्ष्मी विलाप करने लगी। जब वैकुण्ठ में बैठी लक्ष्मी जी ने अपनी बहन अलक्ष्मी का विलाप सुना तो वे व्याकुल हो गई। वे दुखी होकर भगवान विष्णु से बोली–‘हे प्रभु! मेरी बड़ी बहन पति द्वारा त्यागे जाने पर अत्यन्त दुखी है। यदि मैं आपकी प्रिय पत्नी हूँ तो आप उसे आश्वासन देने के लिए उसके पास चलिए।’ लक्ष्मी जी की प्रार्थना पर भगवान विष्णु लक्ष्मी जी सहित उस पीपल के वृक्ष के पास गये जहाँ अलक्ष्मी बैठकर विलाप कर रही थी।

          उसको आश्वासन देते हुए भगवान विष्णु बोले–‘हे अलक्ष्मी! तुम इसी पीपल के वृक्ष की जड़ में सदैव के लिए निवास करो क्योंकि इसकी उत्पत्ति मेरे ही अंश से हुई है और इसमें सदैव मेरा ही निवास रहता है। प्रत्येक वर्ष गृहस्थ लोग तुम्हारी पूजा करेगें और उन्हीं के घर में तुम्हारी छोटी बहन का वास होगा। स्त्रियों को तुम्हारी पूजा विभिन्न उपहारों से करनी चाहिए। मनुष्यों को पुष्प, धूप, दीप, गन्ध आदि से तुम्हारी पूजा करनी चाहिए तभी तुम्हारी छोटी बहन लक्ष्मी उन पर प्रसन्न होगी।’

          सूतजी बोले–‘ऋषियों! मैंने आपको भगवान श्रीकृष्ण, सत्यभामा तथा पृथु-नारद का संवाद सुना दिया है जिसे सुनने से ही मनुष्य के समस्त पापों का नाश हो जाता है और अन्त में वैकुण्ठ को प्राप्त करता है। यदि अब भी आप लोग कुछ पूछना चाहते हैं तो अवश्य पूछिये, मैं उसे अवश्य कहूँगा।’

          सूतजी के वचन सुनकर शौनक आदि ऋषि थोड़ी देर तक प्रसन्नचित्त वहीं बैठे रहे, तत्पश्चात वे लोग बद्रीनारायण जी के दर्शन हेतु चल दिये। जो मनुष्य इस कथा को सुनता या सुनाता है उसे इस संसार में समस्त सुख प्राप्त होते हैं।

                   

🚩जय श्रीराधे कृष्णा🚩

Wednesday, October 9, 2024

Mata Rani K bhajan

 






ਦੇ ਚਰਨਾਂ ਦਾ ਪਿਆਰ ਮਾਏ ਨੀ ਮੈਨੂੰ ਰੱਖ ਲੈ ਸੇਵਾਦਾਰ

 


ਦੇ ਚਰਨਾਂ ਦਾ ਪਿਆਰ ਮਾਏ ਨੀ ਮੈਨੂੰ ਰੱਖ ਲੈ ਸੇਵਾਦਾਰ 


ਦੇ ਚਰਨਾਂ ਦਾ ਪਿਆਰ ਮਾਏ ਨੀ ਮੈਨੂੰ ਰੱਖ ਲੈ ਸੇਵਾਦਾਰ
ਤੇਰੇ ਭਵਨ ਤੇ ਕਾਰਾਂ ਨੌਕਰੀ, ਸੱਦ ਲੈ ਤੂੰ ਇੱਕ ਵਾਰ

ਭਗਤਾਂ ਦੇ ਨਾਲ ਭੇਟਾਂ ਗਾਵਾਂ ਇੱਕ ਪੱਲ ਵੀ ਨਾ ਸੋਵਾਂ
ਅਮ੍ਰਤ ਵੇਲੇ ਮੰਦਰ ਤੇਰਾ ਪਲਕਾਂ ਨਾਲ ਮੈਂ ਧੋਵਾਂ
ਬਾਗਾਂ ਵਿਚੋਂ ਫੁੱਲ ਤੋੜ ਕੇ ਗੁੰਦਾਂ ਸੋਹਣੇ ਹਾਰ

ਹਾਰ ਸ਼ਿੰਗਾਰ ਮਾਂ ਕਰਕੇ ਤੇਰੀਆਂ ਪਿੰਡੀਆ ਰੋਜ਼ ਸਜਾਵਾਂ
ਅੱਤ੍ਰ ਪੁਲੇਲਾ ਛਿੜਕਾਂ ਨਾਲੇ ਮੰਦਰਾਂ ਨੂੰ ਮਹਕਾਵਾਂ
ਜੋਤ ਜਗਾ ਕੇ ਕਾਰਾਂ ਆਰਤੀ ਬਨ ਕੇ ਤਾਬੇਦਾਰ

ਕਰਮਾ ਰੋਪੜ ਵਾਲਾਂ ਮਾਏ ਰੋਜ਼ ਕਰੇ ਅਰਦਾਸਾਂ
ਮਿੱਟ ਜਾਵਣ ਸਰਦੂਲ ਤੇਰੇ ਦੀਆ ਜਨਮ ਜਨਮ ਦੀਆ ਪਿਆਸਾ
ਤਨ ਮਨ ਹੋ ਜਾਏ ਰੋਸ਼ਨ ਮੇਰਾ, ਖੁੱਲੇ ਕਾਰਾਂ ਦੀਦਾਰ



Bhajan: De Charna Da Pyar 

Producer: Jaidev

Singer: Sardool Sikander ·

 Lyrics: Karma Ropar Wale

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कार्तिक माहात्म्य -- 33


अध्याय - 33

          

          सूतजी ने कहा – इस प्रकार अपनी अत्यन्त प्रिय सत्यभामा को यह कथा सुनाकर भगवान श्रीकृष्ण सन्ध्योपासना करने के लिए माता के घर में गये। यह कार्तिक मास का व्रत भगवान विष्णु को अतिप्रिय है तथा भक्ति प्रदान करने वाला है। 1) रात्रि जागरण, 2) प्रात:काल का स्नान, 3) तुलसी वट सिंचन, 4) उद्यापन और 5) दीपदान – यह पाँच कर्म भगवान विष्णु को प्रसन्न करने वाले हैं इसलिए इनका पालन अवश्य करना चाहिए।

          ऋषि बोले – भगवान विष्णु को प्रिय, अधिक फल की प्राप्ति कराने वाले, शरीर के प्रत्येक अंग को प्रसन्न करने वाले कार्तिक माहत्म्य आपने हमें बताया। यह मोक्ष की कामना करने वालो अथवा भोग की इच्छा रखने वाले मनुष्यों को यह व्रत अवश्य ही करना चाहिए। इसके अतिरिक्त हम आपसे एक बात पूछना चाहते हैं कि यदि कार्तिक मास का व्रत करने वाला मनुष्य किसी संकट में फंस जाये या वह किसी वन में हो या व्रती किसी रोग से ग्रस्त हो जाये तो उस मनुष्य को कार्तिक व्रत को किस प्रकार करना चाहिए? क्योंकि कार्तिक व्रत भगवान विष्णु को अत्यन्त प्रिय है और इसे करने से मुक्ति एवं भक्ति प्राप्त होती है इसलिए इसे छोड़ना नहीं चाहिए।

          श्रीसूतजी ने इसका उत्तर देते हुए कहा – यदि कार्तिक का व्रत करने वाला मनुष्य किसी संकट में फंस जाये तो वह हिम्मत करके भगवान शंकर या भगवान विष्णु के मन्दिर, जो भी पास हो उसमें जाकर रात्रि जागरण करे। यदि व्रती घने वन में फंस जाये तो फिर पीपल के वृक्ष के नीचे या तुलसी के वन में जाकर जागरण करे। भगवान विष्णु की प्रतिमा के सामने बैठकर विष्णुजी का कीर्तन करे। ऎसा करने से सहस्त्रों गायों के दान के समान फल की प्राप्ति होती है। जो मनुष्य विष्णुजी के कीर्तन में बाजा बजाता है उसे वाजपेय यज्ञ के समान फल की प्राप्ति होती है और हरि कीर्तन में नृत्य करने वाले मनुष्यों को सभी तीर्थों में स्नान करने का फल प्राप्त होता है। किसी संकट के समय या रोगी हो जाने और जल न मिल पाने की स्थिति में केवल भगवान विष्णु के नाममात्र से मार्जन ही कर लें।

          यदि उद्यापन न कर सके तो व्रत की पूर्त्ति के लिए केवल ब्राह्मणों के प्रसन्न होने के कारण विष्णुजी प्रसन्न रहते हैं। यदि मनुष्य दीपदान करने में असमर्थ हो तो दूसरे की दीप की वायु आदि से भली-भांति रक्षा करे। यदि तुलसी का पौधा समीप न हो तो वैष्णव ब्राह्मण की ही पूजा कर ले क्योंकि भगवान विष्णु सदैव अपने भक्तों के समीप रहते हैं। इन सबके न होने पर कार्तिक का व्रत करने वाला मनुष्य ब्राह्मण, गौ, पीपल और वटव्रक्ष की श्रद्धापूर्वक सेवा करे।

          शौनक आदि ऋषि बोले – आपने गौ तथा ब्राह्मणों के समान पीपल और वट वृक्षों को बताया है और सभी वृक्षों में पीपल तथा वट वृक्ष को ही श्रेष्ठ कहा है, इसका कारण बताइए।

          सूतजी बोले – पीपल भगवान विष्णु का और वट भगवान शंकर का स्वरूप है। पलाश ब्रह्माजी के अंश से उत्पन्न हुआ है। जो कार्तिक मास में उसके पत्तल में भोजन करता है वह भगवान विष्णु के लोक में जाता है। जो इन वृक्षों की पूजा, सेवा एवं दर्शन करते हैं उनके सभी पाप नष्ट हो जाते हैं।

          ऋषियों ने पूछा – हे प्रभु! हम लोगों के मन में एक शंका है कि ब्रह्मा, विष्णु और शंकर वृक्ष स्वरुप क्यों हुए? कृपया आप हमारी इस शंका का निवारण कीजिए।

          सूतजी बोले – प्राचीनकाल में भगवान शिव तथा माता पार्वती विहार कर रहे थे। उस समय उनके विहार में विघ्न उपस्थित करने के उद्देश्य से अग्निदेव ब्राह्मण का रुप धारण करके वहाँ पहुँचे। विहार के आनन्द के वशीभूत हो जाने के कारण कुपित होकर माता पार्वती ने सभी देवताओं को शाप दे दिया।

          माता पार्वती ने कहा – हे देवताओं! विषयसुख से कीट-पतंगे तक अनभिज्ञ नहीं है। आप लोगों ने देवता होकर भी उसमें विघ्न उपस्थित किया है इसलिए आप सभी वृक्ष बन जाओ।

          सूतजी बोले – इस प्रकार कुपित पार्वती जी के शाप के कारण समस्त देवता वृक्ष बन गये। यही कारण है कि भगवान विष्णु पीपल और शिवजी वट वृक्ष हो गये। इसलिए भगवान विष्णु का शनिदेव के साथ योग होने के कारण केवल शनिवार को ही पीपल को छूना चाहिए अन्य किसी भी दिन नहीं छूना चाहिए।


🚩जय श्रीराधे कृष्णा🚩

Tuesday, October 8, 2024

कार्तिक माहात्म्य --32

 

अध्याय - 32

          

          भगवान श्रीकृष्ण ने आगे कहा – हे प्रिये! यमराज की आज्ञा शिरोधार्य करते हुए प्रेतपति धनेश्वर को नरकों के समीप ले गया और उसे दिखाते हुए कहने लगा – हे धनेश्वर! महान भय देने वाले इन नरकों की ओर दृष्टि डालो। इनमें पापी पुरुष सदैव दूतों द्वारा पकाए जाते हैं। यह देखो यह तप्तवाचुक नामक नरक है जिसमें देह जलने के कारण पापी विलाप कर रहे हैं। जो मनुष्य भोजन के समय भूखों को भोजन नहीं देता वह बार-बार इस नरक में डाले जाते हैं। वह प्राणी, जो गुरु, अग्नि, ब्राह्मण, गौ, वेद और राजा – इनको लात मारता है वह भयंकर नरक अतिशय पापों के करने पर मिलते हैं।

          आगे देखो यह दूसरा नरक है जिसका नाम अन्धतामिस्र है। इन पापियों को सुई की भांति मुख वाले तमोत नामक कीड़े काट रहे हैं। इस नरक में दूसरों का दिल दुखाने वाले पापी गिराये जाते हैं।

          यह तीसरा नरक है जिसका नाम क्रकेय है। इस नरक में पापियों को आरे से चीरा जाता है। यह नरक भी असिमत्रवण आदि भेदों से छ: प्रकार का होता है। इसमें स्त्री तथा पुत्रों के वियोग कराने वाले मनुष्यों को कड़ाही में पकाया जाता है। दो प्रियजनों को दूर करने वाले मनुष्य भी असिमत्र नामक नरक में तलवार की धार से काटे जाते हैं और कुछ भेड़ियों के डर से भाग जाते हैं।

          अब अर्गल नामक यह चौथा नरक देखो। इसमें पापी विभिन्न प्रकार से चिल्लाते हुए इधर-उधर भाग रहे हैं। यह नरक भी वध आदि भेदों से छ: प्रकार का है। अब तुम यह पांचवाँ नरक देखो जिसका नाम कूटशाल्मलि है। इसमें अंगारों की तरह कष्ट देने वाले बड़े-बड़े कांटे लगे हैं। यह नरक भी यातना आदि भेदों से छ: प्रकार का है। इस नरक में परस्त्री गमन करने वाले मनुष्य डाले जाते हैं।

          अब तुम यह छठा नरक देखो। उल्वण नामक नरक में सिर नीचे कर के पापियों को लटकाया जाता है। जो लोग भक्ष्याभक्ष्य का विचार नहीं करते दूसरों की निन्दा और चुगली करते हैं वे इस नरक में डाले जाते हैं। दुर्गन्ध भेद से यह नरक भी छ: प्रकार का है।

          यह सातवाँ नरक है जिसका नाम कुम्भीपाक है। यह अत्यन्त भयंकर है और यह भी छ: प्रकार का है। इसमें महापातकी मनुष्यों को पकाया जाता है, इस नरक में सहस्त्रों वर्षों तक यातना भोगनी पड़ती है जो पाप इच्छारहित किये जाते हैं वह सूखे और जो पाप इच्छापूर्वक किये जाते हैं वह पाप आर्द्र कहलाते हैं। इस प्रकार शुष्क और आर्द्र भेदों से यह पाप दो प्रकार के होते हैं। इसके अलावा और भी अलग-अलग चौरासी प्रकार के पाप है। 1) अपक्रीण, 2) पाडाकतेय, 3) मलिनीकर्ण, 4) जातिभ्रंशकर्ण, 5) उपाय, 6) अतिपाप, 7) महापाप – यह सात प्रकार के पातक हैं। जो मनुष्य जैसा कर्म करता है उसे इन सातों नरकों में उसके पाप कर्मों के अनुसार पकाया जाता है। चूंकि तुम्हें कार्तिक व्रत करने वाले प्रभु भक्तों का संसर्ग प्राप्त हुआ था उससे पुण्य की वृद्धि हो जाने के कारण ये सभी नरक तुम्हारे लिए निश्चय ही नष्ट हो गये हैं।

          इस प्रकार धनेश्वर को नरकों का दर्शन कराकर प्रेतराज उसे यक्षलोक में ले गये। वहाँ जाकर उसे वहाँ का राजा बना दिया। वही कुबेर का अनुचर ‘धनक्षय’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। बाद में महर्षि विश्वामित्र ने उसके नाम पर तीर्थ बनाया था।

          कार्तिक मास का व्रत महाफल देने वाला है, इसके समतुल्य अन्य कोई दूसरा पुण्य कर्म नहीं है। जो भी मनुष्य इस व्रत को करता है तथा व्रत करने वाले का दर्शन करता है उसे मोक्ष की प्राप्ति है।


🚩जय श्रीराधे कृष्णा🚩

Monday, October 7, 2024

कार्तिक माहात्म्य --31


अध्याय - 31

          

          भगवान श्रीकृष्ण ने कहा – पूर्वकाल में अवन्तिपुरी (उज्जैन)में धनेश्वर नामक एक ब्राह्मण रहता था।वह रस, चमड़ा और कम्बल आदि का व्यापार करता था। वह वैश्यागामी और मद्यपान आदि बुरे कर्मों में लिप्त रहता था। चूंकि वह रात-दिन पाप में रत रहता था इसलिए वह व्यापार करने नगर-नगर घूमता था। एक दिन वह क्रय-विक्रय के कार्य से घूमता हुआ महिष्मतीपुरी में जा पहुंचा जो राजा महिष ने बसाई थी। वहाँ पापनाशिनी नर्मदा सदैव शोभा पाती है। उस नदी के किनारे कार्तिक का व्रत करने वाले बहुत से मनुष्य अनेक गाँवों से स्नान करने के लिए आये हुए थे। धनेश्वर ने उन सबको देखा और अपना सामान बेचता हुआ वह भी एक मास तक वहीं रहा।

          वह अपने माल को बेचता हुआ नर्मदा नदी के तट पर घूमता हुआ स्नान, जप और देवार्चन में लगे हुए ब्राह्मणों को देखता और वैष्णवों के मुख से भगवान विष्णु के नामों का कीर्तन सुनता था। वह वहाँ रहकर उनको स्पर्श करता रहा, उनसे बातचीत करता रहा। वह कार्तिक के व्रत की उद्यापन विधि तथा जागरण भी देखता रहा। उसने पूर्णिमा के व्रत को भी देखा कि व्रती ब्राह्मणों तथा गऊओं को भोजन करा रहे हैं, उनको दक्षिणा आदि भी दे रहे हैं। उसने नित्य प्रति भगवान शंकर की प्रसन्नता के लिए होती दीपमाला भी देखी।

          त्रिपुर नामक राक्षस के तीनों पुरों को भगवान शिव ने इसी तिथि को जलाया था इसलिए शिवजी के भक्त इस तिथि को दीप-उत्सव मनाते हैं। जो मनुष्य मुझमें और शिवजी में भेद करता है, उसकी समस्त क्रियाएँ निष्फल हो जाती हैं। इस प्रकार नर्मदा तट पर रहते हुए जब उसको एक माह व्यतीत हो गया तो एक दिन अचानक उसे किसी काले साँप ने डस लिया। इससे विह्वल होकर वह भूमि पर गिर पड़ा। उसकी यह दशा देखकर वहाँ के दयालु भक्तों ने उसे चारों ओर से घेर लिया और उसके मुँह पर तुलसीदल मिश्रित जल के छींटे देने लगे। जब उसके प्राण निकल गये तब यमदूतों ने आकर उसे बाँध लिया और कोड़े बरसाते हुए उसे यमपुरी ले गये।

          उसे देखकर चित्रगुप्त ने यमराज से कहा – इसने बाल्यावस्था से लेकर आज तक केवल बुरे कार्य ही हैं इसके जीवन में तो पुण्य का लेशमात्र भी दृष्टिगोचर नहीं होता। यदि मैं पूरे एक वर्ष तक भी आपको सुनाता रहूँ तो भी इसके पापों की सूची समाप्त नहीं होगी।

यह महापापी है इसलिए इसको एक कल्प तक घोर नरक में डालना चाहिए। चित्रगुप्त की बात सुनकर यमराज ने कुपित होकर कालनेमि के समान अपना भयंकर रुप दिखाते हुए अपने अनुचरों को आज्ञा देते हुए कहा – हे प्रेत सेनापतियों! इस दुष्ट को मुगदरों से मारते हुए कुम्भीपाक नरक में डाल दो।

          सेनापतियों ने मुगदरों से उसका सिर फोड़ते हुए कुम्भीपाक नरक में ले जाकर खौलते हुए तेल के कड़ाहे में डाल दिया। प्रेत सेनापतियों ने उसे जैसे ही तेल के कड़ाहे में डाला, वैसे ही वहाँ का कुण्ड शीतल हो गया ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार पूर्वकाल में प्रह्लादजी को डालने से दैत्यों की जलाई हुई आग ठण्डी हो गई थी। यह विचित्र घटना देखकर प्रेत सेनापति यमराज के पास गये और उनसे सारा वृत्तान्त कहा।

          सारी बात सुनकर यमराज भी आश्चर्यचकित हो गये और इस विषय में पूछताछ करने लगे। उसी समय नारदजी वहाँ आये और यमराज से कहने लगे – सूर्यनन्दन! यह ब्राह्मण नरकों का उपभोग करने योग्य नही है। जो मनुष्य पुण्य कर्म करने वाले लोगों का दर्शन, स्पर्श और उनके साथ वार्तालाप करता है, वह उनके पुण्य का छठवाँ अंश प्राप्त कर लेता है। यह धनेश्वर तो एक मास तक श्रीहरि के कार्तिक व्रत का अनुष्ठान करने वाले असंख्य मनुष्यों के सम्पर्क में रहा है। अत: यह उन सबके पुण्यांश का भागी हुआ है। इसको अनिच्छा से पुण्य प्राप्त हुआ है इसलिए यह यक्ष की योनि में रहे और पाप भोग के रुप में सब नरक का दर्शन मात्र कर के ही यम यातना से मुक्त हो जाए।

          भगवान श्रीकृष्ण ने कहा – सत्यभामा! नारदजी के इस प्रकार कहकर चले जाने के पश्चात धनेश्वर को पुण्यात्मा समझते हुए यमराज ने दूतों को उसे नरक दिखाने की आज्ञा दी।


🚩जय श्रीराधे कृष्णा🚩

Sunday, October 6, 2024

कार्तिक माहात्म्य--30


अध्याय - 30


                    भगवान श्रीकृष्ण सत्यभामा से बोले – हे प्रिये! नारदजी के यह वचन सुनकर महाराजा पृथु बहुत आश्चर्यचकित हुए। अन्त में उन्होंने नारदजी का पूजन करके उनको विदा किया। इसीलिए माघ, कार्तिक और एकादशी – यह तीन व्रत मुझे अत्यधिक प्रिय हैं। वनस्पतियों में तुलसी, महीनों में कार्तिक, तिथियों में एकादशी और क्षेत्रों में प्रयाग मुझे बहुत प्रिय हैं। जो मनुष्य इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर इनका सेवन करता है वह मुझे यज्ञ करने वाले मनुष्य से भी अधिक प्रिय है। जो मनुष्य विधिपूर्वक इनकी सेवा करते हैं, मेरी कृपा से उन्हें समस्त पापों से छुटकारा मिल जाता है।

          भगवान श्रीकृष्ण के वचन सुनकर सत्यभामा ने कहा – हे प्रभो! आपने बहुत ही अद्भुत बात कही है कि दूसरे के लिए पुण्य के फल से कलहा की मुक्ति हो गयी। यह प्रभावशाली कार्तिक मास आपको अधिक प्रिय है जिससे पतिद्रोह का पाप केवल स्नान के पुण्य से ही नष्ट हो गया। दूसरे मनुष्य द्वारा किया हुआ पुण्य उसके देने से किस प्रकार मिल जाता है, यह आप मुझे बताने की कृपा करें।

          श्रीकृष्ण भगवान बोले – प्रिये! जिस कर्म द्वारा बिना दिया हुआ पुण्य और पाप मिलता है उसे ध्यानपूर्वक सुनो।

          सतयुग में देश, ग्राम तथा कुलों को दिया पुण्य या पाप मिलता था किन्तु कलियुग में केवल कर्त्ता को ही पाप तथा पुण्य का फल भोगना पड़ता है। संसर्ग न करने पर भी वह व्यवस्था की गई है और संसर्ग से पाप व पुण्य दूसरे को मिलते हैं, उसकी व्यवस्था भी सुनो।

          पढ़ाना, यज्ञ कराना और एक साथ भोजन करने से पाप-पुण्य का आधा फल मिलता है। एक आसन पर बैठने तथा सवारी पर चढ़ने से, श्वास के आने-जाने से पुण्य व पाप का चौथा भाग जीवमात्र को मिलता है। छूने से, भोजन करने से और दूसरे की स्तुति करने से पुण्य और पाप का छठवाँ भाग मिलता है। दूसरे की निन्दा, चुगली और धिक्कार करने से उसका सातवाँ भाग मिलता है। पुण्य करने वाले मनुष्यों की जो कोई सेवा करता है वह सेवा का भाग लेता है और अपना पुण्य उसे देता है।

          नौकर और शिष्य के अतिरिक्त जो मनुष्य दूसरे से सेवा करवाकर उसे पैसे नहीं देता, वह सेवक उसके पुण्य का भागी होता है। जो व्यक्ति पंक्ति में बैठे हुए भोजन करने वालों की पत्तल लांघता है, वह उसे(जिसकी पत्तल उसने लांघी है) अपने पुण्य का छठवाँ भाग देता है। स्नान तथा ध्यान आदि करते हुए मनुष्य से जो व्यक्ति बातचीत करता है या उसे छूता है, वह अपने पुण्य का छठवाँ भाग दे डालता है।

          जो मनुष्य धर्म के कार्य के लिए दूसरों से धन मांगता है, वह पुण्य का भागी होता है। ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार कि दान करने वाला पुण्य का भागी होता है। जो मनुष्य धर्म का उपदेश करता है और उसके बाद सुनने वाले से याचना करता है, वह अपने पुण्य का छठवाँ भाग उसे दे देता है। जो मनुष्य दूसरों का धन चुराकर उससे धर्म करता है, वह चोरी का फल भोगता है और शीघ्र ही निर्धन हो जाता है और जिसका धन चुराता है, वह पुण्य का भागी होता है।

          बिना ऋण उतारे जो मनुष्य मृत्यु को प्राप्त होता है, उनको ऋण देने वाले सज्जन पुरुष पुण्य के भागी होते हैं। शिक्षा देने वाला, सलाह देने वाला, सामग्री को जुटाने वाला तथा प्रेरणा देने वाला, यह पाप और पुण्य के छठे भाग को प्राप्त करते हैं। राजा प्रजा के पाप-पुण्य के षष्ठांश का भोगी होता है, गुरु शिष्यों का, पति पत्नी का, पिता पुत्र का, स्त्री पति के लिए पुण्य का छठा भाग पाती है। पति को प्रसन्न करने वाली आज्ञाकारी स्त्री पति के लिए पुण्य का आधा भाग ले लेती है।

          जो पुण्यात्मा पराये लोगों को दान करते हैं, वह उनके पुण्य का छठा भाग प्राप्त करते हैं। जीविका देने वाला मनुष्य जीविका ग्रहण करने वाले मनुष्य के पुण्य के छठे भाग को प्राप्त करता है। इस प्रकार दूसरों के लिए पुण्य अथवा पाप बिना दिये भी दूसरे को मिल सकते हैं किन्तु यह नियम जो कि मैंने बतलाये हैं, ये कलियुग में लागू नहीं होते। कलियुग में तो एकमात्र कर्त्ता को ही अपने पाप व पुण्य भोगने पड़ते हैं। इस संबंध में एक बड़ा पुराना इतिहास है जो कि पवित्र भी है और बुद्धि प्रदान करने वाला कहा जाता है, उसे ध्यानपूर्वक सुनो –

       (यह इतिहास 31वें अध्याय में बताया जाएगा।)


🚩जय श्रीराधे कृष्णा🚩

Saturday, October 5, 2024

कार्तिक माहात्म्य --29


अध्याय - 29

          

          राजा पृथु ने कहा – हे मुनिश्रेष्ठ! आपने कलहा द्वारा मुक्ति पाये जाने का वृत्तान्त मुझसे कहा जिसे मैंने ध्यानपूर्वक सुना। हे नारदजी! यह काम उन दो नदियों के प्रभाव से हुआ था, कृपया यह मुझे बताने की कृपा कीजिए।

          नारद जी बोले – हे राजन! कृष्णा नदी साक्षात भगवान श्रीकृष्ण महाराज का शरीर और वेणी नामक नदी भगवान शंकर का शरीर है। इन दोनों नदियों के संगम का माहात्म्य श्रीब्रह्माजी भी वर्णन करने में समर्थ नहीं है फिर भी चूंकि आपने पूछा है इसलिए आपको इनकी उत्पत्ति का वृत्तान्त सुनाता हूँ ध्यानपूर्वक सुनो –

          चाक्षसु मन्वन्तर के आरम्भ में ब्रह्माजी ने सह्य पर्वत के शिखर पर यज्ञ करने का निश्चय किया। वह भगवान विष्णु, भगवान शंकर तथा समस्त देवताओं सहित यज्ञ की सामग्री लेकर उस पर्वत के शिखर पर गये। महर्षि भृगु आदि ऋषियों ने ब्रह्ममुहूर्त में उन्हें दीक्षा देने का विचार किया। तत्पश्चात भगवान विष्णु ने ब्रह्माजी की भार्या त्वरा को बुलवाया। वह बड़ी धीमी गति से आ रही थी। इसी बीच में भृगु जी ने भगवान विष्णु से पूछा – हे प्रभु! आपने त्वरा को शीघ्रता से बुलाया था, वह क्यों नहीं आई? ब्रह्ममुहूर्त निकल जाएगा।

          इस पर भगवान विष्णु बोले – यदि त्वरा यथासमय यहाँ नहीं आती है तो आप गायत्री को ही स्त्री मानकर दीक्षा विधान कर दीजिएगा। क्या गायत्री पुण्य कर्म में ब्रह्माजी की स्त्री नहीं हो सकती?

          नारदजी ने कहा – हे राजन! भगवान विष्णु की इस बात का समर्थन भगवान शंकर जी ने भी किया। यह बात सुनकर भृगुजी ने गायत्री को ही ब्रह्माजी के दायीं ओर बिठाकर दी़क्षा विधान आरंभ कर दिया। जिस समय ऋषिमण्डल गायत्री को दीक्षा देने लगा, उसी समय त्वरा भी यज्ञमण्डल में आ पहुँची।

          ब्रह्माजी के दायीं ओर गायत्री को बैठा देखकर ईर्ष्या से कुपित होकर त्वरा बोली – जहाँ अपूज्यों की पूजा और पूज्यों की अप्रतिष्ठा होती है वहाँ पर दुर्भिक्ष, मृत्यु तथा भय तीनों अवश्य हुआ करते हैं। यह गायत्री ब्रह्माजी की दायीं ओर मेरे स्थान पर विराजमान हुई है इसलिए यह अदृश्य बहने वाली नदी होगी। आप सभी देवताओं ने बिना विचारे इसे मेरे स्थान पर बिठाया है इसलिए आप सभी जड़ रूप नदियाँ होगें।

          नारदजी राजा पृथु से बोले – हे राजन! इस प्रकार त्वरा के शाप को सुनकर गायत्री क्रोध से आग-बबूला होकर अपने होठ चबाने लगी। देवताओं के मना करने पर भी उसने उठकर त्वरा को शाप दे दिया। गायत्री बोली – त्वरा! जिस प्रकार ब्रह्माजी तुम्हारे पति हैं उसी प्रकार मेरे भी पति हैं। तुमने व्यर्थ ही शाप दे दिया है इसलिए तुम भी नदी हो जाओ तब देवताओं में खलबली मच गई। सभी देवता त्वरा को साष्टांग प्रणाम कर के बोले – हे देवि! तुमने ब्रह्मा आदि समस्त देवताओं को जो शाप दिया है वह उचित नहीं है क्योंकि यदि हम सब जड़ रुप नदियाँ हो जाएंगे तो फिर निश्चय ही यह तीनों लोक नहीं बच पाएंगे। चूंकि यह शाप तुमने बिना विचार किए दिया है इसलिए यह शाप तुम वापिस ले लो।

          त्वरा बोली – हे देवगण! आपके द्वारा यज्ञ के आरम्भ में गणेश पूजन न किये जाने के कारण ही यह विघ्न उत्पन्न हुआ है। मेरा यह शाप कदापि खाली नहीं जा सकता इसलिए आप सभी अपने अंगों से जड़ीभूत होकर अवश्यमेव नदियाँ बनोगे। हम दोनों सौतने भी अपने-अपने वंशों पश्चिम में बहने वाली नदियाँ बनेगी।

          नारदजी राजा पृथु से बोले – हे राजन! त्वरा के यह वचन सुनकर भगवान विष्णु, शंकर आदि सभी देवता अपने-अपने अंशों से नदियाँ बन गये। भगवान विष्णु के अंश से कृष्णा, भगवान शंकर के अंश से वेणी तथा ब्रह्माजी के अंश से ककुदमवती नामक नदियाँ उत्पन्न हो गई। समस्त देवताओं ने अपने अंशों को जड़ बनाकर वहीं सह्य पर्वत पर फेंक दिया। फिर उन लोगों के अंश पृथक-पृथक नदियों के रूप में बहने लगे। देवताओं के अंशों से सहस्त्रों की संख्या में पश्चिम की ओर बहने वाली नदियाँ उत्पन्न हो गई। गायत्री और त्वरा दोनों पश्चिम की ओर बहने वाली नदियाँ होकर एक साथ बहने लगी, उन दोनों का नाम सावित्री पड़ा।

          ब्रह्माजी ने यज्ञ स्थान पर भगवान विष्णु तथा भगवान शंकर की स्थापना की। दोनों देवता महाबल तथा अतिबल के नाम से प्रसिद्ध हुए। हे राजन! कृष्णा और वेणी नदी की उत्पत्ति का यह वर्णन जो भी मनुष्य सुनेगा या सुनायेगा, उसे नदियों के दर्शन और स्नान का फल प्राप्त होगा।


🚩जय श्रीराधे कृष्णा🚩

Friday, October 4, 2024

कार्तिक माहात्म्य --28


अध्याय - 28

          

          धर्मदत्त ने पूछा – मैंने सुना है कि जय और विजय भी भगवान विष्णु के द्वारपाल हैं। उन्होंने पूर्वजन्म में ऎसा कौन सा पुण्य किया था जिससे वे भगवान के समान रूप धारण कर के वैकुण्ठधाम के द्वारपाल हुए?

          दोनों पार्षदों ने कहा – ब्रह्मन! पूर्वकाल में तृणविन्दु की कन्या देवहूति के गर्भ से महर्षि कर्दम की दृष्टिमात्र से दो पुत्र उत्पन्न हुए। उनमें से बड़े का नाम जय और छोटे का नाम विजय हुआ। पीछे उसी देवहूति के गर्भ से योगधर्म के जानने वाले भगवान कपिल उत्पन्न हुए। जय और विजय सदा भगवान की भक्ति में तत्पर रहते थे। वे नित्य अष्टाक्षर मन्त्र का जप और वैष्णव व्रतों का पालन करते थे। एक समय राजा मरुत्त ने उन दोनों को अपने यज्ञ में बुलाया। वहां जय ब्रह्मा बनाए गए और विजय आचार्य। उन्होंने यज्ञ की सम्पूर्ण विधि पूर्ण की। यज्ञ के अन्त में अवभृथस्थान के पश्चात राजा मरुत्त ने उन दोनों को बहुत धन दिया।

          धन लेकर दोनों भाई अपने आश्रम पर गये। वहाँ उस धन का विभाग करते समय दोनों में परस्पर लाग-डाँट पैदा हो गई। जय ने कहा – इस धन को बराबर-बराबर बाँट लिया जाये। विजय का कहना था – नहीं, जिसको जो मिला है वह उसी के पास रहे तब जय ने क्रोध में आकर लोभी विजय को शाप दिया – तुम ग्रहण कर के देते नहीं हो इसलिए ग्राह अर्थात मगरमच्छ हो जाओ।

          जय के शाप को सुनकर विजय ने भी शाप दिया – तुमने मद से भ्रान्त होकर शापो दिया है इसलिए तुम मातंग अर्थात हाथी की योनि में जाओ। तत्पश्चात उन्होंने भगवान से शाप निवृति के लिए प्रार्थना की। श्री भगवान ने कहा – तुम मेरे भक्त हो तुम्हारा वचन कभी असत्य नहीं होगा। तुम दोनों अपने ही दिये हुए इन शापों को भोगकर फिर से मेरे धाम को प्राप्त होगे।

          ऎसा कहकर भगवान विष्णु अन्तर्धान हो गये। तदनन्तर वे दोनों गण्ड नदी के तट पर ग्राह और गज हो गये। उस योनि में भी उन्हें पूर्वजन्म का स्मरण बना रहा और वे भगवान विष्णु के व्रत में तत्पर रहे। किसी समय वह गजराज कार्तिक मास में स्नान के लिए गण्ड नदी गया तो उस समय ग्राह ने शाप के हेतु को स्मरण करते हुए उस गज को पकड़ लिया। ग्राह से पकड़े जाने पर गजराज ने भगवान रमानाथ का स्मरण किया तभी भगवान विष्णु शंख, चक्र और गदा धारण किये वहां प्रकट हो गये उन्होंने चक्र चलाकर ग्राह और गजराज का उद्धार किया और उन्हें अपने ही जैसा रूप देकर वैकुण्ठधाम को ले गये तब से वह स्थान हरिक्षेत्र के नाम से प्रसिद्ध है। वे ही दोनों विश्वविख्यात जय और विजय हैं जो भगवान विष्णु के द्वारपाल हुए हैं।

          धर्मदत्त! तुम भी ईर्ष्या और द्वेष का त्याग करके सदैव भगवान विष्णु के व्रत में स्थिर रहो, समदर्शी बनो, कार्तिक, माघ और वैशाख के महीनों में सदैव प्रात:काल स्नान करो। एकादशी व्रत के पालन में स्थिर रहो। तुलसी के बगीचे की रक्षा करते रहो। ऎसा करने से तुम भी शरीर का अन्त होने पर भगवान विष्णु के परम पद को प्राप्त होवोगे। भगवान विष्णु को सन्तुष्ट करने वाले तुम्हारे इस व्रत से बढ़कर न यज्ञ हैं न दान है और न तीर्थ ही हैं। विप्रवर! तुम धन्य हो, जिसके व्रत के आधे भाग का फल पाकर यह स्त्री हमारे द्वारा वैकुण्ठधाम में ले जायी जा रही है।

          नारद जी बोले – हे राजन! धर्मदत्त को इस प्रकार उपदेश देकर वे दोनों विमानचारी पार्षद उस कलहा के साथ वैकुण्ठधाम को चले गये। धर्मदत्त जीवन-भर भगवान के व्रत में स्थिर रहे और देहावसान के बाद उन्होंने अपनी दोनों स्त्रियों के साथ वैकुण्ठधाम प्राप्त कर लिया। इस प्राचीन इतिहास को जो सुनता है और सुनाता है वह जगद्गुरु भगवान की कृपा से उनका सान्निध्य प्राप्त कराने वाली उत्तम गति को प्राप्त करता है।


🚩जय श्रीराधे कृष्णा🚩

Thursday, October 3, 2024

शिव शम्भो शिव शम्भो

 

शिव शम्भो शिव शम्भो


शिव शम्भो शिव शम्भो

शम्भो करोती सब संभव

शिव शम्भो, शिव शम्भो

शम्भो करोती सब संभव

शिव शम्भो, शिव शम्भो

शम्भो करोती सब संभव

ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् |

उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात् ||

 

शिव शम्भो, शिव शम्भो

शम्भो करोती सब संभव

शिव शम्भो, शिव शम्भो

शम्भो करोती सब संभव

अँडज पिंडज जड चेतन सब मे है शिव मे वदंन

शिव शम्भो, शिव शम्भो

शम्भो करोती सब संभव

शिव शम्भो शिव शम्भो

शम्भो करोती सब संभव

ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् |

उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात् ||

 

शिव शम्भो, शिव शम्भो

शम्भो करोती सब संभव

शिव शम्भो, शिव शम्भो

शम्भो करोती सब संभव

यह भवसागर की उथल, पुथल

और कर्मो के लेख अटल हर, हर दानी

ध्यानी ने तीन लोक शिव पटल

शिव शम्भो, शिव शम्भो

शम्भो करोती सब संभव

शिव शम्भो, शिव शम्भो

शम्भो करोती सब संभव

ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् |

उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात् ||

 

शिव शम्भो, शिव शम्बो

शिव शम्भो, शिव शम्भो

शम्भो करोती सब संभव

बडे भाग्य सें मिला है जीवन

जीव जगत, जल थल, कण, कण

अँडज, पिंडज जड चेतन सब मे है शिव मे वदंन

शिव शम्भो, शिव शम्भो

शम्भो करोती सब संभव

शिव शम्भो, शिव शम्भो

शम्भो करोती सब संभव

ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् |

उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात् ||



Artist :- Kailash Kher 

Singer - Kailash Kher

Music Director :- Kailash Kher

Additional Lyrics :- Pt. Kailash Kher